वो इमाम जिन्होंने नस्लवाद के ख़िलाफ़ लड़ते हुए दम तोड़ा
दक्षिण अफ्रीका में नस्लवाद का विरोध करते हुए दम तोड़ने वाले इमाम अब्दुल्ला हारून के रिश्तेदार और दोस्तों को अभी भी उनकी मौत का बहुत दुख है. आज से 50 साल पहले इमाम अब्दुल्ला हारून की मौत हो गई थी. उनके बारे में जानकारी दे रहे हैं, बीबीसी संवाददाता पेनी डेल. साल 1969 में दक्षिण अफ़्रीका के केप टाउन में 29 सितंबर के दिन दो महत्वपूर्ण घटनाएं घटीं.
दक्षिण अफ्रीका में नस्लवाद का विरोध करते हुए दम तोड़ने वाले इमाम अब्दुल्ला हारून के रिश्तेदार और दोस्तों को अभी भी उनकी मौत का बहुत दुख है.
आज से 50 साल पहले इमाम अब्दुल्ला हारून की मौत हो गई थी. उनके बारे में जानकारी दे रहे हैं, बीबीसी संवाददाता पेनी डेल.
साल 1969 में दक्षिण अफ़्रीका के केप टाउन में 29 सितंबर के दिन दो महत्वपूर्ण घटनाएं घटीं.
पहली बड़ी घटना थी एक विशाल शवयात्रा, जिसमें क़रीब 40 हज़ार लोग इमाम अब्दुल्ला हारून के शव के साथ क़रीब 10 किलोमीटर तक चले और मोब्रे मुस्लिम कब्रिस्तान में उन्हें दफ़नाया.
दूसरी घटना थी, रात को आया एक जबरदस्त भूकंप जिसने धरती को हिला कर रख दिया था.
अंतिम संस्कार में भाग लेने वाले कई लोगों के लिए ये दोनों घटनाओं के तार आपस में जुड़े हुए हैं. वे कहते हैं कि 45 वर्षीय दक्षिण अफ़्रीका की इमाम की मौत बहुत ही चौंकाने वाली थी.
123 दिनों तक एकांत कारावास में रहने के बाद 27 सितंबर को इमाम हारून ने जेल में ही दम तोड़ा. इस दौरान नस्लभेद के ख़िलाफ़ संघर्ष में उनकी संलिप्तता के बारे में उनसे रोज़ाना पूछताछ की जाती थी. दक्षिण अफ़्रीका में साल 1994 में पहले अश्वेत राष्ट्रपति, नेल्सन मंडेला के चुने जाने के बाद वहां नस्लभेद ख़त्म हुआ था.
इमाम हारून नस्लभेदी शासन में हिरासत में मरने वाले किसी भी धर्म के पहले मौलवी थे. उनकी मौत इस बात का इशारा थी कि "भगवान के लोग" या "धर्म से जुड़े लोग" भी इस दमनकारी और श्वेत-वर्चस्ववादी राज्य में सुरक्षित नहीं हैं.
वो आर्टिस्ट जिसका नाम इमाम के नाम पर है
इमाम अब्दुल्ला हारून की मौत की चर्चा दुनिया भर में हुई और वह पहले मुसलमान थे जिन्हें लंदन के सेंट पॉल कैथेड्रल में श्रद्धांजलि दी गई.
पुलिस ने उनकी मौत के बारे में बताया कि सीढ़ियों से उतरने के दौरान गिर जाने से उनकी मौत हुई.
उनका कहना था कि इमाम की दो टूटी हुई पसलियां और उनके शरीर पर 27 चोटों के निशान का उनके साथ कोई लेना-देना नहीं है, बावजूद इसके कि पुलिस लोगों पर अत्याचार करने और मार-पीट करने के लिए कुख्यात थी.
इमाम के परिवार ने कहा कि उन्हें पुलिस का यह 'झूठ' स्वीकार्य नहीं है और वे उनकी मौत के 50 साल पूरा होने पर एक बार फिर से उनके मौत के कारणों की जांच की मांग कर रहे हैं.
विज़ुअल आर्टिस्ट हारून गुन सलैई इस अभियान का समर्थन कर रहे हैं. इमाम के सम्मान में ही उनका ये नाम रखा गया है और उन्होंने इमाम के जीवन और मृत्यु से जुड़ी घटनाओें पर कई आर्टवर्क बनाए गए हैं.
गुन सलैई का हाल ही में किया गया काम, क्राईंग फॉर जस्टिस, केप टाउन में कैसल ऑफ़ गुड होप के मैदान में लगाया गया है. यह 118 अचिह्नित कब्रें हैं जो रंगभेद के दौर के समय हिरासत में मरने वाले लोगों का प्रतीक है. इनमें से एक प्रतीकात्मक कर्ब इमाम हारून की याद में है.
बताया जाता है कि इन सभी लोगों को बिना सुनवाई के जेल में डाला गया था. इनकी मौत के के बरे में पुलिस ने कभी कहा कि वे सीढ़ियों से गिर गए या नहाते समय फिसल गए या खुद ही खिड़कियों से नीचे छलांग लगा दी.
अदालतों में गुहार
अभी तक हिरासत में हुई मौतों के लिए किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया है और यह एक ऐसा जख्म है जो उनके परिवार वालों को आज भी दर्द देता रहता है.
महल की प्राचीर से इस आर्टवर्क को देखने पर, गुन सैलई द्वारा खोदी हुई कब्र पर जो शब्द दिखेगा वो है, न्याय?
गुन सैलई कहते हैं, "यह आर्टवर्क जितनी कोर्ट से गुहार है उतनी ही जन्नत से भी है."
उन्होंने बताया, "यह एक तरह का सार्वजनिक बयान है जो मांग करता है कि अतीत से चीजों को फिर निकाला जाए, फाइलों को खोजा जाए, सबूत ढूंढ़े जाए जिससे परिवार को इस केस का कोई फ़ैसला, किसी तरह का न्याय मिल सके."
इमाम अब्दुल्ला हारून की 93 वर्षीय विधवा गालिमा हारून का भी रविवार को उनके पति के अंतिम संस्कार के ठीक 50 साल बाद निधन हो गया है. गालिमा को भी अपने जीवनकाल में इस केस का कोई भी फ़ैसला देखने को नहीं मिला.
उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए अफ़्रीकी राष्ट्रीय कांग्रेस के सांसद फैज़ जैकब्स ने कहा, "ऐसा प्रतीत होता है कि यह एक हत्या थी. जिसके बाद विधवा हुईं गालिमा ने अपने बच्चों को अकेले ही पाला. वह हमेशा सोचती रहीं कि उनके पति की मृत्यु कैसे आखर कैसे हुई."
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वो कहते हैं "अगर रंगभेदी शासकों ने सोचा हो कि वे गालिमा की आत्मा को ख़त्म कर सकते हैं तो वह ग़लत सोचते थे. वह निडर और सिद्धांतवादी थीं."
इमाम हारून दक्षिण अफ़्रीका में सबसे कम उम्र के इमामों में से एक थे. 1955 में केवल 32 साल की उम्र में उन्हें केप टाउन के स्टेगमैन रोड मस्जिद में समूह का नेतृत्व करने के लिए नियुक्त किया गया था.
वो केप टाउन में मौजूद रूढ़िवादी मिश्रित नस्ल वाले मुस्लिम समुदाय में अग्रणी नेता थे.
उन्होंने वयस्क शैक्षणिक कक्षाओं, चर्चा समूहों की शुरुआत की, जहां युवा ही विषयों का चयन करते थे और महिलाओं को उसमें भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था.
इसके अलावा वो बच्चों को मस्जिद में पीछे बैठने की बजाय आगे बैठने और प्रार्थनाओं का नेतृत्व करने के लिए आमंत्रित करते थे.
उन्होंने मुस्लिम समुदाय से बाहर के लोगों को भी चर्चाओं में हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित किया. इनमें ट्रेड यूनियन और उदारवादी राजनेता भी शामिल थे. वो चाहते थे कि सभी लोग मिलकर युवाओं से बातें करें कि दक्षिण अफ़्रीका में क्या हो रहा है.
पेशे से पत्रकार, एएनसी के सशस्त्र समूह के पूर्व सदस्य और आर्टिस्ट गुन सैली के पिता अनीज़ सैली कहते हैं, "वह मुस्लिम मौलवियों के बने बनाए पैटर्न में फिट नहीं बैठते थे."
सैली 13 साल की उम्र में इमाम के अंतिम संस्कार में शामिल हुए थे. सैली ने बीबीसी को बताया, "इमाम काफी प्रगतिशील और अपने समय से बहुत आगे थे."
'जेम्स बॉन्ड के प्रशंसक'
इमाम हारून के तीन बच्चों में सबसे छोटी फ़ातिमा हारून-मसोइत हैं. जब इमाम हारून की मृत्यु हुई तब वह क़रीब छह साल की थीं.
उन्होंने बीबीसी को बताया, "वह एक बहुत सौम्य, दयालु, प्यारे और भावनात्मक रूप से बहुत मिलनसार व्यक्ति थे."
जब इमाम की मौत हुई थी उस समय उनके बेटे मुहम्मद हारून 12 साल के थे. अब वह बोत्सवाना में धर्मशास्त्र के एक प्रोफेसर हैं.
वह अपने पिता को एक बड़े आध्यात्मिक व्यक्ति के रूप में याद करते हैं वे किशोरावस्था से ही सप्ताह में दो दिन उपवास रखते हैं.
उन्होंने कहा, "उनकी पहचान एक धार्मिक और मुस्लिम परंपरा को मानने वाले व्यक्ति की थी."
"हालांकि, वह एक समाज सुधारक भी थे और आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे. वह शानदार परिधान पहनते थे और फनके चेहरे पर हमेशा एक मोहक मुस्कान होती थी. उन्हें रग्बी, क्रिकेट और सिनेमा का शौक था."
इमाम के पास अपना प्रोजेक्टर था. मुहम्मद याद करते हैं कि उनके पिता के दोस्त घर पर इकट्ठा होते थे जहां वो अक्सर शुक्रवार और शनिवार की रात में फ़िल्में देखा करते थे.
इमाम जेम्स ब्रांड के बहुत बड़े प्रशंसक थे. उन्होंने 007 के निर्माता इयान फ्लेमिंग के जमैका स्थित घर की तर्ज पर अपने आवास का नाम भी 'गोल्डन आई' रखा.
'गोल्डन आई' एक दो मंज़िला इमारत थी जिसमें एक बड़ी सी बॉलकनी थी और उसकी रेलिंग को संगीतमय धुन पर डिज़ाइन किया गया था.
रंगभेद क्या था?
- साल 1948 में अफ्ऱीकी मूल की नेशनल पार्टी की सरकार के नेतृत्व में इसकी शुरुआत हुई.
- काले लोगों को छोटा माना गया.
- राष्ट्रीय चुनाव में काले लोग वोट नहीं डाल सकते थे.
- जीवन के सभी पहलुओं में अलग-अलग भिन्नता रखी गई.
- दक्षिण अफ्ऱीका में काले लोगों को अधिक ज़मीन खरीदने से रोका गया.
- अधिकांश प्रशिक्षित नौकरियां गोरे लोगों के लिए आरक्षित की गईं.
- 1994 के चुनाव में नेल्सन मंडेला जब पहले अश्वेत राष्ट्रपति बने उसके बाद यह समाप्त हुआ.
इमाम हारून की इच्छा ईसाई और कम्युनिस्टों सहित अन्य नस्लों के लोगों के साथ गठबंधन बनाने की थी.
इमाम के एक छात्र और रग्बी के पूर्व खिलाड़ी यूसुफ 'जोवा' अब्राहम को याद करते हैं कि इमाम ने किस तरह रंगभेद के क्रूर और नस्लवादी क़ानूनों से सबसे ज़्यादा प्रभावित होने वाले दक्षिण अफ्ऱीका के काले लोगों के लिए आवाज़ उठाई. उन्होंने मुस्लिम समुदाय में इस अन्याय के ख़िलाफ़ जागरूकता फ़ैलाने की कोशिश की.
अब्राहम ने बीबीसी को बताया, "उन्होंने हमें बताया कि हमें नस्लीय दीवारों को तोड़ना होगा और भविष्य के लिए काम करना होगा."
'बर्बर' क़ानूनों को चुनौती दी
इमाम जो उपदेश देते थे उसका खुद अभ्यास भी करते थे. वह नियमित रूप से लांगा, गुगेल्थु और न्यांगा जैसे स्थानों में काले लोगों के समुदायों के बीच जाते थे.
इमाम होने के साथ-साथ, हारून ने कन्फेक्शनरी कंपनी विल्सन रोनट्री के लिए एक विक्रेता के रूप में भी काम किया.
इस नौकरी का मतलब था कि वह क़ानूनी रूप से बस्ती से बाहर जा सकते थे. नस्लभेदी सरकार ने ग्रुप एरियाज़ एक्ट जैसे क़ानून से नस्लीय तर्ज पर दक्षिण अफ़्रीका को अलग-थलग रखने और लोगों की गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा रखा था.
मई 1961 में केप टाउन के ड्रिल हॉल में आयोजित एक सार्वजनिक बैठक में इमाम ने उस क़ानून को 'अमानवीय, बर्बर और गैरइस्लामी' बता कर निंदा की थी. चार साल बाद, लाखों अन्य दक्षिण अफ़्रीकी लोगों की तरह, इमाम और उनके परिवार को अपने ही घर से बाहर कर दिया गया.
उस वक़्त अधिकांश दूसरे इमाम इस मामले में बोलने से डरते थे. वो यह मानते थे कि दमनकारी सरकार के लिए ख़िलाफ़ खड़ा होना उनका काम नहीं है.
लेकिन इमाम हारून की सोच इससे अलग थी और उन्होंने रंगभेद विरोधी गुप्त अभियान में भाग लेना शुरू कर दिया.
एक 'शहीद' के रूप में याद किया गया
उन्होंने अपनी पत्नी और अपने साथ के लोगों को बचाने के लिए जानबूझ कर इस बात को गुप्त रखा कि वो किस तरह से रंगभेद विरोधी गुप्त अभियानों में भाग लेते हैं.
अब्राहम का मानना है कि इमाम "अपने रहस्यों के साथ मर गए."
हालांकि, उन्हें मालूम है कि तत्कालीन प्रतिबंधित एएनसी और पैन अफ्रीकनिस्ट कांग्रेस (पीएसी) दोनों के साथ उनके गहरे संबंध थे. एएनसी और पीएसी दोनों सशस्त्र संघर्ष कर रहे थे.
1966 में और 1968 के अंत में, इमाम सऊदी अरब की यात्रा पर गए. उन्होंने राजनीतिक निर्वासन और विश्व इस्लामिक काउंसिल से मिलने के लिए गुप्त रूप से मिस्र की यात्रा की.
वह लंदन गए, जहाँ उनकी सबसे बड़ी बेटी शमीला पढ़ रही थी. वहां उन्होंने सेंट पॉल कैथेड्रल के कैनन जॉन कोलिन्स से भी मुलाकात की, जो एक एंग्लिकन पादरी थे.
हालांकि 1969 में दक्षिण अफ़्रीका लौटने के समय तक, इमाम को यह आभास हो गया था कि वह ख़तरे में हैं. 28 मई 1969 को उन्हें रंगभेद पुलिस ने पकड़ लिया था और चार महीने बाद वह मर गए थे.
इमाम के अंतिम संस्कार में, एक शिक्षक और मार्क्सवादी विक्टर वेसल्स ने कहा, "वह न केवल मुसलमानों की खातिर मरे बल्कि दमित लोगों के कल्याण के अपने उद्देश्य के लिए मर गए."
कुछ दिनों बाद, 6 अक्टूबर 1969 को सेंट पॉल कैथेड्रल में इमाम हारून को श्रद्धांजलि दी गई. उनके मित्र, कैनन कोलिन्स ने उन्हें धार्मिक और नस्लीय सीमाओं से परे बताते हुए एक शहीद बताया.