ऊंट की पीठ से कैसे अमरीका की यूनिवर्सिटी तक पहुंचा यह ‘बच्चा’
दो दर्जन के लगभग छात्रों वाले स्कूलों में केवल एक शिक्षक हैं और बच्चे ज़मीन पर बैठते हैं. रमेश जयपाल का कहना था, "कम से कम इस तरह बच्चे शिक्षा तो हासिल कर रहे हैं. उनकी शिक्षा का सिलसिला टूटेगा तो नहीं."
उनका कहना था कि उनका मिशन है कि सन 2020 तक वह पाकिस्तान भर में ऐसे सौ से अधिक स्कूल बनाएं.
रमेश जयपाल आज जहां खड़े हैं इस पर उनका कहना है कि वह उन्होंने मेहनत से हासिल की है. भविष्य में वह पाकिस्तान की संसदीय राजनीति में भी हिस्सा लेना चाहते हैं.
उनकी उम्र महज़ पांच साल थी जब पहली बार रोज़गार का बोझ उनके कंधों पर आ गया था. उन्हें संयुक्त अरब अमीरात ले जाया गया जहां वह ऊंटों की दौड़ में सवार का काम करते थे.
सरपट दौड़ते ऊंट की पीठ पर सवार उस पांच साल के बच्चे को इसके बदले में केवल दस हज़ार रुपये मिलते थे. वह इस पैसे को घरवालों को भेज देते थे.
सन 1990 में शायद ये काफ़ी रक़म होगी, लेकिन इसे कमाने में उनकी जान जा सकती थी. उस समय उनके सामने उनके दो दोस्त ऊंट से गिरकर मर चुके थे. हादसा उनके साथ भी हुआ लेकिन वह बच गए.
इसी तरह से पांच साल बीत गए. सन 1995 में संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनिसेफ़ ने सैकड़ों ऐसे बच्चों को आज़ाद करवाया जो ऊंट की दौड़ में सवार के रूप में इस्तेमाल किए जाते थे.
जीवित बच जाने वाले ख़ुशनसीबों में वह भी शामिल थे. वह वापस पाकिस्तान के रहीमयार ख़ान में अपने घर में लौट आए और फिर यहीं से पढ़ाई का सिलसिला शुरू हुआ. आर्थिक स्थिति अब ऐसी नहीं थी कि घरवाले उनका ख़र्च उठा पाते. इसलिए उन्होंने ख़ुद छोटे-मोटे काम शुरू कर दिए.
गटर साफ़ करने वालों के साथ काम करने से लेकर रिक्शा चलाने तक उन्होंने हर तरह का काम किया और अपनी पढ़ाई के ख़र्चे ख़ुद उठाए.
22 साल की जद्दोजहद के बाद सन 2017 में ये नौजवान अमरीकी सरकार की ओर से दिए जाने वाली फ़ेलोशिप पर अमरीकन यूनिवर्सिटी के वॉशिंगटन कॉलेज ऑफ़ लॉ पहुंच गया.
क़ानून और मानवाधिकर की पढ़ाई करने के बाद बीते साल वह पाकिस्तान वापस लौट आए और अब ऐसे बच्चों की शिक्षा के लिए काम कर रहे हैं जैसे हालात वह ख़ुद देख चुके हैं.
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पाकिस्तान के अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय से संबंध रखने वाले इस युवा का नाम रमेश जयपाल है, और ये उन्हीं की कहानी है.
पंजाब प्रांत के शहर रहीमयार ख़ान से चंद किलोमीटर दूर लियाक़तपुर के एक गांव में हाल में उनकी कोशिशों से हिंदू समुदाय के बच्चों के लिए एक टेंट में छोटा सा स्कूल स्थापित किया गया है.
चोलिस्तान की रेत पर खुली हवा में बने इस स्कूल में बैठे रमेश जयपाल ने बीबीसी से बातचीत में कहा कि उन्हें शिक्षा हासिल करने की लत अरब के रेगिस्तानों में लगी जब वह एक सवार के तौर पर काम करते थे.
उन्होंने कहा, "मेरी पढ़ाई के दौरान कई रुकावटें आईं. मगर मैंने इसे टुकड़ों में ही सही लेकिन जारी रखा."
जान हथेली पर लेकर ऊंट की सवारी
सन 1980 और 1990 के दशक में दस साल से छोटी उम्र के बच्चों को ऊंटों की दौड़े में इस्तेमाल किया जाता था.
अरब देशों में होने वाली इन पारंपरिक दौड़ों में ऊंट के ऊपर पर सवार बच्चा जितना ज़्यादा रोता था ऊंट उतना तेज़ दौड़ता था.
यही वजह थी कि इस पर सवार होने वाले बच्चों का सोच-समझकर चुनाव होता था. ऊंटों के अमीर मालिकों को ऐसे बच्चे दुनिया के पिछड़े देशों से बड़ी आसानी से मिल जाते थे. पाकिस्तान के बहावलपुर, रहीमयार ख़ान, ख़ानीवाल और दक्षिणी पंजाब के कई इलाक़े भी इन जगहों में शामिल थे.
रमेश जयपाल अपने एक बेरोज़गार मामा के साथ संयुक्त अरब अमीरात के शहर अल-ऐन पहुंचे. उन लोगों को वहां आसानी से नौकरी दे दी जाती थी जो अपने साथ 10 साल से छोटी उम्र का बच्चा ले आते थे.
उनके ख़ानदान की भी आर्थिक स्थित ख़राब थी. रमेश कहते हैं, "मगर मेरी मां को ये उम्मीद थी कि भाई के साथ जा रहा है तो उसका ख़याल रखेगा. उन्हें मालूम होता कि वहां कैसे हालात हैं तो शायद कभी न भेजतीं."
"रेगिस्तान के बीचों-बीच हम टेंटों या टीन के घरों में रहते थे. दिन में तापमान 41 डिग्री सेल्सियस से ऊपर तक चला जाता था और सर्दियों में रातें बेहद ठंडी होती थीं."
सर्दियों में सुबह चार बजे दौड़ की शुरुआत होती थी. बाक़ी दिनों में उन्हें ऊंटों की देखभाल करनी होती थी. इस दौरान उन्हें चारा डालना, सफ़ाई करना और फिर मालिश करनी होती थी.
वह कहते हैं, "दौड़ के दौरान एक हादसे में मेरे सिर में चोट आई, दस टांके लगे. आज भी उसकी वजह से सिर में दर्द उठता है."
रमेश जयपाल ने बताया कि कई बार वापस पाकिस्तान जाने की उनकी कोशिशें नाकाम हुईं क्योंकि उनका पासपोर्ट उनके मालिक के पास जमा था.
पांच साल बाद सन 1995 में यूनिसेफ़ से ऊंटों की दौड़ों में बच्चों के इस्तेमाल पर पाबंदी लागू कर दी गई. सैकड़ों बच्चों को उस समय आज़ादी मिली और रमेश उनमें से एक थे.
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पढ़ाई की लगी लत
रमेश के मुताबिक़ उनका मालिक एक अनपढ़ और बेरहम शख़्स था. उसके मुक़ाबले उनका भाई काफ़ी पढ़ा-लिखा और सुलझा हुआ इंसान था. इसी वजह से उसकी इज़्ज़त थी.
वह कहते हैं, "वहां से मुझे मालूम हुआ कि इंसान की इज़्ज़त शिक्षा से होती है."
पाकिस्तान वापस आने के बाद रमेश के घर वालों ने उन्हें स्कूल भेजना शुरू किया. उनके पिता एक सरकारी विभाग में मामूली कर्मचारी थे. उनका परिवार गांव से निकलकर शहर के दो कमरों के एक मकान में रह रहा था.
आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि उनके पिता बाक़ी बच्चों के साथ उनकी शिक्षा का ख़र्च उठा पाते. इस कारण रमेश को मेहनत मज़दूरी करनी पड़ी.
वह कहते हैं, "मैंने ग़ुब्बारे बेचे, पतंग बेची, गटर साफ़ करने वालों के साथ काम किया और फिर कुछ समय तक किराए पर रिक्शा चलाया."
इस तरह थोड़ा-थोड़ा पढ़ते हुए उन्होंने मैट्रिक पास की. उसके बाद एक बार फिर पढ़ाई छूटी तो उन्होंने मज़दूरी की. हालांकि, उन्होंने कम्प्यूटर सीख लिया. दो साल के बाद फिर पढ़ाई शुरू की तो एडमिनिस्ट्रेशन में डिप्लोमा किया और फिर ग्रैजुएशन किया.
रमेश ने ख़ैरपुर यूनिवर्सिटी से पहले समाजशास्त्र और फिर ग्रामीण विकास में एम.ए. की डिग्रियां हासिल कीं.
रेगिस्तान से अमरीका तक का सफ़र
पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने समाज की तरक़्क़ी में एक अहम भूमिका निभानी शुरू की. एक स्थानीय सामाजिक संगठन शुरू करने के बाद सन 2008 में उन्होंने दोस्तों की मदद से हरे रामा फ़ाउंडेशन ऑफ़ पाकिस्तान नाम के संगठन की शुरुआत की.
वह कहते हैं, "सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक लिहाज़ से अगर कोई समुदाय सबसे पीछे था तो वह पाकिस्तान का अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय था. इस कारण भेदभाव का सामना भी करना पड़ा. हरे रामा फ़ाउंडेशन के ज़रिए हमने न सिर्फ़ हिंदू बल्कि तमाम पिछड़े तबक़ों की बेहतरी के लिए काम किया."
उनका दावा है कि वह हिंदू मैरिज एक्ट लिखने वालों में भी शामिल थे. वह कहते हैं, "हिंदू समुदाय के अधिकारों के लिए मैंने पंजाब असेंबली लाहौर के सामने प्रदर्शन का नेतृत्व तक किया."
सोशल मीडिया के ज़रिए उन्हें अमरीकी सरकार के ह्युबर्ट हम्फ़्री फ़ेलोशिप प्रोग्राम के बारे में पता चला. एम.ए. की पढ़ाई के साथ उनका समाजी कामों का अनुभव काम आया और सन 2017 में उन्हें इस प्रोग्राम के लिए चुन लिया गया.
इस प्रोग्राम के तहत एक कड़ी प्रतियोगिता के बाद पाकिस्तान से हर साल विभिन्न समुदाय के चुनिंदा लोगों को अमरीका में रहने और विभिन्न यूनिवर्सिटी में पढ़ने का मौक़ा दिया जाता है.
अंग्रेज़ी कमज़ोर होने के कारण रमेश ने यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ॉर्निया से अंग्रेज़ी का कोर्स किया जिसके बाद उन्होंने वॉशिंगटन कॉलेज ऑफ़ लॉ से क़ानून और मानवाधिकार की शिक्षा हासिल की.
रमेश कहते हैं, "अल्पसंख्यक समुदाय से होने और एक पिछड़े इलाक़े से निकलकर मैं शिक्षा के लिए अमरीका तक पहुंच जाऊंगा, ऐसा मैंने कभी सोचा भी नहीं था."
उनका मानना है कि अमरीका में समय गुज़ारने और वहां शिक्षा हासिल करने के बाद उनमें वह तमाम गुण हैं जिसका इस्तेमाल कर वह पाकिस्तान की तरक़्क़ी में अपना अहम किरदार अदा कर सकते हैं.
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रहीमयार ख़ान में अपने घर को रमेश ने कई कामों का हिस्सा बना लिया है. दिन में वह स्टेट लाइफ़ इंश्योरेंस कंपनी ऑफ़ पाकिस्तान में सेल्स मैनेजर हैं और बाद के वक़्त में समाज के कामों में व्यस्त रहते हैं.
वह कहते हैं, "पहले संयुक्त अरब अमीरात और फिर अमरीका में रहकर मुझे इस बात का अंदाज़ा हुआ कि आज के दौर में शिक्षा ही सबसे अहम हथियार है."
अमरीका से वापस आने के बाद उन्होंने विभिन्न संगठनों और हिंदू समुदाय की मदद से रहीमयार ख़ान ज़िले की तीन तहसीलों में उन्होंने हिंदू बच्चों के लिए छोटे स्कूल बनाए हैं.
दो दर्जन के लगभग छात्रों वाले स्कूलों में केवल एक शिक्षक हैं और बच्चे ज़मीन पर बैठते हैं. रमेश जयपाल का कहना था, "कम से कम इस तरह बच्चे शिक्षा तो हासिल कर रहे हैं. उनकी शिक्षा का सिलसिला टूटेगा तो नहीं."
उनका कहना था कि उनका मिशन है कि सन 2020 तक वह पाकिस्तान भर में ऐसे सौ से अधिक स्कूल बनाएं.
रमेश जयपाल आज जहां खड़े हैं इस पर उनका कहना है कि वह उन्होंने मेहनत से हासिल की है. भविष्य में वह पाकिस्तान की संसदीय राजनीति में भी हिस्सा लेना चाहते हैं.
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