ईरान के ख़िलाफ़ इसराइल के ख़ुफ़िया ऑपरेशन कितने कामयाब हो पाए
हाल ही में ईरान के परमाणु वैज्ञानिक मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह की हत्या कर दी गई थी. ईरान ने इसे इसराइल का ख़ुफ़िया ऑपरेशन बताया था.
पहले आई रिपोर्टों में ईरान के परमाणु वैज्ञानिक मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह की हत्या के मामले में कई तरह से उन्हें मारने का ज़िक्र किया जा चुका है लेकिन अब ईरान के अधिकारियों ने कहा है कि उनकी हत्या सड़क के बीचों बीच एक दूर से संचालित मशीनगन की मदद से की गई है.
हालांकि वो अब भी अपने इस रुख़ पर क़ायम है कि उनकी हत्या के पीछे इसराइल का हाथ है. उनकी हत्या 27 नवंबर को कर दी गई थी.
इसके पीछे ईरान का तर्क बहुत सरल है कि इसराइल उन कुछ देशों में शामिल है जिसके पास ईरान की धरती पर इस तरह के हमले करने की क्षमता और पर्याप्त वजहें हैं. लेकिन इससे भी ज़्यादा आम सहमति वाला तर्क यह भी है कि इसराइल ने पहले भी ऐसा किया है.
दरअसल, 2010 से 2012 के बीच ईरानी परमाणु कार्यक्रम से जुड़े कम से कम चार वैज्ञानिक मारे गए हैं और पांचवां वैज्ञानिक एक अन्य हमले में गंभीर रूप से घायल हुआ था.
लेकिन इसराइल की ख़ुफ़िया एजेंसी मोसाद अकेले इन गुप्त ऑपरेशनों को अंज़ाम दे ऐसा नहीं लगता है.
इसराइल के इंस्टीट्यूट ऑफ़ नेशनल सिक्योरिटी स्टडीज़ के रेज़ जिमट बीबीसी मुंडो से कहते हैं, "मोसाद ऐसे ऑपरेशनों की ज़िम्मेदारी कभी नहीं लेता है, क्योंकि कोई भी संभावित ईरानी प्रतिशोध को न्यौता नहीं देना चाहता है."
"लेकिन निश्चित तौर पर जब ईरान और वहाँ चलने वाले ख़ुफ़िया ऑपरेशनों की बात आती है, ख़ासकर परमाणु कार्यक्रम के ख़िलाफ़ तो ऐसे कम ही देश हैं जो इसमें दिलचस्पी लेते हो. आमतौर पर यह मोसाद और सीआईए या दोनों के सहयोग से किया जाता है."
ख़ुफ़िया ऑपरेशन के दो दशक
ख़ुफ़िया ऑपरेशन की मदद से ईरानी परमाणु कार्यक्रम को पटरी से उतारने की कोशिश में दोनों ही एजेंसियाँ लंबे समय से लगी हुई हैं.
पिछले साल जर्नल ऑफ़ स्ट्रेटेजिक स्टडीज़ में रिचर्ड महेर ने इस विषय पर एक अकादमिक लेख लिखा था. वो इस तरह के ऑपरेशन की बात इस सदी की शुरुआत से करते हैं.
यूनैरिटी कॉलेज डबलिन में अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा मामले के प्रोफ़ेसर महेर कहते हैं, "उन्होंने सबसे पहले उस स्पलाई चेन को तोड़ने की कोशिश के साथ इसकी शुरुआत की थी जिस पर ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम के लिए भरोसा करता था."
वो बीबीसी मुंडो से बातचीत में कहते हैं, "निश्चित तौर पर चूंकि ईरान का यह कार्यक्रम गुपचुप तरीक़े से चल रहा था इसलिए वो ज़रूरी उपरकरण खुले तौर पर नहीं ख़रीद सकता था. इसलिए उसे बीच के मध्यस्थ चैनलों का सहारा लेना होता था. संयुक्त राज्य अमेरिका और दूसरे देशों ने उसके इसी प्रयास को तोड़ने की कोशिश की. कई बार वे इसे तोड़ने में सफल भी रहे."
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बाद में अमेरिका और इसराइल ने मिलकर सफलतापूर्वक स्टक्सनेट कंप्यूटर वर्म विकसित किया. इसे उस वक़्त 'सबसे बड़ा और सबसे महंगा मैलवेयर' बताया गया था.
इसका असल मक़सद ईरानी नैटांज़ परमाणु संयंत्र को निशाना बनाना था. 2007 से लेकर 2010 के बीच इस संयंत्र पर कई साइबर अटैक हुए जिसने अनुमान के मुताबिक़ इसके पांचवें सेंट्रीफ्यूज़ को बंद कर दिया था. जनवरी 2010 में एक मोटर साइकिल बम धमाके में परमाणु वैज्ञानिक मसूद अली मोहम्मद मारे गए थे. वो मारे गए चार परमाणु वैज्ञानिकों में से पहले थे जिनकी हत्या हुई.
इसके बाद के दो सालों में तीन और वैज्ञानिक मारे गए. 27 नवंबर, 2010 को एक अन्य परमाणु वैज्ञानिक माजिद शाहरियारी की हत्या उनकी कार में हुए बम धमाके में हुई थी. उसी दिन इसी तरह की एक और वारदात में उनके साथी फ़र्रायदून अब्बासी गंभीर रूप से घायल हुए थे.
जुलाई, 2011 में भौतिक विज्ञानी डारियस रेज़ाइनजाद की उनके घर के सामने गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. और इसके अगले साल 2012 की जनवरी में मुस्तफ़ा अहमदी रोशन की एक और बम धमाके में हत्या कर दी गई.
पीछे हटकर फिर से की शुरुआत
रिचर्ड महेर का कहना है, "आम समझ यह है कि इन हत्याओं के पीछे इसराइल का हाथ था. अमेरिका का शायद इससे कोई लेना-देना नहीं था."
हालांकि जनवरी 2015 में ईरान ने यह दावा किया था कि उसके एक वैज्ञानिक की हत्या की कोशिश को नाकाम किया गया है. विशेषज्ञों का कहना है कि उस साल परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर की वजह से ख़ुफ़िया ऑपरेशन में कमी आई थी.
हालांकि 2018 की शुरुआत में मोसाद ईरानी परमाणु कार्यक्रम से जुड़े कई दस्तावेज़ों को वहाँ से पाने में कामयाब रहा था जहाँ इसे छिपा कर रखा गया था. साल 2020 में ख़ुफ़िया ऑपरेशनों में अप्रत्याशित वृद्धि देखने को मिली है.
इस साल गर्मियों में नैटांज़ परमाणु संयंत्र में एक रहस्मयी विस्फोट हुआ था. इसके लिए भी ईरान मोसाद को ज़िम्मेवार ठहराता है. मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह की हत्या भी इसी साल हुई. उनके दस्तावेज़ दो साल पहले चोरी हो गए थे. वो एएमएडी प्रोजेक्ट के डायरेक्टर भी रह चुके थे. यह ईरान की ओर से परमाणु हथियार बनाने को लेकर शुरू की गई एक गोपनीय पहल थी जिसे 2003 में ईरान ने बंद कर दिया था.
रैज़ ज़िम्मट बीबीसी मुंडो से कहते हैं कि इसे ईरान का अपने परमाणु कार्यक्रम से पीछे हटने के तौर पर देखा गया था क्योंकि परमाणु समझौते के तहत अमेरिका ने इससे निकलने का फ़ैसला किया था.
रैज़ बताते हैं, "तब से ईरान ने अपनी परमाणु क्षमताओं को बढ़ाने की दिशा में उल्लेखनीय कामयाबी हासिल की है और इसराइल को समझ में नहीं आ रहा है कि वो कैसे ईरान के इस कार्यक्रम में बाधा डाल पाए."
हालांकि रैज़ और रिचर्ड महेर दोनों ही फ़ख़रीज़ादेह की मौत को एक अहम पड़ाव मानते हैं क्योंकि जितने भी वैज्ञानिक अब तक मारे गए हैं वो उनमें सबसे प्रमुख नाम थे.
मिड्लसबरी इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनेशनल स्टडीज़ के प्रोफ़ेसर फ़िलिप सी ब्लीक का कहना है कि, "इस बात का आकलन करना बहुत मुश्किल है कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम से जुड़े लोगों की हत्या करने के इसराइल की इन कोशिशों का ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर क्या असर पड़ेगा. विज्ञान और तकनीक के अनुभव के मामले में तो लगभग उनकी भरपाई संभव है लेकिन जहाँ तक नेतृत्व और प्रशासनिक क्षमता की बात है तो उसकी कमी को पूरा करना निश्चित तौर पर इतना आसान नहीं होगा क्योंकि कुछ ही लोगों में ये क्षमता मौजूद होती है."
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प्रोफ़ेसर ब्लीक आगे कहते हैं, "मोहसिन फ़खरीज़ादेह ने ईरानी परमाणु कार्यक्रम में अहम भूमिका अदा की थी और इससे बहुत गहराई से जुड़े थे इसलिए उनकी कमी को पूरा करना वाक़ई में इतना आसान नहीं होगा."
हालांकि रैज़ का मानना है कि उनकी हत्या का असर ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर उतना नहीं पड़ेगा जितना कि ईरान के परमाणु हथियार विकसित करने की कोशिशों को फिर से शुरू करने की क्षमता पर पड़ने वाला है.
जबकि रिचर्ड महेर कहते हैं कि इसराइल का मक़सद यह भी हो सकता है कि वो अमेरिका में भविष्य में आने वाली जो बाइडन की सरकार के साथ ईरान के कूटनीतिक तालमेल की संभावना को और भी कठिन बना दे.
महेर इस ओर ध्यान दिलाते हैं कि, "बाइडन ने कहा है कि वो 2015 के परमाणु समझौते की शर्तों पर लौटना चाहेंगे जबकि ट्रंप और उनकी विदेश नीति की टीम और ना ही इसराइल ऐसा चाहते थे."
"देरी करवाना भी एक रणनीति है"
यदि ऐसा है तो रैज़ ज़िम्मट यह नहीं मानते हैं कि इसराइल अपनी कोशिशों में कामयाब हो चुका है.
वो कहते हैं, "राष्ट्रपति रूहानी ने यह साफ़ किया है कि ईरान 'ज़ायोनीवादी जाल' में नहीं पड़ने वाला है, इसलिए मेरी राय है कि जब तक बाइडन अमेरिकी राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठ नहीं जाते हैं तब तक ईरान इंतज़ार करेगा."
"अगर ईरान को लगता है कि बाइडन प्रतिबंधों को उठाने और परमाणु समझौते पर लौटने के लिए तैयार हैं, तो वो भी ऐसा ही करेगा, इससे उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि इसराइल क्या करता है."
और इसराइल के इस विशेषज्ञ का यह भी मानना है कि पिछले दो दशकों के ख़ुफ़िया ऑपरेशन ने निश्चित तौर पर परमाणु कार्यक्रमों को प्रभावित किया है. इसे नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है.
नैटज़ा परमाणु संयंत्र पर हुए साइबर हमले की वजह से ईरान के परमाणु प्रयासों में कम से कम एक साल या फिर शायद डेढ़ साल की देरी हुई है.
रैज़ जिम्मट का मानना है कि सभी को पता है कि इन ख़ुफ़िया ऑपरेशनों से ईरान को परमाणु संपन्न राज्य बनने से नहीं रोका जा सकता है. इससे सिर्फ़ इसमें थोड़ी देरी हो सकती है.
लेकिन वो यह भी कहते हैं कि यह देरी करवाना भी एक रणनीति है.
वो कहते हैं, "मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि मैं इससे सहमत हूँ लेकिन इसराइल की आधिकारिक स्थिति यह है कि वो ईरान पर प्रतिबंद्धों के ज़रिए ज़्यादा से ज़्यादा दबाव बनाकर उसे समझौता करने पर मजबूर करे और अधिक से अधिक कटौतीपूर्ण सौदे पर तैयार हो. जब तक यह नहीं होता है तब तक जितना संभव हो सके उनके परमाणु कार्यक्रम में देरी होना महत्वपूर्ण है."
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हालांकि प्रोफ़ेसर ब्लीक मानते हैं कि इन ख़ुफ़िया ऑपरेशनों के विपरीत प्रभाव भी पड़ सकते हैं.
"ये ईरान को नकारात्मक तरीक़े से भी प्रभावित कर सकता है. मसलन परमाणु हथियारों के विकास के लिए अधिक आक्रामक प्रयासों की वकालत करने वालों को अधिक तरजीह दे सकते हैं."
रिचर्ड महेर भी इस बात से सहमत दिखते हैं. वो कहते हैं, "इससे ईरान अपनी परमाणु क्षमताओं को सुधारने के अपने दृढ़ संकल्प को और भी मज़बूत कर सकता है."
वो कहते हैं, "यह स्पष्ट तौर पर बताना मुश्किल है कि ख़ुफ़िया ऑपरेशन कितने प्रभावी हैं क्योंकि हम नहीं जानते कि उन्होंने ईरान की निर्णय लेने की प्रक्रिया को कैसे प्रभावित किया है. वे शायद उतने प्रभावी नहीं हैं."
जटिल भविष्य
हालांकि महेर यह नहीं मानते हैं कि इससे इसराइल अपने प्रयास छोड़ देगा.
वो कहते हैं, "ईरान के परमाणु कार्यक्रमों पर हमला करने के लिए इसराइल के पास सैन्य क्षमता नहीं है. उसके पास जो कुछ भी है वह ख़ुफ़िया ऑपरेशन चलाने की क्षमता ही है."
"और अगर बाइडन यह इशारा देते हैं कि वो ईरानियों के साथ बातचीत करने के लिए तैयार हैं और फिर शायद 2015 के परमाणु समझौते के कुछ बिंदुओं पर विचार करते हैं तो मुझे लगता है कि हम इसराइल की ओर से चलाए जा रहे ख़ुफ़िया ऑपरेशन में और इज़ाफ़ा देख सकते हैं."
हालांकि, ज़िम्मट का मानना है कि समझौते को फिर से लागू करना सभी के लिए सबसे अच्छा होगा.
वो कहते हैं, "समझौते से बाहर निकलने से पहले, ईरान परमाणु हथियार विकसित करने की आवश्यक क्षमता रखने से एक साल दूर था, आज यह केवल तीन या चार महीने दूर है."
"लेकिन अगर परमाणु सौदे को लेकर वापसी के प्रयास सफल रहे, और ईरान ने पिछले साल की गई कुछ गतिविधियों का बदला लिया, तो ईरान फिर से उन क्षमताओं को विकसित करने में कम से कम एक साल का वक़्त लगा सकता है."
वो आगे कहते हैं कि "मुझे लगता है कि ईरानी परमाणु हथियार बनाने के क़रीब पहुँचना चाहते हैं ना कि वो पूरी तरह से परमाणु हथियार विकसित करना चाहते हैं. वो ऐसी स्थिति में आना चाहते हैं जहाँ से वो इसे बनाने के राजनीतिक फ़ैसला लेने के कुछ हफ़्तों और महीनों बाद ही इसे बना लें."
"अब यह एक राजनीतिक बहस का विषय है कि क्या इसराइल ईरान को इस स्थिति में भी आने देने को तैयार है या नहीं. कुछ का मानना है नहीं, तो कुछ मानते हैं कि इसे रोक पाना बहुत मुश्किल होगा."
वो आख़िरी में कहते हैं, "ईरान जैसे देश को जिसके पास तकनीक, नॉलेज और दृढ़ संकल्प है, उसे यह हासिल करने से रोक पाना बहुत मुश्किल है."