कुलभूषण को फांसी से बचाना इसलिए है मुश्किल, पढ़िए ICJ का 'काला' इतिहास
भारत की ओर से 10 दिन पहले इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस (आईसीजे) से की गई थी पाकिस्तान की ओर से कुलभूषण जाधव को मिली मौत की सजा पर रोक लगाने की मांग।
हेग। आज दोपहर 3:30 बजे इस बात से पर्दा उठ जाएगा कि पाकिस्तान में कुलभूषण जाधव को मौत की सजा मिलेगी या फिर पाकिस्तान को उनकी सजा टालनी पड़ेगी। इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस (आईसीजे) आज जाधव की मौत की सजा पर आखिरी फरमान सुनाएगा। आठ मई को भारत की ओर से आईसीजे में इस सजा के खिलाफ अपील की गई और फिर 15 मई को इस पर सुनवाई थी। अब आज यानी सुनवाई के तीन दिन बाद इस पर फैसला आएगा।
खराब रहा है इतिहास
ऐसे केसेज में आईसीजे के इतिहास को देखा जाए तो विएना संधि के तहत तीन ऐसे केसेज आएं हैं तो मौत की सजा से संबंधित थे। इन तीन में से दो केसेज ऐसे थे जिसमें आईसीजे का फैसला दोषी नागरिकों के देश के पक्ष में गया था। लेकिन इसके बाद भी आईसीजे आरोपियों को फांसी पर लटकने से नहीं बचा सका था। आज जब जाधव की मौत की सजा पर फैसला आने वाला है तो यह देखना होगा कि आईसीजे अपने पहले के तीन फैसलों से अलग जा पाता है या फिर वह पहले की ही तरह मौत की सजा को टालने में असफल रहेगा। एक नजर डालिए क्या थे ये इन तीनों केस और क्या थे तीनों ही मामले।
अप्रैल 1998: पैराग्वे और अमेरिका एंजेल फ्रांसिस्को ब्रेआर्ड केस
तीन अप्रैल 1998 को पैराग्वे ने अमेरिका के एक आदेश के खिलाफ कार्यवाही शुरू की। कांउसंल संबंधों पर एक विवाद के चलते पैराग्वे ने अमेरिका पर विएना संधि के उल्लंघन का आरोप लगाया था। पैराग्वे का कहना था कि ब्रेआर्ड को गिरफ्तार किया गया, केस चलाया गया, दोषी ठहराया गया और फिर उन्हें मौत की सजा सुना दी गई। उन्हें विएना संधि के तहत काउंसलर आफिसर्स भी नहीं मुहैया कराए गए थे। आपको बता दें कि ब्रेआर्ड पैराग्वे के नागरिक थे जिन्हें एक वर्ष 1992 की घटना के तहत वर्जिनिया की कोर्ट ने 1996 में मौत की सजा सुनाई थी। उन पर आरोप थे उन्होंने रुथ डिकी नामक युवती का रेप किया और फिर उनकी हत्या कर दी थी। पैराग्वे ने आईसीजे से अपील की कि वह अमेरिका से उन स्थितियों को फिर स्थापित करने के लिए कहे जिसके तहत अमेरिका बिना किसी सूचना के ब्रेआर्ड को मौत की सजा दे दी थी। साथ ही पैराग्वे ने कहा था कि अमेरिका को आईसीजे में उसकी अपील पर विचार करने से पहले ब्रेआर्ड को मौत की सजा देने से बचना चाहिए। आईसीजे के उपाध्यक्ष की ओर से आर्टिकल 74 के तहत अमेरिका और पैराग्वे दोनों को ही चिट्ठियां भेजी गई थीं। सात अप्रैल को सुनवाई हुई और नौ अप्रैल को फैसला आया। कोर्ट ने स्टे एप्लीकेशन देने से इनकार कर दिया था। कोर्ट का कहना था कि ब्रेआर्ड को विएना संधि के तहत नहीं लाया जा सकता है। कोर्ट का मानना था कि ब्रेआर्ड विएना संधि के तहत यह आरोप नहीं लगा सकते हैं कि इस संधि की वजह से अमेरिका ने उनके ट्रायल पर असर पड़ा। कोर्ट का कहना था कि केसेज का स्तर देखने के बाद ही स्टे एप्लीकेशंस जारी की जाती है। कोर्ट ने पैराग्वे और अमेरिका को साफ कर दिया कि दोनों देश अपने मतभेदों को सुलझाने की कोशिश करें और आईसीजे को क्रिमिनल कोर्ट के तौर पर न देखें। 14 अप्रैल 1998 को ब्रेआर्ड का फांसी दे दी गई थी।
मार्च 1999: जर्मनी और अमेरिका ला ग्रांड केस
दो मार्च 1999 को जर्मनी ने अमेरिका के खिलाफ विएना संधि का उल्लंघन करने के आरोप में कार्यवाही शुरू की। जर्मनी ने अपने दो नागरिकों कार्ल और वॉल्टर ला ग्रांड को सजा दिए जाने पर अमेरिका पर विएना संधि को तोड़ने का आरोप लगाया था। कार्ल को जर्मन सरकार के सामने केस के आने से पहले ही फांसी दे दी गई थी। दोनों को हत्या के जुर्म में फांसी की सजा सुनाई गई थी। जर्मनी ने आईसीजे में अपील की और जोर दिया कि कोर्ट को बिना सुनवाई के ही कदम उठाने होंगे। अमेरिका ने इसका विरोध किया और बिना सुनवाई के किसी भी कार्यवाही को न होने की चेतावनी दी। जर्मनी का कहना था कि विएना संधि को तोड़ा गया। दोनों भाईयों को काउंसलर भी मुहैया नहीं कराया गया और सजा दी गई। जर्मनी का कहना था कि अमेरिका ने कार्ल को जो मौत की सजा दी है उसकी क्षतिपूर्ति उसे करनी होगी। तीन मार्च को आईसीजे ने इस पर फैसला दिया। आईसीजे ने अमेरिका के सभी तर्कों को किनारे करते हुए जर्मनी के पक्ष में फैसला सुनाया। आईसीजे का कहना था कि घरेलू कानून किसी भी आरोपी के लिए विएना संधि के अधिकारी को सीमित नहीं कर सकते हैं। आईसीजे का कहना था कि अमेरिका ने विएना संधि को तोड़ा है। कोर्ट का मानना था कि वॉल्टर को फांसी की सजा जर्मनी के अधिकारों की अपूरणीय क्षति होगी। आईसीजे का यह पहला ऐसा केस था जिसमें बिना सुनवाई के ही फैसला आया था। कोर्ट ने आर्टिकल 75 के तहत कार्यवाही की थी। कोर्ट के आदेश के बावजूद वॉल्टर को तीन मार्च 1999 को ही फांसी दे दी गई थी।
जनवरी 2003: मैक्सिको और अमेरिका एवेना केस
नौ
जनवरी
2003
को
मैक्सिको
की
ओर
से
आईसीजे
में
अमेरिका
के
खिलाफ
विएना
संधि
के
उल्लंघन
का
आरोप
लगाते
हुए
अपील
की
गई।
अमेरिका
के
अलग-अलग
राज्यों
में
मैक्सिको
के
54
नागरिकों
को
मौत
की
सजा
दी
गई
थी।
मैक्सिको
ने
आईसीजे
से
अपील
की
कि
वह
अमेरिका
को
आदेश
दे
कि
ऐसे
सभी
उपायों
को
सुनिश्चित
किया
जाए
जिसके
तहत
किसी
भी
मैक्सिकन
को
मौत
की
सजा
न
हो
सके।
21
जनवरी
2003
को
सुनवाई
हुई
और
पांच
फरवरी
2003
को
फैसला
आया।
कोर्ट
ने
कार्यवाही
से
पहले
इस
बात
पर
विचार
किया
कि
इस
केस
की
सुनवाई
उसके
अधिकार
क्षेत्र
में
आती
है
या
नहीं।
दोनों
ही
देश
विएना
संधि
के
तहत
आते
हैं
और
ऐसे
में
उसके
पास
इस
केस
की
सुनवाई
का
पूरा
अधिकार
है।
बहस
के
बाद
कोर्ट
ने
यह
माना
कि
दोनों
देशों
के
बीच
इस
बात
को
लेकर
विवाद
है
कि
अमेरिका
ने
विएना
संधि
का
पालन
नहीं
किया
है।
कोर्ट
ने
मैक्सिको
से
हर
मैक्सिकन
नागरिक
से
जुड़े
सुबूत
जैसे
उनके
बर्थ
सर्टिफिकेट्स
या
फिर
उनकी
नागरिकता
से
जुड़े
डॉक्यूमेंट्स
को
पेश
करने
के
लिए
जिन्हें
अमेरिका
ने
चुनौती
नहीं
दी
थी।
अमेरिका
ने
दूसरी
तरफ
ऐसे
सुबूत
पेश
कर
दिए
जिससे
यह
साफ
हुआ
कि
यह
दोषी
मैक्सिको
के
साथ
ही
साथ
अमेरिका
के
भी
नागरिक
हैं।
कोर्ट
ने
हालांकि
बाद
में
सुबूतों
के
आधार
पर
कहा
कि
54
में
से
45
दोषियों
के
पास
अमेरिकी
नागरिकता
नहीं
है।
वहीं
सात
ऐसे
थे
जिनमें
से
सिर्फ
एक
ही
दोषी
में
मैक्सिको
यह
साबित
कर
सका
था
कि
विएना
संधि
का
उल्लंघन
हुआ
है।
वहीं
दूसरे
केस
में
कोर्ट
ने
पाया
कि
इस
व्यक्ति
को
आर्टिकल
36
के
तहत
जानकारी
तो
दी
गई
थी
लेकिन
उसे
काउंसलर
की
मदद
से
इनकार
कर
दिया
गया
था।
कोर्ट
ने
अमेरिका
को
आदेश
दिया
था
कि
वह
इस
बात
के
सुनिश्चित
करे
कि
तीन
मैक्सिकन
को
अंतिम
फैसल
आने
तक
फांसी
नहीं
दी
जाएगी।
साथ
ही
अमेरिका
को
बताना
होगा
कि
उसने
कोर्ट
का
आदेश
लागू
करने
के
लिए
क्या
कदम
उठाए।
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