रूस की गैस से यूरोप के ‘लव अफ़ेयर’ का होगा ब्रेकअप? - दुनिया जहान
यूक्रेन पर हमले के बाद से यूरोप के कई देश रूस से गैस आयात बंद करना चाहते हैं. वो दूसरे विकल्पों पर भी ग़ौर कर रहे हैं. लेकिन रूस की गैस के बिना काम चलाना यूरोप के लिए कितना आसान है, पढ़िए.
रूस और जर्मनी को जोड़ने वाली पाइप लाइन 'नॉर्ड स्ट्रीम-1 कभी दोनों देशों के बीच भरोसे का प्रतीक मानी गई.
इसे तैयार करने में तब 15 अरब डॉलर से ज़्यादा की लागत आई और इसका एक ही मक़सद था कि रूस की गैस आने वाले कई दशकों तक जर्मनी की अर्थव्यवस्था को रौशन करती रहे.
अब जर्मनी ही नहीं यूरोप के कई देशों के लिए रूस की गैस अहम है. यूरोप के बड़े हिस्से में इससे बिजली बनाई जाती है. लेकिन यूक्रेन पर हमले के बाद से यूरोप रूस की तरफ से मुंह फेर लेना चाहता है. तमाम देश रूस से गैस खरीदने पर रोक लगाना चाहते हैं लेकिन क्या यूरोप रूस से गैस खरीद बंद करने की स्थिति में है?
- पुतिन की मांग के सामने क्या झुकने लगे हैं यूरोप के देश
- क्या गैस-तेल की ज़रूरत ख़त्म कर देगी परमाणु ऊर्जा? चीन होड़ में सबसे आगे
किसकी ज़रूरत है बड़ी?
इस सवाल पर ग़ौर करने पहले ये जानना अहम है कि रूस की गैस से यूरोप का 'लव अफ़ेयर' पुराना है. इसकी शुरुआत 1960 के दशक में हुई.
उस वक़्त सोवियत संघ शीत युद्ध के घेरे में था और पश्चिमी देशों के साथ कारोबारी रिश्ते भी बिल्कुल ठंडे थे. इसी बीच, साइबेरिया में तेल और गैस का बड़ा भंडार मिला और सोवियत संघ की ताक़त बढ़ गई. दरअसल, अब मॉस्को के हाथ एक ऐसी चीज़ थी जिसे पश्चिमी यूरोप खरीदने को बेताब था.
लेकिन, सवाल ये था कि इस गैस को पाइपलाइन के सहारे बाज़ार तक पहुंचाने का खर्च कौन उठाएगा. इसका हल रूस और जर्मनी ने मिलकर निकाला.
ऊर्जा मामलों के विशेषज्ञ गियोग एर्डमन बर्लिन यूनिवर्सिटी ऑफ़ टेक्नॉलॉजी में 23 साल तक प्रोफ़ेसर रहे.
वो बताते हैं, "इस बड़े निवेश के लिए जर्मनी के स्टील उत्पादकों ने बैंक से पैसे लिए और संसाधन मुहैया कराए. रूस ने गैस बेचकर निवेश के लिए धन मुहैया कराया."
गियोग की राय में यूरोप के लिए रूस से गैस लेना फ़ायदे का सौदा था. रूस की गैस सस्ती थी. नॉर्वे की गैस हो या फिर लिक्विड नैचुरल गैस यानी एलएनजी दोनों इसके मुक़ाबले कहीं ज़्यादा महंगी थी. लेकिन, अमेरिका को ये बात खटकने लगी.
गियोग बताते हैं, "यूरोपीय देशों के सोवियत संघ से गैस ख़रीदने का अमेरिका ने हमेशा विरोध किया. अमेरिका और यूरोप के बीच विवाद भी हुए. इसके बाद यूरोप और अमेरिका के बीच एक समझौता हुआ. इसके तहत ये सहमति बनी कि यूरोप रूस से सिर्फ़ 40 प्रतिशत गैस खरीदेगा."
रूस पश्चिमी यूरोप को कितनी गैस बेच सकता है, इसकी सीमा भले ही तय कर दी गई लेकिन इससे मिलने वाली रकम सोवियत अर्थव्यस्था के लिए अहम बनी रही.
सोवियत संघ के बिखराव की जब वजह गिनाई जाती हैं तो उनमें से एक 1980 के दशक में गैस की कीमतों में हुई गिरावट को भी बताया जाता है. आज भी रूस की अर्थव्यवस्था में एक चौथाई योगदान इसके तेल और गैस उद्योग का है.
लेकिन अगर यूरोपीय यूनियन का ये आंकलन है कि आर्थिक तौर पर मजबूत बने रहने के लिए रूस को गैस बेचते रहने की ज़रूरत है तो यूक्रेन पर हमला साबित करता है कि रूस इस मामले में अलग सोच रखता है.
लेकिन गियोग मानते हैं कि आने वाले समय में रूस को ज़्यादा नुक़सान हो सकता है.
वो कहते हैं, "ये साफ़ है कि अगर यूरोपीय यूनियन गैस पर पाबंदी लगाता है तो रूस को लंबे समय तक मुश्किल का सामना करना होगा. ये भी सही है कि पाबंदी लगाने के कुछ दिन बाद तक यूरोप को भी दिक्कत होगी. लेकिन ये दिक्कत दो या तीन साल से ज़्यादा नहीं रहेगी."
यूरोप ने अभी रूस की गैस पर पाबंदी नहीं लगाई है. लेकिन इस पर निर्भरता कम करने की कोशिश शुरू कर दी है. इस बीच रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की नज़र भी एक संभावित बड़े ग्राहक चीन पर हैं. लेकिन दिक्कत वहां तक गैस ले जाने की है.
गियोग एर्डमन कहते हैं, "यूरोप एक खरब 80 अरब क्यूबिक मीटर के करीब गैस रूस से आयात करता है. ज़्यादातर गैस पाइपलाइन के जरिए पहुंचती है. चीन इसका छठा हिस्सा ही लेता है. अगर यूरोप रूस से गैस खरीदना बंद कर देता है तो चीन अपने आप वहां नहीं पहुंचेगा. इसकी वजह ये है कि वहां पाइपलाइन नहीं है. इसके लिए आपको पाइपलाइन बिछानी होगी. रूस से चीन के लिए जो पहली पाइपलाइन बिछाई गई थी उसकी कीमत 50 अरब डॉलर थी. ये नॉर्ड स्ट्रीम-1 की कीमत से पांच गुना थी."
गियोग कहते हैं कि चीन शायद ही दूसरी पाइप लाइन में इतना निवेश करेगा. यूक्रेन पर हमले से जाहिर है कि रूस अंतरराष्ट्रीय नियमों से बंधकर नहीं चलता और यही वजह है कि उसे विश्वसनीय साझेदार के तौर पर नहीं देखा जाता.
गियोग कहते हैं कि ऐसे साझेदार पर 50 अरब डालर के निवेश का जोखिम शायद ही कोई बैंक लेना चाहे.
क्या हैं रास्ते?
अभी यूरोप के हाथ में कई अहम पत्ते दिखते हैं लेकिन क्या इसके मायने ये हैं कि यूरोप रूस की गैस के बिना रह सकता है?
कोलंबिया यूनिवर्सिटी के सीनियर रिसर्च स्कॉलर जोनाथन एलकाइंड कहते हैं, " यूरोप को ऊर्जा निर्यात करने से रूस को हर दिन करीब 80 करोड़ से लेकर एक अरब डॉलर तक की कमाई होती है. इसे लेकर जो असहज स्थिति बनती है, वो समझी जा सकती है. ये कहा जा सकता है कि यूरोप व्लादीमिर पुतिन की जंग के लिए रकम दे रहा है."
रूस ने 24 फरवरी को यूक्रेन पर हमला किया और यूरोप का सामना एक ऐसे सच से हुआ, जो उसे मुश्किल में डाल रहा था. यूरोप को लगा कि गैस खरीदकर वो जो पैसे दे रहे हैं, रूस उसका इस्तेमाल सैन्य अभियान पर कर रहा है.
जोनाथन कहते हैं, "रूस से नैचुरल गैस और तेल लेना बंद करने पर यूरोप को एक बड़ा आर्थिक झटका महसूस होगा. सामान्य परिस्थितियों में कोई ऐसा कदम उठाने के बारे में नहीं सोचेगा. लेकिन हमारे सामने सामान्य स्थितियां नहीं हैं. अभी यूक्रेन से हमारे सामने हर दिन रूस के सैनिकों की क्रूरता के सबूत सामने आ रहे हैं. इसलिए मैं सोचता हूं कि तमाम मानकों को परे रख दिया जाना चाहिए."
जोनाथन की राय है कि यूरोपीय यूनियन रूस की गैस खरीदना बंद सकती है. लेकिन इस फ़ैसले तक पहुंचने के लिए सदस्य देशों के बीच समन्वय ज़रूरी है.
मध्य और पूर्वी यूरोप के कई देश रूस की गैस पर 80 से लेकर 100 प्रतिशत तक निर्भर हैं. लेकिन सबसे ज़्यादा नज़रें जर्मनी पर हैं जो रूस से सबसे ज़्यादा गैस लेता है. जर्मनी आने वाली कुल गैस में से एक तिहाई रूस से आती है और वहां इससे बड़े आर्थिक हित जुड़े हैं.
जोनाथन कहते हैं, "अगर आप नैचुरल गैस पर निर्भर जर्मनी के दो उद्योगों में काम करने वालों की संख्या देंखें तो पाएंगे कि कैमिकल और मैटल उद्योग में 15 लाख से ज़्यादा लोग काम करते हैं. अगर जर्मनी में गैस की सप्लाई सवालों के घेरे में आई और ये उद्योग काम बंद करने पर मजबूर हुए तो जर्मनी की अर्थव्यवस्था पर इसका गंभीर और दूरगामी असर होगा."
इसके बावजूद जर्मनी ने ऊर्जा हासिल करने के दूसरे तरीकों पर गौर करना शुरू कर दिया है. इसमें पुराने वादों से मुकरने की स्थिति भी शामिल है.
एक दशक पहले जापान के फुकुशिमा पावर प्लांट में हुए हादसे के बाद जर्मनी ने इरादा बनाया था कि वो परमाणु ऊर्जा से किनारा कर लेगा. इसकी शुरुआत इसी साल के आखिर में होनी है.
जर्मनी की रणनीति को लेकर जोनाथन कहते हैं, "जर्मनी में कोयले का भंडार तैयार करने पर चर्चा जारी है. लेकिन बचे हुए तीन परमाणु पावर प्लांट का भविष्य ज़्यादा बड़ी दिक्कत की वजह है. तय कार्यक्रम के मुताबिक इस साल के आखिर में उन्हें हटाए जाने की प्रक्रिया शुरू होनी है. लेकिन क्या ऐसा किया जाएगा, ये आगे पता चलेगा. लेकिन हम अभी सामान्य परिस्थिति में नहीं जी रहे हैं. कंपनियां, सरकार और आम नागरिक कुछ वक्त पहले अलग तरह से लिए गए फ़ैसलों के बारे में अब बहुत अलग तरह से सोच रहे हैं."
यूरोपीय देशों के सामने चुनौतियाँ और भी हैं.
मार्च में रूस ने ये दबाव बनाना शुरू किया कि गैस का पेमेंट यूरो या डॉलर के बजाए रूबल में किया जाए. इससे रूस की मुद्रा को मज़बूती मिलेगी और पाबंदियों के असर से उबरने में भी मदद मिलेगी.
इन तमाम बाधाओं के बीच यूरोप की ज़रूरतें भी हैं. रूस की गैस का इस्तेमाल बिजली बनाने के लिए होता है जिसका विकल्प परमाणु ऊर्जा या फिर कोयले में तलाशा जा सकता है.
लेकिन घरों को गर्म रखने और केमिकल प्रोसेसिंग के लिए भी गैस लगती है. ऐसे में यूरोप के लिए गैस ज़रूरी है और वो भी ऐसी गैस जो पाइप लाइन के ज़रिए वहाँ तक पहुंचे.
LNG कितनी कारगर?
एनर्जी और पॉलिटिकल रिस्क एक्सपर्ट डॉ एग्निया ग्रीगस कहती हैं, "आज कई ऐसे विकल्प हैं, जिन्हें यूरोप आज़मा सकता है और कोई भी देश ये बहाना नहीं बना सकता कि वो रूस से गैस आयात कम नहीं कर सकता."
एग्निया मानती हैं कि यूरोप में लिक्विफ़ाइड नैचुरल गैस यानी एलएनजी का बड़ा रोल हो सकता है.
वो कहती हैं, "यूरोप के देशों की पहुंच अल्जीरिया की पाइप लाइन और अज़रबैजान के सदर्न कॉरिडोर तक हो सकती है. पोलैंड एक नई पाइप लाइन बना रहा है. नॉर्वे से आ रही बाल्टिक पाइप लाइन के अलावा एक पाइप लाइन लीबिया की भी है. जिन देशों के पास इन पाइप लाइन तक सीधी पहुंच नहीं है, उन्हें इस बात का फायदा मिल सकता है कि यूरोप ने बीते दशक के दौरान इन्फ्रास्ट्रक्चर पर बहुत काम किया है और यूरोप के ज़्यादातर देशों के बीच आपसी संपर्क अच्छा है. वो अपने पड़ोसी देश से गैस हासिल कर सकते हैं."
ऐसी गैस ले जाने के लिए एक विकल्प ये भी है कि उसे इतना ठंडा किया जाए कि वो लिक्विड यानी तरल रूप में आ जाए, इसके बाद इसे समुद्र के रास्ते जहाज़ से भेजा जा सकता है.
एग्निया कहती हैं कि एलएनजी का बाज़ार बढ़ रहा है. यूरोप के देश इसे अमेरिका, कतर और नॉर्वे से खरीद रहे हैं एलएनजी की खूबियां हैं लेकिन इससे जुड़ी दिक्कतें भी हैं. मसलन इसे बंदरगाह तक पहुंचाने और फिर वापस गैस में तब्दील करने के लिए विशेष उपकरणों की ज़रूरत होती है.
एग्निया कहती हैं, " एलएनजी आयात करने के लिए एक आधारभूत ढांचे की ज़रूरत होती है. इसमें करीब एक अरब या उससे ज़्यादा लागत आ सकती है. इसे बनाने में कई साल का वक़्त लगता है. छोटे देश, जिनके पास बजट कम है और वक़्त की भी कमी है, वो पानी में तैरते जहाज़ों को टर्मिनल के तौर पर इस्तेमाल कर सकते हैं. इससे कीमत कम हो जाएगी और इन्हें चालू करने में वक्त भी कम लगेगा."
एग्निया बताती हैं कि यूरोप के पास एलएनजी आयात की अभी जो क्षमता है, उससे 40 प्रतिशत ज़रूरत पूरी हो सकती है. लेकिन क्या एलएनजी महंगी है?
इस सवाल पर एग्निया कहती हैं, "ये ज़्यादा महंगी साबित नहीं हुई है. दुनिया और यूरोप के बाज़ार में इसके दाम प्रतिस्पर्धी हैं. उदाहरण के लिए अमेरिका की आधी एलएनजी यूरोप जाती है. इसके साबित होता है कि दाम माकूल होने की वजह से वहां बाज़ार में इसकी मांग भी है."
एग्निया कहती हैं कि एलएनजी का अभी ऐसा मार्केट नहीं है जहां मांग क्षमता से ज़्यादा हो. लेकिन इन बातों से जुड़े राजनीतिक और आर्थिक हित भी हैं.
राजनीतिक कीमत क्या होगी?
हार्वर्ड यूक्रेनियन रिसर्च इंस्टीट्यूट की एसोसिएट मार्गरीटा बामासेडे कहती हैं, "अगर आप सिर्फ़ आर्थिक यानी कीमत के नज़रिए से देखें तो रूस की प्राकृतिक गैस के लिए आकर्षण बना रहेगा."
मार्गरीटा की राय में ऊर्जा से जुड़ी कूटनीति में दाम से कई बातें तय होती हैं. रूस से गैस लेना बंद करने के मुद्दे पर जब यूरोप के देश मंत्रणा करेंगे तो पैसे से जुड़े सवाल की बड़ी अहमियत होगी.
गौरतलब है कि जर्मनी ये सोच रहा है कि क्या उसे अपने बचे हुए परमाणु पावर प्लांट की अवधि को बढ़ाना चाहिए. मार्गरीटा कहती हैं कि ये एक अहम आर्थिक फ़ैसला होगा.
वो कहती हैं, "आप ऐसा नहीं कर सकते कि एक परमाणु पावर प्लांट दोबारा शुरू करें और फिर छह महीने में उसे बंद कर दें. आर्थिक तौर पर ये कोई समझदारी की बात नहीं है. या तो इस तरह का कोई करार हो कि ये प्लांट अगले 20 से 30 साल तक इस्तेमाल में आएंगे. या फिर उसमें लगाई जाने वाली लागत को लेकर मुआवज़े के लिए स्पष्ट खाका तैयार किया जाना चाहिए."
रूस की गैस पर निर्भरता ख़त्म करने के लिए यूरोप जो कोशिशें कर रहा है उसका एक सिरा ग्रीन एनर्जी के इस्तेमाल के काम में तेज़ी लाने के प्रयासों से जुड़ता है.
मार्गरीटा कहती हैं कि अभी लक्ष्य है कि साल 2030 तक जीवाश्म ईंधन की खपत को तीन फ़ीसदी घटाया जाए. इसकी रफ़्तार बढ़ानी होगी.
वो कहती हैं कि ग्राहकों को ज़्यादा दाम चुकाने के लिए तैयार रहना होगा. सरकार को तय करना होगा कि कि ऊर्जा के घरेलू इस्तेमाल पर किस तरह सब्सिडी दी जाए और लोगों को ग्रीन एनर्जी के इस्तेमाल के लिए कैसे प्रेरित किया जाए.
लेकिन, नैचुरल गैस सिर्फ़ ऊर्जा की ज़रूरतों में इस्तेमाल नहीं होती है. ये कई रासायनिक प्रक्रियाओं के लिए भी ज़रूरी है.
मार्गरीटा कहती हैं, " खाद कई तरह की होती हैं. इनमें से कुछ नैचुरल गैस ऊर्जा के लिए इस्तेमाल होती है तो कुछ नाइट्रोजन बनाने के लिए इस्तेमाल होती है. हम अब तक इसका विकल्प नहीं खोज पाए हैं."
इस बीच हालात तेज़ी से बदल रहे हैं. रूस की कंपनी गैज़प्रोम ने एलान किया है कि वो रूबल में पेमेंट नहीं करने की वजह से पोलैंड और बुल्गारिया को गैस आपूर्ति बंद कर रही है.
अगर एक बार फिर उसी सवाल की बात करें कि क्या यूरोप रूस से गैस खरीदना बंद कर सकता है तो जो जबाव सामने आता है, वो है हां.
लेकिन ऐसा कितनी जल्दी हो सकता है और उसकी कीमत क्या होगी, इसे लेकर राय अलग-अलग है. कोई भी रास्ता आसान नहीं है. मार्गरीटा ये भी कहती हैं कि तमाम देशों के लिए अपने वोटरों को समझा पाना भी आसान नहीं होगा.
वो कहती हैं, "अगर राजनीतिक जोखिम और ग्राहकों पर होने वाले असर को स्मार्ट तरीके से संभाल लिया जाए तो रूस की गैस पर निर्भरता ख़त्म की जा सकती है लेकिन अगर घरेलू इस्तेमाल की कीमतें नहीं संभाली जा सकीं तो इसका राजनीतिक असर देखने को मिल सकता है. मैं इसे लेकर चिंतित हूं."
इस चिंता के समाधान में ही इस सवाल का जवाब भी छुपा है कि क्या यूरोप रूस की गैस से अपने पुराने 'लव अफ़ेयर' में 'ब्रेकअप' कर पाएगा या नहीं.
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