दुनिया का ‘आर्थिक चमत्कार’ कैसे बन गया कभी ग़रीब रहा चीन ?
प्रमुख चीनी अर्थशास्त्री क्रिस लेंग याद करते हैं, "जब कम्युनिस्ट पार्टी ने चीन की सत्ता संभाली, ये एक बेहद ग़रीब देश था. न उसके पास कोई व्यापारिक सहयोगी था न किसी तरह के कूटनीतिक रिश्ते. चीन पूरी तरह से ख़ुद पर निर्भर था." बीते 40 वर्षों में चीन ने व्यापारिक रास्ते खोलने और निवेश लाने के लिए अपने बाज़ार की व्यवस्था में कई ऐसे सुधार किए जो ऐतिहासिक हैं.
विश्व मानचित्र के किसी कोने में अलग-थलग पड़े देश से, दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक बनकर उभरने में चीन को 70 वर्षों से भी कम समय लगा.
पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना यानी चीन इन दिनों अपने यहां कम्युनिस्ट शासन की 70वीं सालगिरह मना रहा है.
ऐसे में बीबीसी ने अतीत में झांककर यह समझने की कोशिश की कि चीन ने कैसे खुद को बदल डाला. हमने यह जानना चाहा कि चीन की अभूतपूर्व संपत्ति ने दुनिया के सबसे बड़े महाद्वीप एशिया में असमानता को कैसे बढ़ावा दिया?
डेवलपमेंट बैंक ऑफ़ सिंगापुर के प्रमुख चीनी अर्थशास्त्री क्रिस लेंग याद करते हैं, "जब कम्युनिस्ट पार्टी ने चीन की सत्ता संभाली, ये एक बेहद ग़रीब देश था. न उसके पास कोई व्यापारिक सहयोगी था न किसी तरह के कूटनीतिक रिश्ते. चीन पूरी तरह से ख़ुद पर निर्भर था."
बीते 40 वर्षों में चीन ने व्यापारिक रास्ते खोलने और निवेश लाने के लिए अपने बाज़ार की व्यवस्था में कई ऐसे सुधार किए जो ऐतिहासिक हैं. इस तरह चीन अपने करोड़ों लोगों को ग़रीबी के दलदल से बाहर खींच लाया.
चीन में 1950 का दशक 20वीं सदी की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी का साक्षी बना. माओ त्सेतुंग ने आनन-फ़ानन में चीन की कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के औद्योगीकरण की कोशिश की लेकिन यह प्रयोग पूरी तरह असफल रहा. हालात तब और ख़राब हो गए जब 1959-1961 के बीच अकाल ने 10-40 लाख लोगों की जानें ले ली.
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चीन की 'महान सर्वहारा क्रांति'
इसके बाद 1960 की 'सांस्कृतिक क्रांति' भी अर्थव्यवस्था की राह में रोड़े डालने वाला साबित हुआ.
इसे चीन की 'महान सर्वहारा क्रांति' के नाम से जाना जाता है. यह माओ त्सेतुंग का चलाया एक सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन था और इसका मक़सद था कम्युनिस्ट पार्टी को उसके प्रतिद्वंद्वियों से छुटकारा दिलाना मगर इसका अंत चीन के सामाजिक ताने-बाने को नष्ट करके हुआ.
1976 में माओ की मृत्यु के बाद चीन में सुधारों की ज़िम्मेदारी डेंग ज़ियाओपिंग ने उठाई.
उन्होंने चीनी अर्थव्यवस्था को नया आकार देना शुरू किया. किसानों को अपनी ज़मीन पर खेती करने का अधिकार दिया गया. इससे उनके जीवन स्तर में सुधार आया और खाने की कमी की समस्या भी दूर हो गई.
चीन और अमरीका ने 1979 में अपने कूटनीतिक सम्बन्धों को दोबारा स्थापित किया और विदेशी निवेश के दरवाज़े खोल दिए गए.
चूंकि उस वक़्त चीन में मज़दूर, मानव संसाधन और किराया बहुत सस्ता था, निवेशकों ने धड़ाधड़ पैसे डालने शुरू किए.
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'दुनिया की वर्कशॉप' बन गया चीन
स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक के ग्लोबल चीफ़ इकॉनमिस्ट डेविड मैन कहते हैं, "1970 के आख़िर से लेकर अब तक हमने चीन में जो कुछ देखा है वो किसी भी अर्थव्यवस्था के इतिहास का सबसे प्रभावशाली चत्मकार है."
1990 तक चीन की आर्थिक विकास दर तेज़ी से बढ़ने लगी और साल 2001 में ये विश्व व्यापार संगठन में शामिल हो गया. विश्व व्यापार संगठन में शामिल होना चीन की अर्थव्यवस्था के लिए एक और बड़ा कदम था.
इसके बाद चीन के लिए दूसरे देशों से व्यापार करना आसान हो गया क्योंकि व्यापार शुल्क कम हो गए. इस तरह देखते ही देखते चीनी सामान दुनिया के कोने-कोने में पहुंच गए.
डेविड मैन कहते हैं, "चीन दुनिया की वर्कशॉप बन गया."
लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स के आंकड़ों के अनुसार साल 1978 में चीन का निर्यात सिर्फ़ 10 बिलियन डॉलर था. 1985 में ये 35 बिलियन हुआ और अगले दो दशकों के भीतर यह 4.3 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच गया. इसी के साथ चीन व्यापार करने वाला दुनिया का सबसे बड़ा देश बन गया.
ग़रीबी कम लेकिन असमानता भी बढ़ी
इन आर्थिक सुधारों का नतीजा ये हुआ कि करोड़ों चीनियों की किस्मत सुधर गई.
विश्व बैंक का कहना है कि चीन में 85 करोड़ से ज़्यादा लोगों को ग़रीबी से बाहर निकाला जा चुका है वर्ष 2020 तक चीन से ग़रीबी पूरी तरह मिट जाएगी.
इतना ही नहीं, चीन में ग़रीबी घटने के साथ-साथ यहां शिक्षा के स्तर में सुधार भी हुआ. आंकड़े बताते हैं कि साल 2030 तक चीन के 27% कामगर यूनिवर्सिटी स्तर की शिक्षा वाले होंगे. ये लगभग वैसा ही होगा जैसा आज जर्मनी में है.
चीन ने आश्चर्यजनक रूप से तरक्की तो की लेकिन इसकी 1.3 अरब जनता ने अब तक आर्थिक सफलता का स्वाद नहीं चखा है.
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लेकिन प्रति व्यक्ति आय विकासशील देश जैसा
चीन में बेहद धनी और मध्यमवर्गीय लोगों की संख्या तो बढ़ रही है लेकिन उनके साथ ही गांवों में रहने वाले ग़रीबों की संख्या भी बढ़ रही है. इसके साथ ही कम प्रशिक्षित और उम्रदराज़ होते कामगारों की संख्या भी बढ़ रही है.
वक़्त के साथ चीन में आर्थिक असमानता भी बढ़ी है. ख़ासकर शहरों और गांवों में रहने वाले लोगों की ज़िंदगियों और हालात में बहुत अंतर है.
डेविड मैन कहते हैं, "ऐसा नहीं है कि चीन की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से उन्नत है. इसके अलग-अलग इलाकों में बड़ी असमानता है."
विश्व बैंक का कहना है कि चीन में प्रति व्यक्ति आय आज भी एक विकासशील देश जैसी ही है और ये विकसित देशों की औसत प्रति व्यक्ति आय के मुक़ाबले एक चौथाई से भी कम है.
डेवलपमेंट बैंक ऑफ़ सिंगापुर के आंकड़ों के अनुसार चीन में औसत वार्षिक आय लगभग 10 हज़ार डॉलर है जबकि अमरीका में वार्षिक आय 62 हज़ार डॉलर है. यानी यहां भी अच्छा-ख़ासा फ़र्क है.
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धीमी विकास दर और बूढ़ी आबादी
अब चीन तेज़ आर्थिक विकास दर से धीमी आर्थिक विकास के समय में जा पहुंचा है. पिछले कुछ वर्षों में इसने निर्यात पर निर्भरता कम करने की कोशिश की है और उपभोक्ता आधारित प्रगति के रास्ते पर बढ़ने का प्रयास किया है.
पिछले कुछ वक़्त में चीनी उत्पादों की मांग में अपेक्षाकृत कमी आई है और अमरीका से लंबे समय से चले आ रहे ट्रेड वॉर ने इसके सामने नई चुनौतियां खड़ी की हैं.
जनसांख्यिकी में बदलाव और बूढ़े होते लोगों की बढ़ती आबादी ने भी चीन की अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया है.
हालांकि आज पांच फ़ीसदी आर्थिक विकास दर के बावजूद चीन दुनिया की अर्थव्यवस्था का शक्तिशाली इंजन है.
डॉक्टर डेविड मैन कहते हैं, "इस गति के साथ भी चीन वैश्विक आर्थिक विकास का 35 फ़ीसदी हिस्सा है जो किसी देश के तौर पर सबसे बड़ा अकेला कॉन्ट्रिब्यूटर है. दुनिया की अर्थव्यवस्था के लिए चीन की आर्थिक तरक्की अमरीका की आर्थिक तरक्की के मुक़ाबले तीन गुना ज़्यादा महत्वपूर्ण है."
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नए आर्थिक आयाम
चीन वैश्विक आर्थिक विकास के लिए नए रास्ते भी तैयार कर रहा है. चीन की अगली तैयारी 'बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव' परियोजना में उसके भारी निवेश के रूप में देखी जा सकती है.
कथित नए सिल्क रूट के जरिए चीन दुनिया की लगभग आधी आबादी और वैश्विक जीडीपी के 25 फ़ीसदी जीडीपी को साधने की कोशिश कर रहा है. इसी के साथ वो व्यापार और निवेश के रास्तों को पूरी दुनिया तक पहुंचाना चाहता है.