तुर्की की विदेश नीति आक्रामक कैसे और क्यों बन गई?
साल 2015 के बाद से तुर्की की विदेश नीति में बड़े बदलाव देखने को मिल रहे हैं.
आर्मीनिया और अज़रबैजान के बीच छिड़ी जंग के फौरन बाद तुर्की ने अज़रबैजान का साथ देने की घोषणा की.
इसके बाद कथित तौर पर तुर्की ने हथियार और सीरिया से लौटे लड़ाके अज़रबैजान को मदद के लिए भेजे.
जहाँ एक तरफ़ तमाम दूसरे देश तत्काल युद्धविराम की अपील कर रहे हैं वहीं इसके उलट तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने अज़रबैजान के राष्ट्रपति इलहाम अलियेव से जंग जारी रखने को कहा है.
यह सबसे नया संघर्ष क्षेत्र है जहाँ तुर्की अपनी मज़बूत मौजूदगी दर्ज करने में लगा है. इसके अलावा कई और देशों में भी तुर्की की फ़ौज की मौजूदगी है.
पिछले कुछ सालों में तुर्की ने इन जगहों पर अपनी फ़ौजें भेजी हैं -
- सीरिया में तीन बार फ़ौजी दखल दिया है.
- सीरिया में विद्रोहियों के कब्ज़े वाले आख़िरी प्रांत इदलिब में फ़ौज भेजी.
- उत्तरी सीरिया में हाल ही में 'सशस्त्र चरमपंथी समूह' के ख़िलाफ़ नए सिरे से फ़ौजी कार्रवाई की चेतावनी दी है.
- लीबिया में सैन्य मदद और लड़ाके भेजे हैं.
- पूर्वी भूमध्यसागर के इलाक़े में अपना दावा पेश करने के मक़सद से में अपनी नौसेना इस इलाक़े में तैनात की है.
- उत्तरी इराक़ में कुर्दिश पीकेके विद्रोहियों के ख़िलाफ़ फ़ौजी कार्रवाई को बढ़ाया है.
इसके अलावा जहां क़तर, सोमालिया और अफ़ग़ानिस्तान में भी तुर्की की फ़ौज की मौजूदगी है वहीं बालकान क्षेत्र में भी उसने शांति सेना तैनात कर रखी है. उस्मानिया सल्तनत के बाद वैश्विक पैमाने पर तुर्की की मौजूदा सैन्य कार्रवाई सबसे महंगी मुहिम है.
विदेश नीति में बदलाव का कारण क्या है?
तुर्की का अपने हितों की रक्षा के लिए हार्ड पावर (सैन्य कार्रवाई) पर यक़ीन करना उसकी 2015 के बाद की विदेश नीति की ख़ासियत रही है.
नई विदेश नीति के तहत वो बहुपक्षीय मसले को शक़ की नज़र से देखता है और इस बात पर ज़ोर देता है कि ज़रूरत पड़ने पर तुर्की को एकतरफ़ा कार्रवाई करने से पीछे नहीं हटना चाहिए.
तुर्की की नई विदेश नीति पश्चिम विरोधी है. तुर्की यक़ीन करता है कि विश्व में पश्चिमी देशों का प्रभाव अब घट रहा है और तुर्की को चीन और रूस जैसे देशों के साथ अपने ताल्लुकात बढ़ाने चाहिए.
उसकी मौजूदा विदेश नीति सम्राज्यवाद विरोधी है. दूसरे विश्व युद्ध के बाद पश्चिम के दबदबे वाले न्यू वर्ल्ड ऑर्डर को वो चुनौती देता है और संयुक्त राष्ट्र जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से मांग करता है कि वो पश्चिमी देशों के अलावा दूसरे देशों की भी आवाज़ सुनें.
तुर्की यह समझता है कि उसके चारों ओर जो देश हैं, वो उसके प्रति शत्रुता का भाव रखते हैं और उसके पश्चिम के सहयोगियों ने भी उसका साथ छोड़ दिया है.
इसलिए तुर्की ने एक ऐसी विदेश नीति का रास्ता अख़्तियार किया है जो खुद की सीमा के बाहर सक्रिय सैन्य ताकत के तौर पर दुनिया में उसकी मौजूदगी को प्रबावी तरीके से दर्शाता हो.
यह उसकी दूसरे देशों के साथ पुरानी व्यापार और सांस्कृतिक मेलजोल वाली कूटनीति के विपरीत है.
तुर्की की मौजूदा विदेश नीति के पीछे कई घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आए बदलाव ज़िम्मेदार हैं.
कैसे हुई बदलाव की शुरूआत?
तुर्की की नई विदेश नीति ने 2015 से आकार लेना शुरू किया है. इसकी शुरुआत तब हुई जब एक दशक से अधिक के वक़्त में पहली बार सत्तारूढ़ एके पार्टी को संसद में कुर्दिश पिपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (एचडीपी) की वजह अपना बहुमत खोना पड़ा.
बहुमत हासिल करने के लिए अर्दोआन ने दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों ही तरह के राष्ट्रवादी नेताओं के साथ हाथ मिलाया.
इन दलों ने अर्दोआन का साथ तब दिया जब अर्दोआन ने कुर्दिश विद्रोहियों के ख़िलाफ़ लड़ाई की फिर से शुरुआत की.
कुर्दों पर इतना फोकस कैसे गया?
2013 में कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी (पीकेके) के नेता अब्दुल्लाह ओकलान ने तुर्की के साथ संघर्षविराम की घोषणा की थी. इसके बाद से तुर्की के साथ पीकेके का संघर्ष बहुत हद तक ख़त्म हो चुका था.
वैचारिक मतभेदों के बावजूद धुर् दक्षिणपंथी पार्टी एमएचपी और नव-राष्ट्रवादी वाम पार्टी इस बात को लेकर एकमत हैं कि कुर्दिश समस्या से कठोरतापूर्वक निपटना चाहिए था.
ये पार्टियां घरेलू मोर्चे पर राष्ट्रीय सुरक्षा को प्राथमिकता देने के पक्ष में हैं और विदेश नीति को लेकर पश्चिम-विरोधी रुख़ रखती हैं.
उनके समर्थन से अर्दोआन ने देश की संसदीय व्यवस्था को अध्यक्षीय व्यवस्था में भी तब्दील कर दिया है. इससे उनकी ताकत और बढ़ गई है.
तुर्की के एकपक्षीय, सैन्य और मुखर विदेश नीति के प्रति झुकाव में इस राजनीतिक गठबंधन की मुख्य भूमिका है. 2016 में तख्तापलट की नाकाम कोशिश ने भी इसमें अहम भूमिका निभाई थी.
तख्तापलट ने कैसे बदली अवधारणा
तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन का आरोप था कि 2016 में हुई तख्तापलट की कोशिश धर्म प्रचारक फ़तहुल्लाह गुलेन की अगुवाई में की गई थी. हालांकि गुलेन ने अब तक इन आरोपों से इनकार किया है.
इस्लामी धर्मगुरू फ़तहुल्लाह गुलेन के तुर्की में लाखों अनुयायी हैं. डेढ़ सौ से ज़्यादा देशों में उनके स्कूल हैं और उनका कारोबार अरबों डॉलर का है. वे 90 के दशक से अमरीका के पेनसिलवीनिया में रह रहे हैं.
तुर्की की विदेश नीति में फ़ौजी रुख़ आने की एक बड़ी वजह यह तख्तापलट की कोशिश भी रही है. इसने राष्ट्रवादियों के साथ अर्दोआन के गठजोड़ को और मज़बूत कर दिया है.
तख्तापलट में शामिल होने के संदेह में 60 हज़ार सरकारी कर्मचारियों को या तो मारा गया, जेल में डाला गया या फिर बर्खास्त किया गया है. इसमें सेना के जवान और न्यायपालिका के लोग भी शामिल थे.
इनकी जगह पर अर्दोआन से वफादारी रखने वालों और राष्ट्रवादियों को शामिल किया गया है.
इसने राष्ट्रवादियों के उस अवधारणा को भी बल दिया कि तुर्की घरेलू और विदेशी मोर्चे पर दुश्मनों से घिरा हुआ है.
सीरिया में कैसे बदली तुर्की की नीति?
सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल-असद की ओर से उत्तरी हिस्से में कुर्दों को कुर्दी ज़ोन के लिए खुली छूट देने का फ़ैसला लिया गया. यह क्षेत्र तुर्की की सीमा से लगा हुआ है.
2014 में कथित तौर पर अमरीका ने कुर्दों की मदद के लिए हथियार मुहैया कराए. इन सब की वजह से तुर्की का असंतोष बढ़ा क्योंकि तुर्की कुर्दों को चरमपंथी मानता है.
इससे तुर्की को लगा कि उसे अपनी सीमा की सुरक्षा अकेले ही करनी होगी और उसने इसके लिए सीमा पर सेना की तैनाती बढ़ाई.
तख्तापलट की कोशिश से पहले अर्दोआन ने सीरिया में फ़ौजी कार्रवाई के संकेत दिए थे. उन्होंने 'चरमपंथी ख़तरे' को ख़त्म करने की बात कही थी.
लेकिन तुर्की की फ़ौज इसके पक्ष में नहीं थी. तुर्क फ़ौज किसी दूसरे देश में जाकर कार्रवाई करने को लेकर सतर्क रहती है.
लेकिन तख्तापलट की कोशिश के कुछ महीनों के बाद अर्दोआन की यह इच्छा पूरी हुई और तुर्की ने सीरिया में कुर्दों के ख़िलाफ़ पहली फ़ौजी कार्रवाई की. इसके बाद दो और बार तुर्की की फ़ौज सीरिया में कार्रवाई कर चुकी है.
अर्दोआन के राष्ट्रवादी सहयोगियों ने उनके इस फ़ैसले की खूब तारीफ़ की. राष्ट्रवादियों को इस बात का डर था कि अमरीका की मदद से तुर्की की सीमा पर कुर्द एक स्वतंत्र राज्य बना सकते हैं.
अमरीका को लेकर इस डर की आशंका की वजह से वो रूस का समर्थन करते हैं.
लीबिया और पूर्वी भूमध्यसागर में क्यों हैं तुर्की?
जनवरी में तुर्की ने लीबिया की मौजूदा सरकार को सैन्य मदद भेजी थी. तुर्की ने यह मदद जनरल ख़लीफ़ा हफ़्तार के नेतृत्व में सरकार के ख़िलाफ़ विद्रोहियों के मुहिम से बचाव के लिए भेजी थी. लीबिया में प्रधानमंत्री फ़ैज़ अल-सेराज की संयुक्त राष्ट्र समर्थित सरकार है.
तुर्की का लीबिया में मुख्य मक़सद सेराज की सरकार को बचाना है. यह अर्दोआन सरकार में शामिल राष्ट्रवादियों के लिए पूर्वी भूमध्यसागर क्षेत्र की वजह से काफी अहम है.
साइप्रस में गैस उत्पादन के अधिकार को लेकर पूर्व भूमध्यसागर के क्षेत्र ग्रीस और साइप्रस के साथ तुर्की टकराव की स्थिति में है.
तुर्की ने नवंबर में सेराज सरकार के साथ सैन्य मदद के एवज में समुद्री सीमाओं को लेकर एक डील साइन की है. अर्दोआन का मकसद पूर्व भूमध्यसागर में समुद्री सीमाओं का फिर से निर्धारण करना है क्योंकि तुर्की को लगता है कि मौजूदा स्थिति में तुर्की के दुश्मन ग्रीस और साइप्रस को इसका फ़ायदा मिल रहा है.
कितनी कामयाब है अर्दोआन की विदेश नीति?
सीरिया, लीबिया और पूर्व भूमध्यसागर में तुर्की की नीति हालांकि उतनी कामयाब होती नहीं दिखती जितनी अर्दोआन के सरकार में उनके सहयोगियों ने की थी.
तुर्की सीरिया से लगी अपनी सीमा से पूरी तरह से कुर्दों को हटाने में कामयाब नहीं रहा है. लीबिया के साथ किए समझौते से भी पूर्वी भूमध्यसागर में उसकी स्थिति पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा है.
इसके विपरीत हुआ यह है कि इन संघर्षों में तुर्की के दखल से पश्चिम और इन देशों में अर्दोआन के विरोध में भावनाएँ बन गई हैं.
नागोर्नो-काराबाख़ में भी तुर्की का यही हश्र होता दिख रहा है क्योंकि वहाँ तुर्की के अज़रबैजान को समर्थन देने पर रूस की तरफ से कड़ी प्रतिक्रिया आई है.
तुर्की के लिए आगे क्या है?
राष्ट्रपति अर्दोआन के राष्ट्रवादी सहयोगी चाहते हैं कि वो जंग जारी रखे. एक नव राष्ट्रवादी रिटायर्ड रियर एडमिरल सिहात यासी कहते हैं कि ग्रीस पश्चिमी तुर्की में अतिक्रमण करना चाहता था.
उन्होंने अर्दोआन से अपील की है कि वो कभी भी ग्रीस के साथ बातचीत के लिए ना बैठे.
राष्ट्रपति अर्दोआन के पास इस तरह की सलाह सुनने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं. वो ओपीनियन पोल में अपना आधार खोते दिखे हैं. इसके साथ ही उनकी घरेलू और विदेश नीति में राष्ट्रवादियों का प्रभाव लगातार बढ़ता ही जा रहा है.
(गोनल टॉल वाशिंगटन डीसी में मिडल ईस्ट इंस्टीट्यूट के सेंटर फॉर तुर्कीश स्टडीज़ के निदेशक हैं.)