हिटलर के क़ैदियों पर टैटू बनाने वाले की 'सीक्रेट' लव स्टोरी
इंसान के हैवान बनने के दौर की एक ऐसी प्रेम कहानी, जिसे हिटलर का गैस चैम्बर भी ख़त्म नहीं कर पाया.
क्या मौत के खेत में मोहब्बत का पौधा उग सकता है?
क्या क़त्लो-ग़ारद के मंज़र के बीच में खड़े हुए किसी का दिल किसी और के लिए धड़क सकता है? जब जान बचाने की फ़िक्र सिर पर सवार हो, तो उस वक़्त क्या कोई अपनी जान बचाने से ज़्यादा अपनी मोहब्बत की तलाश को तरजीह दे सकता है?
अगर इन सबका जवाब आपके पास ना है, तो शायद आपको मोहब्बत की बेपनाह ताक़त का अंदाज़ा नहीं.
मोहब्बत वो शै है जिसमें ख़ुदाई जैसी ताक़त है, दुनिया को पलट देने जैसी.
ऐसी ही एक कहानी हाल ही में सामने आई है. क़िस्सा बेहद दिलचस्प है. बात सत्तर साल से भी ज़्यादा पुरानी है.
वो दौर क़त्लो-गारद का था. शासन हिटलर का था. जिसने इंसानियत के ख़िलाफ़ सबसे बड़ा पाप किया था. जिसने होलोकॉस्ट के नाम पर लाखों लोगों को नज़रबंदी कैंप में रखा. उनमें से हज़ारों लोगों को गैस चैम्बर में डालकर मार डाला. दूसरे हज़ारों लोग नज़रबंदी कैंप में ठंड और भुखमरी से मर गए.
हैवानियत का सबसे बड़ा सेंटर
हिटलर की हैवानियत का सबसे बड़ा सेंटर था, पोलैंड का ऑश्वित्ज़. ये नाज़ी हुकूमत का सबसे बड़ा कंसंट्रेशन कैंप यानी नज़रबंदी शिविर था. नाज़ी ख़ुफ़िया एजेंसी एसएस यहां पर यूरोप भर से यहूदियों को पकड़कर ले आती थी.
इनमें से कई लोगों को तो कैंप पहुंचते ही गैस चैम्बर में डालकर मार डाला जाता था. वहीं बहुत से ऐसे भी थे जिन्हें मौत के लिए महीनों तक घुट-घुटकर जीना होता था. उनके सिर के बाल साफ़ कर दिए जाते थे. कपड़े उतारकर चीथड़े पहना दिए जाते थे. फिर दिन रात काम लिया जाता था. और फिर उन्हे ज़िंदा रहने भर का खाना दिया जाता था.
वो पेट भर खाने के लिए तरसते थे. लोग अपनों से दूर, अपने मां-बाप, बच्चों, रिश्तेदारों से दूर अजनबियों के बीच रहा करते थे. जो ज़्यादा कमज़ोर हो जाते थे. जिनसे काम नहीं लिया जा सकता था. उन्हें बारी-बारी से गैस चैम्बर में ले जाकर दम घोंटकर मार दिया जाता था.
ऑश्वित्ज़ में हिटलर की हैवानियत का ये सिलसिला कई बरस चला था. 1945 में दूसरे विश्व युद्ध के ख़ात्मे के वक़्त सोवियत संघ की सेनाओं ने जब ऑश्वित्ज़ पर क़ब्ज़ा किया, तब जाकर ये सिलसिला ख़त्म हुआ था.
बाहों में गोद दिया जाता था क़ैदी का नंबर
ऑश्वित्ज़ कैंप का मंज़र बेहद भयावाह हुआ करता था. यहां पहुंचते ही सबसे पहले लोगों की पहचान, यानी उनका नाम छीन लिया जाता था. लोगों की बाहों में क़ैदी नंबर गोद दिया जाता था. उस दिन के बाद से कोई भी अपना नाम नहीं ले सकता था. वो सिर्फ़ अपने नंबर से जाना जाता था.
ऑश्वित्ज़ के कैंप में ऐसा ही एक क़ैदी था, जिसका नंबर था-32407. इस क़ैदी की दास्तान पर एक क़िताब लिखी गई है, जिसका नाम है द टैटूइस्ट ऑफ़ ऑश्वित्ज़. यानी ऑश्वित्ज़ का टैटूवाला.
ऑश्वित्ज़ के क़ैदी नंबर 32407 का असल नाम था, लुडविग लेल आइज़ेनबर्ग. लुडविग एक यहूदी थे. उनकी पैदाइश स्लोवाकिया में 1916 में हुई थी.
बात अप्रैल 1942 की है. तब लुडविग उर्फ़ लेल 26 बरस के थे. एक रोज़ अचानक नाज़ी पुलिस उनके दरवाज़े पर आ पहुंची. परिवार को अंदाज़ा हो गया था कि क्या होने वाला है.
लेल उस वक़्त बेरोज़गार थे. उनका ब्याह भी नहीं हुआ था. सो, लेल ने ख़ुद को आगे कर दिया कि वो नाज़ी सेना के लिए काम करने के लिए तैयार हैं. लेल को उम्मीद थी कि ऐसा करके वो अपने परिवार को तो नाज़ियों के ज़ुल्म से बचा लेंगे.
क्या काम करते थे हिटलर के क़ैदी?
लेल को गिरफ़्तार करके पोलैंड स्थित ऑश्वित्ज़ नज़रबंदी कैंप में लाया गया. वहां पर उनकी बांह में नंबर गोदा गया 32407. लेल को बाक़ी क़ैदियों के साथ काम पर लगा दिया गया. वहां के क़ैदी, बाहर से आने वाले दूसरे यहूदी नज़रबंदियों के लिए इमारतें बनाते थे.
ऑश्वित्ज़ कैंप में पहुंचने के कुछ दिनों बाद ही लेल को टाइफॉइड हो गया. उस दौरान फ्रांस से आए एक यहूदी क़ैदी ने उनकी देख-रेख की. उसका नाम था पेपन. पेपन ने लेल को सिखाया कि वो नज़रबंदी के दौरान ख़ामोश रहें. वहां के सैनिकों से न उलझें और चुपचाप अपना काम करें. किसी से ज़्यादा बात भी न करें. पेपन को टैटू बनाना आता था. उसने लेल को भी ये काम सिखा दिया.
एक दिन पेपन अचानक ग़ायब हो गया. फिर लेल से उसकी मुलाक़ात कभी नहीं हुई. लेल ने टैटू बनाना सीख लिया था. सो नाज़ी ख़ुफ़िया पुलिस यानी एसएस के कमांडरो ने उसे नए आने वाले क़ैदियों की बांह पर उनका नंबर गोदने की ज़िम्मेदारी दे दी. लेल को कई भाषाएं आती थीं. वो जर्मन, रशियन, फ्रेंच, स्लोवाकियन, हंगेरियन और पोलिश ज़बानें जानते थे. इसलिए भी उन्हें टैटू बनाने का काम दिया गया.
टैटू बनाने के लिए लेल को झोला भर सामान दिया गया. वो बाक़ी क़ैदियों से अलग अपने निजी कमरे में रहते थे. उन्हें खाना भी ज़्यादा दिया जाता था. एक सिपाही उनकी निगरानी और सुरक्षा में तैनात किया गया था.
कौन करता था कैदियों की छंटाई?
लेल की ज़िंदगी वहां के बाक़ी यहूदी क़ैदियों से बेहतर हो गई थी. मगर मौत का डर हमेशा सिर पर सवार रहता था. जब वहां के क़ैदी रात में सोते थे, तो किसी को ये यक़ीन नहीं होता था कि वो अगली सुबह देखेंगे या नहीं. लेल की ज़िंदगी भी मौत के साए में कट रही थी. उन्हें पता था कि पास के गैस चैम्बर में क्या हो रहा था.
लेल रोज़ाना आ रहे क़ैदियों की भीड़ देखते थे. उनकी बांहों में सुई से उनके नंबर गोदते थे. वो लोगों की पहचान मिटाते थे. उन्हें क़ैदी की नई पहचान देते थे. जिन क़ैदियों को आने के साथ ही गैस चैम्बर में डालना होता था, उनकी बाहों में टैटू नहीं बनाए जाते थे. लेल को पता चल जाता था कि फलां शख़्स का आज आख़िरी दिन है.
ऑश्वित्ज़ कैंप में नाज़ी कमांडर जोसेफ़ मेंगेले ही अक्सर क़ैदियों की छंटाई करता था. वही ये तय करता था कि किन लोगों को कैंप आते ही मार दिया जाना है. और किन्हें काम लेने के साथ तिल-तिलकर मारना है. वो भूखे, अधनंगे लोगों की तस्वीरें भी निकलवाता था. ताकि उन्हें अपनी कारस्तानी के सबूत के तौर पर अपने साहबों को दिखा सके.
अगले दो बरस तक लेल आइज़ेनबर्ग भी ऑश्वित्ज़ के कैंप में क़ैदियों की बांह में नंबर दर्ज करते रहे. इनमें अक्सर बच्चे और कमज़ोर महिलाएं हुआ करती थीं. उनकी कांपती बाहें और डर से भरी आंखें देखकर लेल भी दहशतज़दा हो जाते थे.
1943 का साल ख़त्म होते-होते ऑश्वित्ज़ में मौजूद सभी क़ैदियों के नंबर टैटू कर दिए गए थे.
जब एक महिला की बांह पर करना था टैटू
टैटू बनाने की इसी प्रक्रिया के एक रोज़ अजीब इत्तेफ़ाक़ हुआ. बात जुलाई 1942 की है. जब लेल के हाथ में पर्चा थमाया गया. क़ैदी नंबर 34902 का. उन्हें ये नंबर नए आए बंदी की बांह में गोदना था. ये बंदी एक महिला थी.
लेल के लिए ये कोई नया काम नहीं था. वो अक्सर महिलाओं की बांहों में भी उनके नंबर का टैटू बनाते ही थे. लेकिन, इस लड़की की बात ही कुछ और थी. वो लेल के टैटू बनाने के काम का शुरुआती दौर था. हाथ कांप रहे थे. साथी पेपन ने उन्हें कहा कि घबराओ मत, बस अपना काम करो.
लेल ने उस लड़की का हाथ थामा और टैटू बनाने लगे. इस दौरान उनकी आंखें उस लड़की से मिलीं. उस लड़की में अलग ही बात नज़र आई. दोनों की आंखें चार हुईं, तो यूं लगा कि जब लेल उस लड़की की बांह पर उसका नंबर गोद रहे थे, तो उस लड़की ने अपने आप को उनके दिल में टैटू कर दिया.
ज़रा सोचिए ऑश्वित्ज़ के नज़रबंदी कैंप में, जहां चारों तरफ़ मौत खड़ी दिखती हो, वहां दो दिल यूं मिले और एक-दूसरे के लिए धड़कने लगे.
उस लड़की का नाम था गीता.
प्रेम कहानी अब तक क्यों छिपी रही?
लेल और गीता की मोहब्बत की यही दास्तां द टैटूइस्ट ऑफ़ ऑश्वित्ज़ नाम की क़िताब के तौर पर सामने आई है. ये क़िताब लिखी है ऑस्ट्रेलिया की फ़िल्मकार हीदर मॉरिस ने.
मॉरिस की मुलाक़ात लेल से कई साल पहले हुई थी. उन्हें जब पता चला कि लेल ऑश्वित्ज़ के नज़रबंदी कैंप में रहे थे, तो मॉरिस ने पहले उनके तजुर्बों पर फ़िल्म बनाने की सोची. बरसों से लेल ये राज़ अपने सीने में छुपाए हुए थे कि वो नाज़ी कैंप में टैटू बनाया करते थे. लेल को डर था कि उन्हें नाज़ियों का साथी समझा जाएगा. जबकि वो तो ये काम मजबूरी में, अपनी जान बचाने के लिए कर रहे थे.
लेल की प्रेमिका से पत्नी बनीं गीता ने उन्हें अपना सच बताने से हमेशा रोका. मगर 2003 में जब गीता की मौत हो गई, तो लेल ने सोचा कि मरने से पहले उन्हें दुनिया को अपना राज़ बताना चाहिए. फिर हीदर का उनके घर आना-जाना हुआ, तो लेल ने 2006 में अपनी मौत से पहले ऑश्वित्ज़ कैंप में अपने तजुर्बे से लेकर अपनी मोहब्बत तक का सारा क़िस्सा हीदर को सुनाया.
बांह में क़ैदी नंबर 34902 गोदते हुए ही लेल को पता चला कि उस लड़की का नाम गीता था. दोनों में मोहब्बत हो गई. गीता को ऑश्वित्ज़ के पास स्थित बिर्केनू के नज़रबंदी कैंप में रखा गया था. लेल अपने सुरक्षा गार्ड की मदद से गीता को ख़त भेजने लगे.
वो गीता का बहुत ख़याल रखते थे. क़ैदियों को बहुत कम खाना मिला करता था. लेकिन टैटू बनाने की वजह से लेल को पूरा राशन मिलता था. वो अपना खाना बचा लिया करते थे. फिर वो उसे चोरी-छुपे गीता तक पहुंचाते थे. लेल गीता के साथ उनकी दोस्तों और साथ रह रहे क़ैदियों की भी मदद करते. वो उनके गहने लेकर पास के गांव के लोगों को बेच देते थे. फिर उसके एवज़ में राशन लाकर क़ैदियों को दिया करते थे.
कैसे जुदा हुए लेल और गीता?
ये सिलसिला क़रीब दो बरस तक चला. गीता और उनके बीच मोहब्बत परवान चढ़ती रही. 1945 में अपनी हार तय देखकर नाज़ी सैनिक ऑश्वित्ज़ और दूसरे कैंपों से क़ैदियों को दूसरी जगह ले जाने लगे. इसी दौरान गीता को भी ऑश्वित्ज़ से कहीं और ले जाया गया. लेल और उनकी मोहब्बत जुदा हो गए थे.
लेल को सिर्फ़ ये मालूम था कि उनकी प्रेमिका का नाम गीता फुर्मानोवा था. इसके सिवा उन्हें कुछ भी पता नहीं था.
जब सोवियत सेना ने ऑश्वित्ज़ कैंप को नाज़ियों से आज़ाद कराया, तो लेल एक घोड़ा गाड़ी लेकर चेकोस्लोवाकिया में अपने शहर क्रोमपाची की तरफ़ रवाना हो गए. उनके ज़हन में सिर्फ़ गीता का ख़याल था. वो हर हाल में गीता को तलाश लेना चाहते थे. इसलिए वो दर-दर भटकते रहे.
लेल के पास यहूदी क़ैदियों के दिए कुछ गहने थे, जिसकी मदद से वो घर पहुंचे. वहां उन्हें अपनी बहन गोल्डी भी मिल गई. संयोग से लेल का घर भी नाज़ियों ने बख़्श दिया था. अब लेल की ज़िंदगी का सिर्फ़ एक ही मक़सद था, अपनी मोहब्बत गीता को तलाशना.
खोई गीता को लेल ने कैसे खोजा?
अपने शहर से वो स्लोवाकिया के शहर ब्रातिस्लावा रवाना हुए. कई हफ़्ते वो रोज़ाना सुबह से शाम तक ब्रातिस्लावा के रेलवे स्टेशन पर आने वाली गाड़ियों को देखते थे. उन्हें लगता था कि गीता उन्हें यहीं मिलेगी. एक दिन स्टेशन मास्टर ने लेल को सलाह दी कि वो रेड क्रॉस के दफ़्तर में जाकर पता करें.
आपने शाहरुख़ ख़ान का वो डायलॉग तो सुना ही होगा कि, इतनी शिद्दत से मैंने तुम्हें पाने की कोशिश की है...कि हर जर्रे ने मुझे तुमसे मिलाने की साजिश की है.
यही बात लेल और गीता की मोहब्बत में भी सच साबित हुई.
जब लेल अपनी घोड़ा गाड़ी में बैठकर ब्रातिस्लावा रेलवे स्टेशन से रेड क्रॉस के दफ़्तर जा रहे थे, तो अचानक ही एक महिला उनकी गाड़ी के सामने आ गई. वो कोई और नहीं, उनका प्यार गीता फुर्मानोवा थी.
एक-दूसरे के लिए ध़ड़कते दो दिल मिल गए थे. जिस गीता को लेल तलाश रहे थे, उसने लेल को तलाश लिया था.
अक्टूबर 1945 को दोनों ने शादी कर ली. दोनों ने स्लोवाकिया पर सोवियत संघ के कब्ज़े को देखते हुए अपना नाम गीता और लेल सोकोलोव कर लिया. वहां पर उन्होंने कपड़े की दुकान खोली. ज़िंदगी मज़े में चल निकली.
इसराइल की मदद करने पर सरकार का कहर
लेकिन, एक रोज़ सरकार ने उन्हें पकड़ लिया. गीता और लेल इसराइल की मदद के लिए पैसे भेजा करते थे. इसे देशद्रोह मानते हुए उनका कारोबार सरकार ने छीन लिया. दोनों को क़ैद में डाल दिया गया.
कुछ दिनों बाद दोनों क़ैद से भाग निकले. फिर वो विएना गए वहां से पेरिस पहुंचे. आख़िर में दोनों ने यूरोप से बहुत दूर जाने का फ़ैसला कर लिया.
यूरोप से गीता और लेल ऑस्ट्रेलिया चले आए. यहां उन्होंने सिडनी में नए सिरे से ज़िंदगी शुरू की. लेल ने फिर से कपड़ों का कारोबार शुरू किया, जो चल निकला. गीता ने ड्रेस डिज़ाइनिंग का काम शुरू किया. 1961 में दोनों को बेटा हुआ. जिसका नाम लेल और गीता ने गैरी रखा.
इंसान के हैवान बनने के दौर की कहानी
गीता और लेल ने अपनी मोहब्बत भरी बाक़ी की ज़िंदगी मेलबर्न शहर में बिताई. इस दौरान गीता तो कई बार यूरोप गईं, लेकिन लेल दोबारा कभी भी यूरोप नहीं गए. उन्हें डर लगा रहता था कि कहीं नाज़ी कैंप में टैटू बनाने वाली बात का दुनिया को पता न चल जाए. गीता ने भी उन्हें ये राज़ दुनिया को बताने से हमेशा रोका.
लेकिन, 2003 में गीता ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया. अपनी ज़िंदगी के आख़िरी दौर में लेल को भी लगा कि ये राज़ अपने सीने में ही दफ़्न करके रखना ठीक नहीं. लेकिन लेल को डर ये था कि वो अपनी बात किसी को बताएं, तो लोग ये न समझ लें कि वो चोरी से ऑस्ट्रलिया में रह रहे थे, ताकि नाज़ी युद्ध अपराध के मुक़दमे से बच सकें.
आख़िर में हीदर को उनके बारे में पता चला. कई हफ़्ते तक हीदर रोज़ाना लेल से मिलती रहीं, ताकि उनका भरोसा जीत सकें.
और अब जाकर मोहब्बत की ये दिलचस्प दास्तां दुनिया के सामने आई है. हीदर कहती हैं कि उनकी क़िताब द टैटूइस्ट ऑफ़ ऑश्वित्ज़ की कहानी सिर्फ़ प्यार की दास्तान भर नहीं. ये इंसान के हैवान बनने के दौर की भी कहानी है, जिसे आने वाली नस्लों को जानना-समझना चाहिए.
हिटलर ने शादी की, पार्टी की फिर गोली मार ली
मालूम है कहां हुआ था हिटलर का जन्म?