आधे दर्जन देश मिलकर भी क़तर को क्यों नहीं झुका पाए
यदि ऐसा होता है तो क़तर में अमरीका के 10 हज़ार सैनिकों वाले सैन्य बेस का क्या होगा. ये वो ही सैन्य बेस है जिसका अमरीका ने 2003 में इराक़ हमले के दौरान उपयोग किया था.
इतना ही नहीं अमरीका के कहने पर जिन इस्लामिक संगठनों के साथ क़तर मध्यस्थता कर रहा है उसका क्या होगा? इतना ही नहीं, मध्य पूर्व के अन्य देशों के बीच भी इससे ग़लत संदेश जाएगा
शक्तिशाली और प्रतिद्वंद्वी पड़ोसी सऊदी अरब की द्वीप बना देने की धमकी, पूरी तरह से आर्थिक नाकेबंदी और अपने हवाई क्षेत्रों पर भी पूरी तरह से पाबंदी के बावजूद क़तर कमज़ोर क्यों नहीं पड़ा? दूसरा सवाल यह कि सऊदी की कोई भी रणनीति क़तर को झुका क्यों नहीं पाई?
इस दौरान क़तर न केवल संपन्न हुआ है बल्कि उसने मानवाधिकार के रिकॉर्ड को भी ठीक किया है. 25 लाख की आबादी वाले इस छोटे से देश ने तेल निर्यातक देशों के समूह ओपेक से बाहर निकलने की घोषणा सऊदी को बैकफुट पर ला दिया है.
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार क़तर की अर्थव्यवस्था 2.6 फ़ीसदी की वृद्धि दर से आगे बढ़ रही है जबकि 2017 में यह वृद्धि दर 2.1 फ़ीसदी थी. यहां तक कि मुल्क के राजस्व घाटे में 2016 की तुलना में कमी आई है. फ़ोर्ब्स के अनुसार क़तर का विदेशी मुद्रा भंडार 2.9 अरब डॉलर से 17 अरब डॉलर तक पहुंच गया.
क़तर के ख़िलाफ़ सऊदी अरब के नेतृत्व में आधे दर्जन देश हैं फिर भी ये झुकाने में नाकाम रहे.
क़तर दुनिया के मानचित्र पर आकार में बहुत छोटा सा देश है, जिसका क्षेत्रफल महज 11,437 वर्ग किलोमीटर है जबकि आबादी केवल 25 लाख. इनमें भी 90 फ़ीसदी प्रवासी हैं.
ये वो देश है जिस पर उसके पड़ोसी और ताक़तवर मुल्क सऊदी अरब और इसके सहयोगी देशों बहरीन, संयुक्त अरब अमीरात और मिस्र ने आर्थिक और राजनयिक प्रतिबंध लगा रखे हैं.
18 महीने बाद भी फ़िलहाल किसी समाधान की कोई उम्मीद नज़र नहीं आ रही.
सोमवार को क़तर ने ओपेक से अलग होने की घोषणा की थी और अब संभावना जताई जा रही है कि वो गल्फ़ कोऑपरेशन काउंसिल (जीसीसी) यानी खाड़ी सहयोग परिषद से भी अलग हो सकता है.
जीसीसी की रविवार यानी नौ दिसंबर से रियाद में बैठक होने वाली है.
खाड़ी देशों पर नज़र रखने वाले जानकारों के मुताबिक क़तर यदि ऐसा करता है तो उस पर नकेल कसने की तमाम कोशिशों में जुटे सऊदी अरब को न केवल खीझ होगी बल्कि इससे वो ख़ासा परेशान भी होगा क्योंकि पिछले 18 महीने से उसने इस छोटे से मुल्क के चारों ओर आर्थिक और राजनयिक नाकेबंदी कर रखी है.
क़तर के पूर्व शासक शेख अब्दुल्ला बिन कासिम अल थानी ने ट्वीट किया कि ओपेक का इस्तेमाल हमारे राष्ट्रीय हित को नुक़सान पहुंचाने के लिए किया जा रहा है.
जीसीसी देशों में क़तर पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने वाले दो देश सऊदी अरब और यूएई बड़े प्लेयर है.
जीसीसी अब तक क़तर की लगी आर्थिक नाकेबंदी को सुलझाने में नाकाम रही है. इससे जीसीसी की सीमाओं का अंदाज़ा पता चलता है.
जीसीसी, क़तर और सऊदी अरब
ओपेक से हटने की घोषणा कर चुके क़तर को यह लग सकता है कि जीसीसी की सदस्यता से उसे वास्तविक रूप से कुछ हासिल नहीं हो रहा लिहाजा इससे हटा जा सकता है.
लेकिन यहां क़तर की एक कसमसाहट भी है. ओपेक से बाहर हटने का क़तर पर बहुत कम प्रभाव पड़ेगा क्योंकि इस लीग के देशों में तेल उत्पादन को लेकर क़तर की भागीदारी थोड़ा बहुत प्रभाव ही डालती है.
लेकिन जीसीसी को छोड़ना उसके लिए बहुत महंगा पड़ सकता है जबकि यह एक ऐसा असरहीन समूह है जो यहां के क्षेत्रीय मसलों पर बहुत कम प्रभाव डालता है.
यदि क़तर इससे अलग होता है तो इससे सऊदी अरब और यूएई के उस दावे को ही बल मिलेगा कि दोहा अरब देशों की एकजुटता को खोखला कर रहा है.
क़तर अगर जीसीसी में बना रहा तो वो यह संकेत देगा कि क्षेत्रीय सहयोग को लेकर अपना सहयोग देने को लेकर प्रतिबद्ध है, जिससे सऊदी अरब और यूएई पर यह दबाव बढ़ेगा कि वो आर्थिक नाकेबंदी को ख़त्म करे.
यह हमेशा संभव लगता रहा है कि सऊदी अरब और यूएई कोई न कोई पेंच फंसा कर क़तर को जीसीसी से बाहर निकाल देना चाहते हैं. लेकिन इसके लिए उन्हें कुवैत, ओमान और बहरीन को इसके लिए मनाना होगा.
चाह कर भी क़तर को नहीं हटा सकेगा सऊदी
इन देशों में से बहरीन तो सऊदी अरब का ज़्यादातर मामलों में साथ देता रहा है लेकिन कुवैत और ओमान अब तक सऊदी अरब की आर्थिक नाकेबंदी पर दृढ़ता से तटस्थ बने रहे हैं.
कुवैत ने तो यहां तक कहा है कि वो लंबे चले आ रहे खाड़ी के इस संकट को अगले हफ़्ते होने वाले जीसीसी की इस बैठक में सुलझाने की कोशिश करेगा.
इतना ही नहीं यदि जीसीसी से क़तर को अलग करने की कोशिश की गई तो यह अमरीका को रास नहीं आएगा. ईरान को लेकर अमरीका चाहता है कि अरब देशों में एकजुटता बनी रहे लिहाजा ट्रंप प्रशासन चाहेगा कि क़तर के साथ सऊदी अरब के संबंध सुधरे न कि और बिगड़े.
दूसरी ओर जीसीसी में क़तर के बने रहने से सऊदी अरब की चिढ़ और बढ़ेगी- इतना ही काफ़ी है कि क़तर इस परिषद में बना रहना चाहेगा.
सऊदी से क्यों टूटे क़तर के संबंध?
कई जानकारों ने जून 2017 में सऊदी अरब समेत छह देशों मिस्र, बहरीन, यमन, लीबिया और संयुक्त अरब अमीरात के साथ क़तर के राजनयिक संबंध टूटने के लिए क्षेत्रीय और ऐतिहासिक कारण को ज़िम्मेदार बताया था.
दरअसल, क़तर 55 साल ब्रिटेन के संरक्षण में रहा है और 1971 में उसने अलग देश के तौर पर वह अस्तित्व में आने से पहले संयुक्त अरब अमीरात का हिस्सा बनने से इनकार कर दिया था.
इसके बाद क़तर पर चरमपंथी गुटों का समर्थन करने के आरोप लगते रहे जिससे वो इनकार करता रहा है.
यहां 19वीं सदी के मध्य से ही अल-थानी परिवार का शासन है. अमीर शेख तमीम बिन हमद अल-थानी ने 2013 में अपने पिता शेख हमद बिन खलीफा अल-थानी के गद्दी छोड़ने के बाद सत्ता संभाली थी.
खाड़ी देशों से तनाव
क़तर और अन्य खाड़ी देशों के बीच तनाव की शुरुआत तब हुई जब मिस्र के इस्लामिक राष्ट्रपति मोहम्मद मोर्सी को सेना ने 2013 में पद से हटा दिया था.
सऊदी सरकार संचालित मीडिया में कई बार मिस्र के मुस्लिम ब्रदरहुड के लिए क़तर के कथित समर्थन को लेकर असंतोष की ख़बरें आती रही हैं.
मोहम्मद मोर्सी हिज्बुल्ला के सदस्य थे जिसे कई अरब देश चरमपंथी संगठन मानते हैं.
मार्च 2014 में सऊदी अरब, बहरीन और संयुक्त अरब अमीरात ने क़तर पर उनके आंतरिक मामलों में दख़ल देने का आरोप लगाते हुए अपने राजदूत वापस बुला लिए थे.
मिस्र ने इससे पहले अल-जज़ीरा पर चरमपंथ भड़काने और फर्ज़ी ख़बरें बनाने का आरोप लगाया था.
क़तर में तेल, गैस की ताक़त
ईरान और रूस के बाद क़तर दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा प्राकृतिक गैस भंडार वाला देश है. इसके साथ ही पेट्रोलियम का भी विशाल भंडार है.
बेशक सऊदी अरब ने उस पर आर्थिक और राजनयिक नाकेबंदी कर रखी है लेकिन इसके बावजूद अरब देशों में उसकी ताक़त बेशुमार है.
तेल और गैस से मिलने वाले बेशुमार पैसे का निवेश क़तर दुनिया भर के देशों में करता है.
न्यूयॉर्क के ऐम्पायर स्टेट बिल्डिंग, लंदन के सबसे ऊंचा टावर द शार्ड, ऊबर और लंदन के डिपार्टमेंट्ल स्टोर हैरेड्स में क़तर के सुल्तान की बड़ी हिस्सेदारी है.
इसके अलावा दुनिया की कई बड़ी कंपनियों में क़तर की हिस्सेदारी है.
राजनयिक मज़बूती
बात यदि अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक मोर्चे पर क़तर के ताक़त की करें तो सूडान के दारफूर में शांति प्रयासों में वो मध्यस्थ की भूमिका अदा कर चुका है और फ़लस्तीनी गुटों में भी वो बीच बचाव करता रहा है.
अफ़गान और तालिबान के बीच शांतिवार्ता में भी क़तर मध्यस्थ की भूमिका में है.
अल-जज़ीरा भी क़तर का ही टेलीविजन नेटवर्क है जिसने अरब दुनिया में ख़बरों को परोसने के तरीक़े में काफ़ी बदलाव किया. इसकी वजह से दुनिया भर में इसने अपनी एक जगह बनाई.
क़तर एयरवेज की आज दुनिया के चुनिंदा हवाई सेवा में गिनती होती है और 2022 का फ़ुटबॉल विश्व कप भी यहीं आयोजित होने जा रहा है.
वो अरब दुनिया का ऐसा पहला देश है जो इस टूर्नामेंट की मेजबानी कर रहा है. हालांकि इस आयोजन के निर्माण कार्यों में विदेशी कामगारों के शोषण की ख़बरें भी लगातार मीडिया में रहती हैं.
आर्थिक मज़बूती
सऊदी के नाकेबंदी के एक महीने बाद क़तर के वित्त मंत्री अली शरीफ़ अल-ईमादी ने कहा था कि उनके देश में बेशुमार अमीरी है इसलिए पड़ोसियों को रास नहीं आता है.
यहां किस हद तक अमीरी है इसका अंदाजा केवल इससे लगाया जा सकता है कि क़तर में प्रति व्यक्ति जीडीपी 124 से 900 डॉलर तक है. विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की नज़र में यह प्रति व्यक्ति जीडीपी के मामले में पहले नंबर पर है.
कई लोगों का कहना है कि क़तर इस नाकेबंदी के कारण और मज़बूत हुआ है, क्योंकि उसने पूरा ध्यान अंतरराष्ट्रीय निवेश पर लगाया.
सऊदी अरब को अमरीका का साथ
दूसरी तरफ़ इस्ताम्बुल स्थित सऊदी दूतावास में दो अक्टूबर को पत्रकार जमाल ख़ाशोज्जी की हत्या के बाद से सऊदी अरब की न केवल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आलोचना हो रही है बल्कि हर मोर्चे पर उसका साथ दे रहे अमरीका के ट्रंप प्रशासन पर भी अंदरूणी दबाव बढ़ता जा रहा है.
हालांकि इस सब के बावजूद ट्रंप ने अपने बयान में ईरान के ख़िलाफ़ अमरीकी लड़ाई में सऊदी अरब को अहम सहयोगी माना है.
इसकी वजह सऊदी अरब में दुनिया के कुल तेल भंडार का 18 फ़ीसदी पेट्रोलियम मौजूद होना, अमरीका में बड़ा निवेश और उसका अमरीकी हथियारों का बड़ा ख़रीदार होना है.
दुनिया भर में हथियारों का सबसे बड़ा विक्रेता ख़ुद अमरीका है और इन हथियारों का क़रीब आधा हिस्सा वो अकेले मध्य पूर्व के देशों को बेचता है.
सऊदी अरब न केवल अमरीकी हथियारों का बल्कि मध्य पूर्व के किसी भी देश से अधिक हथियार ख़रीदता है. वो दुनिया में बेचे जाने वाले कुल हथियार का क़रीब दसवें हिस्से का ख़रीदार है.
ख़ाशोज्जी की हत्या के बाद से पिछले कुछ दिनों के दौरान अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप पर क्राउन प्रिंस सलमान से दूरी बनाने का दबाव ज़रूर है लेकिन ये जगज़ाहिर है कि उनका सऊदी अरब के प्रति प्रेम उसके (सऊदी के) करोड़ों डॉलर के निवेश की वजह से है.
ख़ुद राष्ट्रपति ट्रंप ने नवंबर में कहा था कि "मुझे अमरीका में 110 बिलियन डॉलर के निवेश को रोकने का विचार पसंद नहीं है."
ट्रंप प्रशासन की प्रतिक्रिया इस स्थिति को और भी बदतर बना सकती है. सऊदी अरब जिस तरह ट्रंप के साथ क़दम से क़दम मिला कर चल रहा है उससे संभावना यह भी जताई जा रही है कि कहीं क़तर-सऊदी संघर्ष क़तर-अमरीकी संघर्ष में तब्दील न हो जाए.
यदि ऐसा होता है तो क़तर में अमरीका के 10 हज़ार सैनिकों वाले सैन्य बेस का क्या होगा. ये वो ही सैन्य बेस है जिसका अमरीका ने 2003 में इराक़ हमले के दौरान उपयोग किया था.
इतना ही नहीं अमरीका के कहने पर जिन इस्लामिक संगठनों के साथ क़तर मध्यस्थता कर रहा है उसका क्या होगा? इतना ही नहीं, मध्य पूर्व के अन्य देशों के बीच भी इससे ग़लत संदेश जाएगा कि यदि सऊदी से मुक़ाबला किये तो उनके साथ क़तर जैसा सलूक होगा.