
रूस-यूक्रेन युद्ध की वजह से क्या आ सकती है वैश्विक मंदी?
जानकारों का मानना है कि रूस और यूक्रेन के बीच जारी युद्ध के बावजूद इस साल वैश्विक अर्थव्यवस्था तरक्की की राह पर रहेगी, हालांकि युद्ध का असर दुनिया के हर कोने पर ज़रूर पड़ेगा.

रूस और यूक्रेन में युद्ध के बीच दुनिया भर में अर्थव्यवस्था को लेकर भी चिंता जन्म ले रही है, मगर जानकारों का मानना है कि जंग के बावजूद इस साल वैश्विक अर्थव्यवस्था तरक्की की राह पर रहेगी. हालांकि उनका ये भी कहना है कि युद्ध का असर दुनिया के हर कोने में महसूस किया जाएगा.
लेकिन असर कितना बुरा रहेगा, ये इस बात पर निर्भर करता है कि युद्ध कितना लंबा खिंचता है, वैश्विक बाज़ार अभी जिस उथलपुथल से गुज़र रहा है वो कुछ समय की बात है या इसका असर लंबे वक्त तक रहेगा.
यहाँ हम ये समझने की कोशिश कर रहे हैं कि इस युद्ध का वैश्विक अर्थव्यवस्था पर कितना बड़ा असर पड़ेगा, और क्या इस कारण वैश्विक मंदी आ सकती है.

अलग जगहों पर अलग असर
ब्रिटेन में मौजूद कंसल्टेन्सी कंपनी ऑक्सफ़ोर्ड इकोनॉमिक्स के अनुसार रूस और यूक्रेन के लिए युद्ध का आर्थिक परिणाम 'नाटकीय' होगा लेकिन दुनिया के बाकी मुल्कों के लिए ये एक जैसा नहीं होगा.
उदाहरण के तौर पर पोलैंड और तुर्की के रूस के साथ बेहद मज़बूत व्यापारिक रिश्ते रहे हैं और इस कारण युद्ध के असर के मामले में वो अन्य अर्थव्यवस्थाओं के मुक़ाबले अधिक जोखिम वाली स्थिति में हैं.
ईंधन के मामले में पोलैंड अपनी ज़रूरत का आधा रूस से आयात करता है. वहीं तुर्की अपनी ज़रूरत का एक तिहाई कच्चा तेल रूस से लेता है.
इनके मुक़ाबले रूस के साथ अमेरिका का व्यापार उसके जीडीपी का केवल 0.5 फ़ीसदी है. चीन के लिए ये आंकड़ा 2.5 फ़ीसदी है. ऐसे में ये कहा जा सकता है कि इन दोनों पर रूस-यूक्रेन संकट का अधिक असर नहीं पड़ेगा.
ऑक्सफ़ोर्ड इकोनॉमिक्स में ग्लोबल मैक्रो रीसर्च के निदेशक बेन मे कहते हैं कि वैश्विक आर्थिक विकास की बात करें तो अनुमान लगाया जा रहा है कि युद्ध के कारण इसकी रफ़्तार 0.2 फ़ीसदी कम हो सकती है, यानी ये 4 फ़ीसदी से कम हो कर 3.8 फ़ीसदी रह सकती है.
वो कहते हैं, "लेकिन ये इस बात पर निर्भर करता है कि युद्ध कितना लंबा खिंचता है. स्पष्ट तौर पर अगर ये युद्ध अधिक दिन चला तो इसका असर भयानक हो सकता है."
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'स्टैगफ्लेशन' और तेल की क़ीमतों पर असर
एक और बेहद महत्वपूर्ण फैक्टर है, बाज़ार में तेल की क़ीमतें, जो युद्ध के कारण पहले ही बढ़ती जा रही हैं.
अमेरिकी एनर्जी इन्फॉर्मेशन एडमिनिस्ट्रेशन के अनुसार अमेरिका और सऊदी अरब के बाद दुनिया में कच्चे तेल के उत्पादन के मामले में रूस तीसरे नंबर पर है. साल 2020 में रूस ने प्रतिदिन 1.05 करोड़ बैरल तेल का उत्पादन किया. उसने इसमें से 50 से 60 लाख बैरल तेल निर्यात किया, जिसमें से आधा केवल यूरोप को निर्यात किया.
रूस के तेल निर्यात को लेकर अमेरिका और यूरोप के संभावित रोक की आशंका के बीच सात मार्च को ब्रेंट ऑयल (नॉर्थ सी के इलाक़े से निकाले जाने वाले कच्चे तेल) की कीमतों में रिकॉर्ड बढ़त दर्ज की गई.
बीते सप्ताह अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में इसकी कीमतों में 21 फ़ीसदी का उछाल देखा गया था, जिसके बाद ये और 18 फ़ीसदी बढ़कर थोड़ा कम हुआ और 140 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गया.
आठ मार्च को अमेरिका ने रूस से तेल की खरीद को लेकर प्रतिबंध लगाए और ब्रिटेन ने कहा कि साल 2022 के ख़त्म होने से पहले वो रूस से तेल खरीदना पूरी तरह बंद कर देगा.
रीसर्च कंपनी थंडर सेड एनर्जी के प्रमुख रॉब वेस्ट ने फाइनेन्शियल टाइम्स को बताया, "मौजूदा स्थिति के कारण कच्चे तेल की कीमतें 200 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच सकती हैं."
हालांकि आठ मार्च को रूस के उप प्रधानमंत्री अलेक्ज़ेंडर नोवाक ने इससे एक कदम आगे बढ़ते हुए कहा था कि "कच्चे तेल की कीमतें अप्रत्याशित रूप से बढ़ सकती हैं. ये कम से कम 300 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच सकती हैं."
सरकारी टेलीविज़न पर प्रसारित एक संदेश में नोवाक ने कहा "ये स्पष्ट है कि रूस से तेल खरीदना बंद करने का अंतरराष्ट्रीय बाज़ार पर बेहद भयानक असर पड़ेगा."
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कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने से केवल डीज़ल पेट्रोल या गैस की कीमतें नहीं बढ़ती बल्कि ज़रूरत के हर सामान की क़ीमत इसके साथ बढ़ जाती है. उत्पादन के लिए और सामान एक जगह से दूसरी जगह ले जाने के लिए ईंधन का इस्तेमाल होता है, ऐसे में तेल की कीमतों का सीधा नाता महंगाई से है.
बार्कलेज़ बैंक के अर्थशास्त्रियों का कहना है कि इससे स्टैगफ्लेशन बढ़ने का ख़तरा है. बार्कलेज़ पहले ही वैश्विक आर्थिक विकास के इस साल के अपने अनुमान में एक फ़ीसदी की कटौती कर चुका है.
स्टैगफ्लेशन वो स्थिति होती है जब महंगाई लगातार बढ़ती है और अर्थव्यवस्था में एक ठहराव-सा आ जाता है, यानी अर्थव्यवस्था का विकास धीमा रहता है और बेरोज़गारी बढ़ जाती है. आप कह सकते हैं कि जब एक ही वक्त में महंगाई बढ़ती है और जीडीपी कम होने लगती है तो उस स्थिति को स्टैगफ्लेशन कहते हैं.
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बढ़ेंगी खाद्यान्न की क़ीमतें
युद्ध का असर खाने के सामान की कीमतों पर भी पड़ सकता है, वो इसलिए क्योंकि रूस और यूक्रेन दोनों ही कृषि उत्पाद के मामले में आगे हैं.
स्टेलेनबॉश यूनवर्सिटी और जेपी मॉर्गन में कृषि अर्थशास्त्र में सीनियर रीसर्चर वेन्डिल शिलोबो के अनुसार दुनिया में गेहूं के उत्पादन का 14 फ़ीसदी रूस और यूक्रेन में होता है, और गेंहू के वैश्विक बाज़ार में 29 फ़ीसदी हिस्सा इन दोनों देशों का है. ये दोनों मुल्क मक्का और सूरजमुखी के तेल के उत्पादन में भी आगे हैं.
यहां से होने वाला निर्यात बाधित हुआ तो इसका असर मध्यपूर्व, अफ़्रीका और तुर्की पर पड़ेगा.
लेबनान, मिस्र और तुर्की गेहूं की अपनी ज़रूरत का बड़ा हिस्सा रूस या फिर यूक्रेन से खरीदते हैं. इनके अलावा सूडान, नाइज़ीरिया, तन्ज़ानिया, अल्ज़ीरिया, कीनिया और दक्षिण अफ्रीका भी अनाज की अपनी ज़रूरतों के लिए इन दोनों देशों पर निर्भर हैं.
दुनिया की बड़ी खाद कंपनियों में से एक यारा के प्रमुख स्वेन टोरे होलसेथर कहते हैं, "मेरे लिए सवाल ये नहीं है कि क्या वैश्विक स्तर पर खाद्य संकट पैदा हो सकता है, मेरे लिए सवाल है ये है कि ये संकट कितना बड़ा होगा."
कच्चे तेल की कीमतों के कारण खाद की कीमतें पहले ही बढ़ गई हैं. खाद के मामले में भी रूस दुनिया के सबसे बड़े निर्यातकों में शुमार है.
होलसेथर ने बीबीसी को बताया, "इस मामले में युद्ध से पहले भी हम मुश्किल स्थिति में हैं. दुनिया की आधी आबादी को अनाज मिल पाने की एक बड़ी वजह है खाद. अगर आप खेती से खाद को हटा देंगे तो कृषि उत्पादन घटकर आधा रह जाएगा."
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बढ़ सकती हैं ब्याज दरें
कैपिटल इकोनॉमिक्स के ग्लोबल इकोनॉमिक्स सर्विस की प्रमुख जेनिफर मैक्कियोन कहती हैं कि ईंधन और खाद्यान्न की बढ़ती कीमतों के कारण कई विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था में महंगाई कम से कम एक फ़ीसदी तक बढ़ेगी.
पहले से ही महंगाई की परेशानी से जूझ रहे केंद्रीय यूरोप और लातिन अमेरिका के कुछ देशों में महंगाई को काबू में रखने के लिए केंद्रीय बैंक ब्याज दरों में बढ़ोतरी करने का रास्ता अपना सकती है.
जेनिफर मैक्कियोन ने बीबीसी से कहा, "ऐसा हुआ तो ये अर्थव्यवस्था पर पड़ रहे बोझ को और बढ़ा देने जैसा होगा."
इस बीच माना जा सकता है कि पूर्वी यूरोप के कुछ हिस्से, जर्मनी, इटली और तुर्की जैसे मुल्क जो रूस से मिलने वाले कच्चे तेल पर काफ़ी हद तक निर्भर हैं, वहां लोगों के लिए चीज़ें पहले से महंगी हो जाएंगी.
कंज़्यूमर डिमांड
मैक्कियोन कहती हैं कि वैश्विक स्तर पर उपभोक्ता की पर्चेज़िंग पावर पर जो असर पड़ेगा उससे एशियाई अर्थव्यवस्थाएं बच नहीं सकेंगी.
वो कहती हैं, "मुझे लगता है कि कंज़्यूमर डिमांड और निर्यात की मांग पर असर पड़ा तो, एशिया पर भी असर पड़ेगा. अगर युद्ध के कारण कच्चे तेल की कीमतें बढ़ गईं और यूरोज़ोन में तेल या खाद्यान्न की मांग कम हुई तो एशिया से होने वाला निर्यात प्रभावित हो सकता है. "
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आगे का कठिन रास्ता
विश्लेषकों का अनुमान है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था इस साल आगे बढ़ती दिखेगी. इसका एक कारण ये है कि कोरोना महमारी के कारण पैदा हुए संकट से उबर रही अर्थव्यवस्थाएं इस साल महामारी के पहले के स्तर तक पहुंचने की कोशिश कर रही हैं.
बेन मे कहते हैं कि सामान्य दौर में लौटना अर्थव्यवस्था के विकास के हिसाब से "अच्छा प्रभाव" होगा.
युद्ध के कारण विकास की गति को लेकर आशंका ज़रूर ज़ाहिर की जा रही है लेकिन इसका असर काफी हद तक इस पर निर्भर करता है कि युद्ध कितने वक्त तक जारी रहता है और चीज़ें कितनी बिगड़ती हैं.
बेन मे कहते हैं, "ये ऐसा नहीं कि इससे ग्लोबल इकोनॉमी के मंदी में जाने का या इस तरह का कोई ख़तरा हो."
हालांकि बेन मानते हैं कि मौजूदा हालात "आम तौर पर अनिश्चितता पैदा करते हैं" और हालात और कितना बिगड़ सकते हैं इसके बारे में अब तक किसी को पुख़्ता तौर पर कुछ नहीं पता."
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