क्या चीन की तरह अमरीका भी इंटरनेट को कंट्रोल करना चाहता है?
आलोचकों का मानना है कि इससे ग्लोबल इंटरनेट के बँटवारे की एक चिंताजनक मुहिम ज़ोर पकड़ सकती है.
अमरीकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो का कहना है कि वे एक साफ़ इंटरनेट चाहते हैं. उनके कहने का मतलब यह है कि वे अमरीका में इंटरनेट पर चीन और चीनी कंपनियों के प्रभाव को ख़त्म करना चाहते हैं.
लेकिन, आलोचकों का मानना है कि इससे ग्लोबल इंटरनेट के बँटवारे की एक चिंताजनक मुहिम ज़ोर पकड़ सकती है.
तथाकथित "स्प्लिंटरनेट" शब्द का आमतौर पर इस्तेमाल चीन और हाल में रूस के बारे में बात करते हुए किया जाता है.
जो सरकारें इस बात पर कंट्रोल करना चाहती हैं कि लोग इंटरनेट पर क्या देखें, उनके लिए इस पर नियंत्रण करने का मतलब समझ में आता है.
चीन की ग्रेट फ़ायरवॉल इस बात का सटीक उदाहरण है कि कैसे कोई देश इंटरनेट को ख़ुद के ईर्द-गिर्द एक दीवार के तौर पर खड़ा कर सकता है. आपको चीन में न तो गूगल सर्च इंजन मिलेगा और न ही फ़ेसबुक.
हालाँकि, लोगों को यह उम्मीद नहीं थी कि अमरीका भी चीन के रास्ते पर चल पड़ेगा.
इसके बावजूद आलोचकों का मानना है कि पॉम्पियो का बयान अमरीका के इसी दिशा में बढ़ने का संकेत देता है.
पॉम्पियो का कहना है कि वे यूएस मोबाइल ऐप स्टोर्स से ग़ैर-भरोसेमंद एप्लिकेशंस को हटाना चाहते हैं.
उन्होंने कहा, "चीन के ऐप्स हमारी निजता के लिए ख़तरा हैं, ये वायरस, प्रॉपेगैंडा और भ्रामक सूचनाएँ फैला रहे हैं." सबसे पहला सवाल दिमाग़ में यह आता है कि पॉम्पियो किन चीनी ऐप्स पर भरोसा करते हैं? इस बात के कयास हैं कि वे किसी भी चीनी ऐप पर भरोसा नहीं करते हैं.
यूनिवर्सिटी ऑफ़ सरे के एक सिक्योरिटी एक्सपर्ट एलन वुडवार्ड कहते हैं, "यह चौंकाने वाली चीज़ है. यह इंटरनेट के बाल्कनीकरण जैसा है."
वे कहते हैं, "अमरीकी सरकार लंबे समय तक इंटरनेट पर कंट्रोल करने के लिए दूसरे देशों की आलोचना करती रही है और अब हम अमरीका को ख़ुद ऐसा करता देख रहे हैं."
यह शायद थोड़ा बढ़ाकर कही गई बात हो सकती है. पॉम्पियो के चीनी कंपनियों से अमरीकी नेटवर्क को मुक्त करने की वजहें इसे नियंत्रित करने की तानाशाह सरकारों की कोशिशों से बिल्कुल अलग हैं.
लेकिन, यह सच है कि अगर पॉम्पियो इस रास्ते पर आगे बढ़ते हैं, तो दशकों पुरानी अमरीकी साइबर-पॉलिसी में बदलाव करना होगा. बोलने की आज़ादी के संवैधानिक अधिकार के साथ फ़्री इंटरनेट देने में अगर कोई देश सबसे ऊपर है, तो वह अमरीका है.
ट्रंप प्रशासन ने हालांकि, एक अलग रास्ता चुना है. इसकी एक वजह अमरीका में कामकाज कर रही कुछ चीनी कंपनियों से जुड़ी सुरक्षा चिंताएँ भी हैं.
टिकटॉक से ज़्यादा चिंताजनक है वीचैट?
फ़ेसबुक के पूर्व चीफ़ सिक्योरिटी ऑफ़िसर एलेक्स स्टैमॉस कहते हैं कि टिकटॉक को लेकर इतनी चिंता ज़ाहिर की जाती है, जबकि ऐसे हज़ारों चीनी ऐप्स हैं.
उन्होंने कहा, "टिकटॉक को मेरे टॉप 10 में भी नहीं है." स्टैमॉस कहते हैं कि अमरीका को टेनसेंट के वीचैट को लेकर ज़्यादा चिंतित होना चाहिए.
वे कहते हैं, "वीचैट दुनिया के सबसे पॉपुलर मैसेजिंग ऐप्स में से एक है. लोग वीचैट पर कंपनियाँ चला रहे हैं. इनमें बेहद संवेदनशील सूचनाएँ होती हैं."
पॉम्पियो ने भी वीचैट को भविष्य के टारगेट के तौर पर बताया है.
इसे नवंबर में होने वाले अमरीकी चुनावों के नज़रिए से न देखना मुश्किल होगा. ट्रंप की चीन-विरोधी मुहिम केवल तकनीक तक सीमित नहीं है.
नीति या तेवर?
तो क्या यह एक पॉलिसी है या यह केवल तेवर के तौर पर देखा जाए? ट्रंप शायद नवंबर में चुनाव हारने की कगार पर भी हो सकते हैं. डेमोक्रैट्स हो सकता है कि चीनी टेक को लेकर उन्हें ज़्यादा उदार नीति रखनी चाहिए.
लेकिन, ट्रंप के अमरीकी इंटरनेट को चीन के दख़ल से मुक्त करने के विजन ने इसे कहीं अधिक बाँट दिया है. सबसे बड़ी विडंबना यह है कि ऐसा हुआ तो इंटरनेट कहीं ज़्यादा चीन के विजन जैसा दिखेगा.
टिकटॉक को ही देखिए. अगर माइक्रोसॉफ्ट इसकी अमरीकी इकाई को ख़रीदता है, तो दुनिया में तीन टिकटॉक हो जाएँगे. एक चीन में टिकटॉक (जिसे डोयिन कहा जाता है.) है. बाक़ी की दुनिया में एक टिकटॉक है और एक यूएस में टिकटॉक हो जाएगा. क्या दुनिया में इंटरनेट का भविष्य ऐसी ही बँटा हुआ होगा?