सुलेमानी को मारकर ईरान को ही फ़ायदा तो नहीं पहुंचा गए डोनल्ड ट्रंप?
ईरान ने बुधवार सुबह दावा किया कि उसने इराक़ के अल असद और इरबिल में मौजूद अमरीकी सैन्य अड्डों पर मिसाइल हमले किए हैं. कुछ देर बाद पेंटागन ने भी इन हमलों की पुष्टि की. न तो ईरान ने हमले में हुए नुक़सान की जानकारी दी है और न अमरीका ने जान-माल की हानि होने की बात कही है. ईरान इस हमले को पिछले हफ़्ते अमरीका के ड्रोन अटैक में
ईरान ने बुधवार सुबह दावा किया कि उसने इराक़ के अल असद और इरबिल में मौजूद अमरीकी सैन्य अड्डों पर मिसाइल हमले किए हैं.
कुछ देर बाद पेंटागन ने भी इन हमलों की पुष्टि की. न तो ईरान ने हमले में हुए नुक़सान की जानकारी दी है और न अमरीका ने जान-माल की हानि होने की बात कही है.
ईरान इस हमले को पिछले हफ़्ते अमरीका के ड्रोन अटैक में अपनी कुद्स फ़ोर्स के प्रमुख सैन्य अधिकारी क़ासिम सुलेमानी की मौत का बदला बता रहा है.
वो सुलेमानी, जिन्हें ईरान में सर्वोच्च धार्मिक नेता आयतुल्लाह अली ख़ामेनेई के बाद दूसरा सबसे ताक़तवर शख़्स माना जाता था. वो सुलेमानी, जिनकी मौत पर पूरा ईरान एकजुट होता नज़र आया.
सुलेमानी की मौत और ईरान के जवाब के बाद अब मध्य पूर्व में हालात और तनावपूर्ण हो गए हैं. ईरान और अमरीका के बीच सीधा युद्ध छिड़ने की आशंका के बीच यह ख़तरा भी मंडराने लगा है कि क्षेत्र में अमरीका के सहयोगी भी इससे प्रभावित होंगे.
इस स्थिति का असर पूरी दुनिया पर पड़ सकता है क्योंकि विश्व की कुल ज़रूरत का एक तिहाई तेल मध्य पूर्व से ही आता है.
क्यों पैदा हुए ये हालात
जब से डोनल्ड ट्रंप अमरीका के राष्ट्रपति बने हैं, तभी से उन्होंने ईरान के ख़िलाफ़ आक्रामक रुख अपना हुआ है. शुरू से वह ज़ोर देते रहे कि ईरान पश्चिमी देशों के साथ नया परमाणु समझौता करे. जब ईरान इसके लिए राज़ी नहीं हुआ तो अमरीका 2015 में हुए इस समझौते से मई 2018 में बाहर निकल गया.
इसके बाद आर्थिक प्रतिबंधों, धमकियों, परोक्ष युद्ध का जो सिलसिला शुरू हुआ था, उसने आज दोनों देशों के साथ-साथ पूरी दुनिया में तनाव पैदा कर दिया है. अमरीका की डेलवेयर यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर मुक्तदर ख़ान बताते हैं कि दोनों देशों के बीच पिछले कुछ समय से एक तरह का युद्ध चल रहा है.
वह बताते हैं, "ये सिलसिला 1979 से शुरू हुआ है. ईरान मिडल ईस्ट को स्थिर करने के लिहाज़ से अमरीका के प्रमुख सहयोगियों में शामिल था. मगर 1979 में ईरान की इस्लामिक क्रांति के बाद अमरीका से उसके रिश्ते बहुत ख़राब हो गए."
वैसे ईरान में अमरीका विरोधी भावना तभी उपज गई थी जब ईरान में अगस्त 1953 में तख़्तापलट हुआ था. मुक्तदर ख़ान बताते हैं, "उस दौरान अमरीका ने चार दिनों के अंदर प्रदर्शन करवाकर चुने हुए प्रधानमंत्री मोहम्मद मुसाद्दिक़ को हटाकर बादशाहियत लागू करवा दी थी यानी लोकतंत्र की जगह राजशाही स्थापित कर दी थी."
लेकिन इसके बाद जब इस्लामिक क्रांति हुई और मोहम्मद रज़ा पहलवी को सत्ता से हटाया गया, उसके बाद से लगातार अमरीका पर ईरान में सत्ता परिवर्तन की कोशिशों को आरोप लगता रहा है.
प्रोफ़ेसर मुक्तदर ख़ान बताते हैं कि इसके अलावा ईरान-इराक़ जंग में अमरीका ने इराक़ का साथ दिया, उससे भी रिश्ते ख़राब हुए. वह कहते हैं, "अमरीका लगातार ईरान की राजनीति और सत्ता को बदलने की कोशिश कर रहा है जबकि ईरान की कोशिश है कि न सिर्फ़ मिडल-ईस्ट में अमरीका के प्रभुत्व को ख़त्म करके बल्कि फलस्तीनी इलाक़ों से इसराइल का नियंत्रण भी ख़त्म करे."
प्रोफ़ेसर मुक्तदर ख़ान बताते हैं कि वहीं से चलता आ रहा यह सिलसिला अब सुलेमानी की मौत तक पहुंच गया है. वह बताते हैं, ''अमरीकी अधिकारियों का अनुमान है कि जनरल सुलेमानी ने इराक़ में 1100 से 1700 के बीच अमरीकियों को मरवाया है. यानी अमरीका और चीन के बीच शीत युद्ध नहीं बल्कि एक गुनगुना युद्ध चल रहा है.''
सुलेमानी की मौत का असर
जनरल क़ासिम सुलेमानी ईरान के लिए कितने अहम थे, इसका पता इस बात से लगाया जा सकता है कि जहां-जहां से उनका जनाज़ा गुज़रा, लाखों की संख्या में लोग जुटे.
मंगलवार को तो उनके पैतृक शहर किरमान में इतने लोग जुटे की भगदड़ में पचास से अधिक लोगों की जान चली गई. अहवाज़ और तेहरान में भी मानो लोगों का समंदर उमड़ आया हो.
तेहरान में रहने वालीं वरिष्ठ पत्रकार ज़हारा ज़ैदी बताती हैं कि सुलेमानी इतने लोकप्रिय थे कि उनके जनाज़े में शामिल भीड़ ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए.
वह कहती हैं, "पूरे देश में उनके लिए अलग तरह की मोहब्बत भी थी और बाहर के देशों में भी लोग उन्हें चाहते थे. इसका कारण क्या था, ये बात या तो वो ख़ुद जानते थे या उनका ख़ुदा जानता है. तेहरान में इतनी भीड़ थी कि सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए. यहां तक कहा जा रहा है कि अयातुल्लाह रुहोल्ला खोमैनी के जनाज़े में जितने लोग रहे होंगे, अगर उससे ज़्यादा लोग सुलेमानी के जनाज़े में नहीं थे तो कम भी नहीं रहे होंगे."
क़ासिम सुलेमानी ईरान के इस्लामिक रेवल्यूशनरी गार्ड्स की जिस कुद्स फोर्स का नेतृत्व करते थे, वह ईरान के मिलिटरी इंटेलिंजेंस से जुड़े काम को संभालती है.
मध्य पूर्व में बढ़ते ईरान के प्रभाव का श्रेय जनरल सुलेमानी और कुद्स फोर्स को ही दिया जाता है. सुलेमानी की मौत से ईरान में ग़म और गुस्से का माहौल तो बेशक़ है, मगर क्या इसे ईरान के लिए बहुत बड़ा झटका कहा जा सकता है?
ईरान ने बेशक़ एक लोकप्रिय शख़्सियत को खोया है, मगर उनके मारे जाने से ईरान को क्या नुक़सान हुआ और अमरीका ने क्या हासिल किया? इस बारे में प्रोफ़ेसर मुक्तदर ख़ान कहते हैं कि सुलेमानी को लेकर अमरीका की रणनीति कुछ अजीब सी लगती है.
वह कहते हैं, "अल क़ायदा के ओसामा बिन लादेन और इस्लामिक स्टेट के अबु बक़र अल-बग़दादी को मारने की कूटनीतिक अहमियत थी जिससे इनके संगठन ही कमज़ोर हो गए. मगर सुलेमानी की मौत से वैसा फ़ायदा नहीं होगा क्योंकि यह एक तरह से वैसी बात है कि वह किसी बीमारी से गुज़र गए हों या समय से पहले रिटायर हो गए हों. उनकी जगह नए जनरल ने ले ली है और हो सकता है वह ईरान के लिए सुलेमानी से बेहतर साबित हो जाएं."
मुक्तदर ख़ान कहते हैं, "सुलेमानी की मौत से ईरान के रेवल्यूशनरी गार्ड्स को धक्का नहीं लगा, उनकी क्षमता में भी फर्क नहीं आया. सुलेमानी कोई राजनेता भी नहीं थे कि उनके न रहने से देश की दिशा नहीं रहेगी. इससे अमरीका को रणनीतिक रूप से कोई फ़ायदा नहीं होगा. उल्टा ईरान को गुस्से और प्रेरणा का ज़रिया दे दिया गया. साथ ही प्रतिबंधों के कारण आर्थिक गड़बड़ियों से ईरान की जनता नाराज़ थी मगर अब वह अपनी सरकार के साथ खड़ी हो गई है. इस नज़रिये से यह समझदारी भरा फ़ैसला नहीं कहा जा सकता."
फिर क्यों उठाया यह क़दम?
जब सुलेमानी पर हमले से ईरान के हथियारों, उसकी क्षमता को नुक़सान नहीं पहुंचा तो फिर अमरीका ने ये क़दम क्यों उठाया? यरूशलम में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार हरेंद्र मिश्रा बताते हैं कि अमरीका ने इस कार्रवाई से अपने अहम सहयोगी देश इसराइल का भरोसा जीता है.
वह कहते हैं, "इसराइल मानता है कि उसके ख़िलाफ़ जितने भी हमले हुए, जो भी साज़िशें हुईं, उनके लिए सुलेमानी ज़िम्मेदार थे. इसराइली सरकार ने सुलेमानी पर हुए हमले का समर्थन किया है. दरअसल इसराइल में पहले ऐसी सोच बन रही थी कि शायद अब अमरीका हमारी सुरक्षा के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार नहीं होगा. मगर इस कार्रवाई के बाद लोगों को लग रहा है कि ईरान के ख़िलाफ़ लड़ाई में इसराइल अब अकेला नहीं है, अमरीका उसके साथ है."
दरअसल इसराइल और फलस्तीन के बीच कभी सीधा संघर्ष नहीं हुआ है मगर ईरान पर हिज्बुल्ला और हमास जैसे उन गुटों का लंबे समय से समर्थन करने के आरोप लगते रहे हैं जो इसराइल को निशाना बनाते हैं.
अमरीका में इस हमले की टाइमिंग पर चर्चा
अमरीका ने कुद्स फोर्स और सुलेमानी को आतंकवादी घोषित किया हुआ था. अमरीका का मानना है कि मध्य पूर्व, खासकर इराक़ में कई अमरीकियों की मौत के लिए सीधे तौर पर सुलेमानी और कुद्स फोर्स ज़िम्मेदार है.
जैसे ही क़ासिम सुलेमानी की मौत की ख़बर आई, अमरीका के रक्षा मंत्रालय ने कहा कि ये क़दम राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के आदेश के बाद उठाया गया.
सुलेमानी को मारने का फ़ैसला करने के पीछे अमरीका में कुछ आंतरिक कारणों पर भी चर्चा हो रही है, जिनमें जल्द होने जा रहे राष्ट्रपति चुनाव और डोनल्ड ट्रंप पर चल रहा महाभियोग भी शामिल है.
प्रोफ़ेसर मुक्तदर ख़ान बताते हैं, "घरेलू मुद्दों को लेकर बात चल रही है कि ट्रंप ने 2015 में 15-20 बार ट्वीट किया था कि ओबामा ईरान से जंग शुरू कर देंगे इलेक्शन जीतने के लिए. अब कहा जा रहा है कि ट्रंप वही लॉजिक इस्तेमाल कर रहे हैं. एक तो इलेक्शन जीतने के लिए और दूसरा इसलिए कि युद्ध होता है तो उस दौरान राष्ट्रपति को शायद न हटाया जाए."
"चर्चा है कि महाभियोग को अजेंडे से हटाने और चुनावों में पुरातनपंथियों का समर्थन हासिल करने के लिए वह ऐसा कर रहे हैं. हालांकि विश्लेषकों का यह भी कहना है कि पिछले तीन-चार महीनों में ईरान की ओर से भी उकसावे वाली कार्रवाइयां हुई हैं. जैसे कि सऊदी रिफ़ाइनरी पर हमला और फिर इराक़ में पिछले हफ़्ते सात अमरीकियों को मारना. सीधे अमरीका से जुड़े लोगों और संपत्तियों पर हमले के जवाब में अमरीका को जब मौक़ा मिला तो उसने सुलेमानी को रास्ते से हटा दिया."
अमरीकी सहयोगियों की आशंका
बुधवार को ईरान ने इराक़ में मौजूद अमरीकी सैन्य ठिकानों को निशाना बनाया तो उसके विदेश मंत्री जवाद ज़रीफ़ ने कहा कि उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के प्रावधानों के अनुसार आत्मरक्षा के अधिकार के तहत यह क़दम उठाया है.
इराक़ के अलावा मध्य पूर्व में अमरीका के अन्य सहयोगी देश, जैसे कि सऊदी अरब और इसराइल पहले ही सावधान हैं. वरिष्ठ पत्रकार हरेंद्र मिश्रा बताते हैं कि इसराइल में इस बात की भी आशंका जताई जा रही है कि ईरान उनके यहां हमला कर सकता है.
वह बताते हैं, "यहां इसराइल में एक दबी हुई खुशी नज़र आ रही है मगर साथ ही डर भी है क्योंकि ईरान ने खुलकर कहा है कि अमरीकी टारगेट्स के साथ इसराइल पर भी हमला कर सकता है और इसमें सक्षम भी है क्योंकि इसराइल ईरान के रॉकेट्स के दायरे में आता है. ऐसे में तैयारी चल रही है कि अगर स्थिति हाथ से निकलती है तो समय पर क़दम उठाए जा सकें."
वरिष्ठ पत्रकार हरेंद्र मिश्रा बताते हैं, "मध्य पूर्व की बात जहां तक है, ईरान की यहां काफ़ी अच्छी पकड़ बन चुकी है. सीरिया में बशर अल असद अगर अब तक कुर्सी पर मौजूद हैं तो रूस और ईरान के कारण. ईरान सुलेमानी के नेतृत्व में सीरिया की मदद करता रहा है. लेबनान में भी उनकी अच्छी पकड़ है. ग़ज़ा पट्टी में हमास को भी ईरान का राजनीतिक और आर्थिक समर्थन मिलता रहा है. वह भी दबाव पड़ने पर इसराइल के ख़िलाफ जंग छेड़ सकता है."
हालांकि विश्लेषकों का मानना है कि ईरान चाहे तो ज़रूर युद्ध का माहौल बिगड़ सकता है और ऐसे संकेत भी मिल रहे हैं. यह भी माना जा रहा है कि ईरान गोपनीय ऑपरेशन भी चलाना चाहेगा क्योंकि उसके हालात ऐसे हैं कि वह आर्थिक स्थिरता न होने के कारण बड़ा क़दम उठाने से बचेगा.
ईरान कैसे लेगा बदला
ईरान के नेतृत्व के ऊपर सुलेमानी की मौत का बदला लेने का भारी दबाव है. लेकिन पहले से ही आर्थिक प्रतिबंधों की मार झेल रहा ईरान इस स्थिति में नहीं है कि वह अमरीका और उसके सहयोगियों से युद्ध में उलझे.
वह अंतरराष्ट्रीय समुदाय की नाराज़गी भी मोल नहीं लेना चाहेगा. फिर, उसके पास विकल्प क्या हैं? अमरीका की डेलवेयर यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर मुक्तदर ख़ान बताते हैं, "ईरान अमरीका के सहयोगी देशों के नागरिक ठिकानों को निशाना नहीं बना सकता. अगर वह ऐसा करता है तो अमरीका का दावा मज़बूत होगा कि ईरान के रेवल्यूशनरी गार्ड्स और अल कुद्स फोर्स आतंकवादी संगठन हैं. इसलिए ईरान सैन्य ठिकानों पर ही हमला करेगा."
ईरान ने ऐसा किया भी. बुधवार कोउसने इराक़ में मौजूद दो सैन्य ठिकानों पर कई बैलिस्टिक मिसाइल दागे. क्या होगा ईरान अगर अमरीका के साथ सीधी लड़ाई करने उतर जाए? प्रोफ़ेसर मुक्तदर ख़ान कहते हैं कि इसमें ईरान की हार होने की संभावनाएं अधिक नज़र आती हैं.
वह बताते हैं, "ईरान को बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है. उसने कुछ साल पहले अमरीका के एक जहाज़ पर हमला किया था तो बदले में अमरीका ने उसकी एक तिहाई नेवल ऐसेट्स तबाह कह दिए थे. ऐसे में ईरान अप्रत्यक्ष हमला कर सकता है. जैसे अल शबाब ने केन्या में हमला किया है जिसमें अमरीकियों की मौत हुई है. यह सेकंड टियर अटैक है."
मुक्तदर ख़ान के अनुसार ईरान तीन तरीकों से अमरीका को निशाना सकता है- पहला तरीका है मध्य पूर्व में मौजूद अमरीकी सैनिकों पर हमला करके, दूसरा तरीका है- अन्य देशों में मौजूद अमरीकी दूतावासों या वहां काम करने वाले अमरीकी कॉन्ट्रैक्टर्स वगैरह को निशाना बनाकर और तीसरा है- अमरीका के सहयोगी देशों के सैन्य ठिकानों को निशाना बनाकर.
ईरान का शीर्ष नेतृत्व बार-बार कह रहा है कि सुलेमानी की मौत का बदला लिया जाएगा. और बदला तभी लिया जा सकता है जब बदले की कार्रवाई करके ज़िम्मेदारी ली जा सके. इसलिए माना जा रहा है कि ईरान अमरीका के सहयोगियों जैसे कि सऊदी अरब के ऐसेट्स को निशाना बना सकता है और कुछ सबूत छोड़ सकता है.
मुक्तदर ख़ान कहते हैं, "जब पिछले दिनों सऊदी अरब की रिफ़ाइनरियों पर हमला हुआ था ईरान ने इतने सबूत छोड़े थे कि अमरीका को पता चल सके कि हमला किसने किया है. तो यह आने वाले चंद महीनों में काफी मुश्किल रहने वाला है. जैसे-जैसे अमरीका में चुनाव के दिन क़रीब आएंगे, ईरान कोशिश करेगा कि अमरीका के ठिकानों पर हमले करके ट्रंप को मुश्किल में डाला जाए."
सऊदी अरब में अरामको की रिफ़ाइनरियों पर हुए हमले की ज़िम्मेदारी हूती विद्रोहियों ने ली थी मगर सऊदी अरब ने ड्रोन के हिस्से दिखाकर ईरान पर आरोप लगाया था.
ईरान का साथ कौन दे सकता है?
ईरान ने पिछले कुछ सालों में अपना प्रभाव बढ़ाया है. लेबनान, इराक़, सीरिया, यमन तक में विद्रोही समूहों और मिलिशिया को वह समर्थन देता रहा है.
इसके अलावा सीरिया में इस्लामिक स्टेट समूह के ख़िलाफ़ सक्रिय रहकर भी उसने तुर्की और रूस जैसे देशों से क़रीबी बढ़ाई है. चीन भी समय-समय पर ईरान का साथ देता रहा है. अगर युद्ध की स्थिति बनी तो क्या ये देश ईरान का साथ दे पाएंगे?
इस सवाल पर मध्य पूर्व मामलों के जानकार वरिष्ठ पत्रकार हरेंद्र मिश्रा कहते हैं, "ये देश समय-समय पर अमरीका के विरोध में मुखर रहे हैं. अगर वे अमरीका विरोधी स्टैंड लेकर एक समूह में आते हैं तो भयावह स्थिति पैदा हो सकता है. हालांकि माना जा रहा है कि ईरान खुद कोई बड़ा क़दम उठाने से संकोच करेगा. इसलिए बहुत से समीक्षकों का मानना है कि ईरान पहले की ही तरह गोपनीय ऑपरेशन चलाता रहेगा."
मध्य पूर्व में कौन ईरान के साथ आएगा, इसे लेकर भी कोई बात निश्चित रूप से नहीं कही जा सकती क्योंकि यहां गुटबाज़ी बहुत है. इनमें कई समूह कई मौक़ों पर एक-दूसरे के ख़िलाफ़ लड़ते हैं तो कई बार एक-दूसरे का साथ भी देते हैं.
सीरिया इसका उदाहरण है जहां पर अमरीका भी इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ लड़ रहा था तो ईरान भी. हरेंद्र मिश्रा मानते हैं कि शायद इसी कारण सुलेमानी बग़दाद में बेफ़िक्र थे. उन्हें उम्मीद नहीं थी कि बग़दाद में उन्हें इस तरह से निशाना बनाया जाएगा.
मगर प्रोफ़ेसर मुक्तदर ख़ान का मानना है कि अमरीका स्थिति मध्य पूर्व में समय के साथ ख़राब हुई है. ईरान के नेता लंबे समय से अमरीका को तबाह कर देने की बातें करते रहे हैं और अमरीका भी ईरान को सबक सिखाने के इरादे जताता रहा है.
जबकि एक समय था जब ईरान, मिडल ईस्ट में अमरीका का सबसे क़रीबी सहयोगी था. लेकिन वक्त के साथ दोनों के रिश्ते इतने ख़राब हो गए कि बात अब खुले युद्ध की होने लगी है और खुलकर हमले भी होने लगे हैं.
मुक्तदर खान बताते हैं कि हालात ऐसे हो गए हैं कि मध्य पूर्व में अमरीका को लेकर जो डर और इज्जत था, वह खत्म हो गए हैं. वह कहते हैं, "जब भी मैं मिडल ईस्ट की सरकार या डिफेंस के लोगों से बात करता हूं यह सुनने में आता है कि अमरीकी बेवकूफ़ हैं. मगर इसराइलियों को लेकर उनके मुंह से मैंने ऐसी बात नहीं. वे इसराइल से डरते हैं और उसकी इज्जत करते हैं. मगर अमरीका को लेकर डर भी ख़त्म है और इज्जत भी. अब कोई भी सोचता है कि वह अमरीका से पंगा से सकता है और उसके लिए परेशानी खड़ी कर सकता है."
पूरी दुनिया चिंतित
ईरान समेत पूरा मध्य पूर्व दुनिया भर के तेल उत्पादन का अहम केंद्र हैं. यहां होने वाली छोटी से छोटी हलचल भी कच्चे तेल की कीमतों में बदलाव ला देती है.
सुलेमानी की मौत और फिर ईरान की जवाबी कार्रवाई का असर भी तेल की कीमतों पर पड़ा. आशंका ये है कि मामला ने तूल पकड़ा तो इसका असर तेल की आपूर्ति पर न पड़ जाए. इसकी आशंका भर से पूरी दुनिया के शेयर बाज़ार तक हिल गए.
पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्ता में तेल का अहम योगदान है. ईरान पर भले ही अमरीकी प्रतिबंध लगे हैं मगर क़ुवैत, इराक़, यूएई और सऊदी अरब जैसे देश हॉमरूज़ जलडमरूमध्य के ज़रिये तेल की आपूर्ति करते हैं.
अगर इस क्षेत्र में तनाव बढ़ा तो यह जलमार्ग बंद हो सकता है या फिर ईरान इसे बंद कर सकता है. इस स्थिति में तेल के जहाज़ों का रास्ता रुक जाएगा और नुक़सान भारत समेत कई देशों को होगा.
इसलिए फ़िलहाल यही उम्मीद की जा रही है कि मध्य पूर्व में पैदा हुए हालात और ख़राब न हों और अमरीका व ईरान के बीच तनाव घटाने का कोई रास्ता निकल आए.