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कोरोना वैक्सीनः क्या मिल गई महामारी से बचाने वाली वैक्सीन?

कई कंपनियों ने दावा किया है कि उनकी वैक्सीन 90 फ़ीसदी तक कारगर साबित हुई हैं लेकिन क्या ये टीके दुनिया से महामारी ख़त्म कर देंगे. दुनिया जहान में पड़ताल.

By टीम बीबीसी हिंदी नई दिल्ली
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बायोएनटेक के सीईओ उगुर साहिन और उनकी पत्नी एवं बोर्ड की सदस्य ओजेस तुएरेसी का कोरोना वायरस वैक्सीन के पीछे बड़ा योगदान है
BIONTECH SE 2020
बायोएनटेक के सीईओ उगुर साहिन और उनकी पत्नी एवं बोर्ड की सदस्य ओजेस तुएरेसी का कोरोना वायरस वैक्सीन के पीछे बड़ा योगदान है

वो सोमवार का दिन था. जर्मनी के माइन्ट्स में करीब 50 बरस की उम्र के दो वैज्ञानिक एक ख़ास ख़बर के इंतज़ार में थे.

इन दोनों ने पूरी ज़िंदगी कैंसर का उपचार खोजने में लगा दी थी. इनके माता-पिता 1960 के दशक में तुर्की से जर्मनी आए थे.

तब ये भी तय नहीं था कि उन्हें जर्मनी की नागरिकता मिलेगी भी या नहीं लेकिन अब उनकी अगली पीढ़ी, यानी इस दंपति की गिनती जर्मनी के सबसे अमीर लोगों में होती है.

ये मुकाम मेडिकल क्षेत्र में इनकी कामयाबियों ने दिलाया है.

तभी, समाचार एजेंसियों ने वो ख़बर प्रसारित की जिसका जश्न ये दोनों एक रात पहले ही मना चुके थे.

दुनिया भर में 14 लाख से ज़्यादा लोगों की जान ले चुके कोरोना वायरस को रोकने के लिए उनकी कंपनी बायोएनटेक ने अमरीकी फर्म फाइज़र के साथ मिलकर जो वैक्सीन तैयार की है, ट्रायल में वो नब्बे फ़ीसद से ज़्यादा कारगर साबित हुई है.

अगले कुछ दिनों में दवा कंपनी मॉडर्ना, एस्ट्राजेनेका और रूस में तैयार हो रही वैक्सीन को लेकर भी ऐसी ही ख़बरें आईं और दुनिया भर में खुशी जाहिर की गई.

2 दिसंबर को ब्रिटेन दुनिया का पहला ऐसा देश बन गया जिसने फ़ाइज़र/बायोएनटेक की कोरोना वायरस वैक्सीन को व्यापक इस्तेमाल के लिए मंज़ूरी दी है.

लेकिन क्या दुनिया को वो वैक्सीन मिल गई है जो कोरोना महामारी को ख़त्म कर सकती है?

अमेरिका के आला हेल्थ पब्लिकेशन स्टाट न्यूज़ की रिपोर्टर हेलेन ब्रांसवेल इस सवाल का जवाब देते हुए कहती हैं कि फाइज़र ने जो टेस्ट किए, उसके नतीजे एक अच्छी ख़बर है. इससे ये जाहिर हुआ कि जिन कई अन्य वैक्सीन पर काम चल रहा है, वो प्रभावी साबित होंगी. वजह ये है कि वो सभी स्पाइक प्रोटीन को ध्यान देते हुए तैयार की जा रही हैं.

हेल्थ प्रॉडक्ट्स
Getty Images
हेल्थ प्रॉडक्ट्स

हेलेन ब्रांसवेल बताती हैं कि स्पाइक प्रोटीन है क्या?

वे बताती हैं, " अगर आपने कोरोना वायरस की तस्वीर देखी हो तो आप इसके ऊपर कुछ उभरा हुआ सा हिस्सा देखते हैं, कुछ कुछ मुकुट जैसा. ये स्पाइक प्रोटीन है, जो वायरस के ऊपर रहता है."

हेलेन कहती हैं, "कुछ लोग ये कह सकते हैं कि वैक्सीन तैयार कर रहे वैज्ञानिकों ने तमाम अंडे एक ही टोकरी में रख दिए. वो कहेंगे कि स्पाइक प्रोटीन को ध्यान में रखते हुए वैक्सीन बनाना ठीक नहीं है लेकिन फाइज़र के नतीजे बताते हैं कि स्पाइक प्रोटीन सही लक्ष्य था."

मॉडर्ना और फाइज़र ने जो टेस्ट किए, उनके नतीजों ने उस तकनीक की कामयाबी के भी संकेत दिए जिसे बरसों से तैयार किया जा रहा था. लेकिन उसे इंसानों पर कभी इस तरह इस्तेमाल नहीं किया गया था.

संक्रमण पर प्रभावी रोक लगाई जा सकेगी?

वैक्सीन की इस प्रक्रिया में जेनेटिक कोडिंग का इस्तेमाल हुआ है.

हेलेन ब्रांसवेल इसे और ज़्यादा स्पष्ट तरीके से समझाती हैं.

उनके मुताबिक, "हमें जिस प्रोटीन की ज़रूरत होती है, उसे तैयार करने के लिए हमारा जिस्म हर वक़्त मैसेंजर आरएनए का इस्तेमाल करता है. वैक्सीन में मौजूद मैसेंजर आरएनए कोशिकाओं को बताता है कि उस प्रोटीन को कैसे तैयार किया जाए. उसके बाद जब आप कोरोना वायरस का मुक़ाबला करते हैं तब आपके इम्यून सिस्टम में वो एंटीबॉडी मौजूद होते हैं जो इसे पहचान कर संक्रमित कोशिका से जुड़ने से रोक देते हैं."

जश्न की तमाम वजहों के बीच अब भी कुछ सवाल बाकी हैं. मसलन वैक्सीन के जरिए हासिल इम्यूनिटी कब तक रहेगी? और क्या इससे संक्रमण पर प्रभावी रोक लगाई जा सकेगी?

हेलेन ब्रांसवेल इस सवाल पर कहती हैं, "आपने हर्ड इम्यूनिटी के बारे में सुना होगा. उम्मीद की जानी चाहिए कि वैक्सीन हमें उस स्थिति में पहुंचा सकती है, जहां तमाम ऐसे लोग होंगे जिनके पास वायरस से मुक़ाबले के लिए प्रतिरक्षा होगी. जिससे वायरस बहुत तेज़ी से नहीं फैले. अगर वैक्सीन संक्रमण नहीं रोक पाती है. तब मुश्किल स्थिति होगी."

ऐसे में हम महामारी के जल्दी ख़त्म होने की कितनी उम्मीद लगा सकते हैं? हेलेन कहती हैं कि विज्ञान में कुछ हासिल करने के लिए वक़्त लगता है. लेकिन इस बीच सरकारें वैक्सीन तैयार करने की योजनाएं ज़ोरदार तरीके से बना रही हैं और अब ऐसा लगता है कि उनके पास चुनने के लिए कई विकल्प मौजूद रहेंगे.

प्रोफ़ेसर अज़रा ग़नी लंदन के इंपीरियल कॉलेज में संक्रामक रोग महामारी विभाग से जुड़ी हैं. वो इस वायरस के फैलने के तरीके पर अध्ययन करती हैं. साथ ही ये जानकारी भी जुटा रही हैं कि महामारी पर काबू पाने के लिए वैक्सीन लोगों के अलग-अलग समूहों तक कैसे पहुंचाई जाएगी.

कोरोना वायरस की वैक्सीन एक साल के भीतर कैसे बनी

प्रोफ़ेसर अज़रा ग़नी कहती हैं, "अभी हमें नहीं पता कि इनमें से कौन सा टीका कारगर होगा. इसलिए अलग तकनीक और तरीके से बनाई गईं कई वैक्सीन होने से ये जोखिम कम हो जाता है कि अगर एक टीका नाकाम हुआ तो क्या होगा. दूसरा फायदा ये है कि हम दुनिया की बहुत बड़ी आबादी को टीका लगाना चाहते हैं. इसके लिए काफी वैक्सीन की जरूरत होगी. कोई एक कंपनी इस मांग को पूरा नहीं कर पाएगी."

जो वैक्सीन तैयार की जा रही हैं, उनका पहला मक़सद कोरोना वायरस को मात देना है. लेकिन प्रोफ़ेसर अज़रा ग़नी की राय है कि इसके जरिए पहले से मौजूद वैक्सीन को और प्रभावी बनाने में भी मदद मिल सकती है.

वो बताती हैं, "मलेरिया की पहली वैक्सीन बनाने में 20 साल लगे. मुझे लगता है कि इस तकनीक का इस्तेमाल करते हुए नई पीढ़ी की मलेरिया वैक्सीन बहुत जल्दी बनाई जा सकती है. ऐसी संक्रामक बीमारियां जो पूरी दुनिया में फैल जाती हैं और कई लोगों की जान लेती हैं, उनमें से कई ग़रीब इलाकों में फैलती हैं और उन पर जितना ध्यान दिया जाना चाहिए, उतना नहीं दिया जाता है."

corona virus, कोरोना वायरस
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corona virus, कोरोना वायरस

वैक्सीन मुल्कों के बीच कैसे बांटी जाएगी?

वो आगे कहती हैं, "मेरी बड़ी चिंता एक ऐसी स्थिति को लेकर है जहां कोरोनावायरस अमीर देशों से ख़त्म हो जाए और ग़रीब देशों के बीच फैलता रहे और तब हम ग़रीब देशों की समस्या के समाधान की बात भुला बैठें."

वैक्सीन जब मुहैया हो जाएगी तब इसे तमाम मुल्कों के बीच कैसे बांटा जाएगा, इसकी रुपरेखा बनाने के लिए प्रयास जारी हैं. लेकिन बीच में कुछ बड़ी बाधाएं भी हैं.

इन बाधाओं को लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन की चीफ़ साइंटिस्ट डॉक्टर सौम्या स्वामीनाथन कहती हैं, "अभी लाखों चीजें की जानी हैं, यही वजह है कि मैं रात को सोती नहीं हूं."

वो कहती हैं, "सबसे बड़ी चुनौती दुनिया के सभी देशों तक एक साथ वैक्सीन पहुंचाना है. साथ ही ये तय करना कि ये देश जरूरतमंद लोगों को वैक्सीन उपलब्ध कराएं."

डॉक्टर सौम्या वैश्विक साझेदारी परियोजना के साथ जुड़ी हैं. इसका नाम है 'कोवैक्स'.

कोरोना वायरस
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ये एक तथ्य है कि अमीर देश अपने यहां की आबादी के लिए वैक्सीन उत्पादन का बड़ा हिस्सा रखना चाहते हैं. कोवैक्स का गठन इसीलिए किया गया है ताकि दुनिया के तमाम देशों को वैक्सीन पारदर्शी तरीके से मुहैया कराई जा सके.

डॉक्टर सौम्या स्वामीनाथन के मुताबिक अब तक 185 से ज़्यादा देश कोवैक्स के साथ जुड़ चुके हैं. ये दुनिया की कुल आबादी के नब्बे फ़ीसद से ज़्यादा की नुमाइंदगी करते हैं.

एक अनुमान है कि साल 2021 के आखिरी तक कोवैक्स के पास वैक्सीन की दो अरब डोज़ होगी. ये खुराक उन लोगों को संरक्षित करने के लिए काफी होंगी जिन पर ख़तरा ज़्यादा है और जो फ्रंटलाइन हेल्थवर्कर हैं.

क्या फ्रंटलाइन कर्मचारियों को सुरक्षित किया जा सकेगा?

डॉक्टर सौम्या स्वामीनाथन बताती हैं, " हमारी आला प्राथमिकता बीमारी से होने वाली मौतों की संख्या कम करने की है. शुरुआत में सभी देशों को उनकी करीब एक फ़ीसदी आबादी को सुरक्षित करने के लिए पर्याप्त वैक्सीन मुहैया कराई जाएंगी. इससे स्वास्थ्यकर्मियों को सुरक्षित किया जा सकेगा."

वे कहती हैं, "ज़्यादातर देशों में तीन फ़ीसद के जरिए सभी फ्रंटलाइन कर्मचारियों को सुरक्षित कर लिया जाएगा. जिन लोगों पर मौत का सबसे ज़्यादा ख़तरा है, उनके टीकाकरण से हम मरने वालों की संख्या घटा सकते हैं. अगर हम अपने फ्रंटलाइन कर्मचारियों को सुरक्षित कर सके तो हमारा स्वास्थ्य तंत्र काम करता रह सकता है. तब हम सामान्य स्थिति की ओर लौट सकते हैं."

वैक्सीन का उत्पादन महंगा और सवाल ये भी है कि ग़रीब देशों को ये वैक्सीन हासिल करने में कोवैक्स से कैसे मदद मिल पाएगी?

कोरोना वायरस
PRATIK CHORGE/HINDUSTAN TIMES VIA GETTY IMAGES
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इस पर डॉक्टर सौम्या स्वामीनाथन कहती हैं,"दुनिया भर के देशों के दो समूह हैं. इनमें से एक स्ववित्त पोषित हैं. जो वैक्सीन के लिए भुगतान करेंगे. दूसरे समूह में बानवे देश हैं जो कुछ भुगतान कर सकते हैं लेकिन वो बाहरी मदद पर निर्भर रहेंगे. उन्हें वैक्सीन मुफ़्त या फिर बहुत कम कीमत पर मिलेगी."

आंकड़ों की बात करें तो सभी देश महामारी से उबर सकें इसके लिए कोवैक्स को 38 अरब डॉलर यानी करीब 28 खरब रुपयों की ज़रूरत होगी. ये बहुत बड़ी रकम है. लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि इस साल वैश्विक अर्थव्यवस्था को हर महीने जितना नुक़सान हुआ है, ये रकम उसकी महज दस फ़ीसदी है.

डॉक्टर सौम्या स्वामीनाथन इसे लेकर कहती हैं,"अगर आप महामारी को देखेंगे तो समझ जाएंगे कि सिर्फ़ अपने देश और अपने लोगों को सुरक्षित कर लेने भर से समस्या का समाधान नहीं होगा. वैश्विक स्तर पर व्यापार, अर्थव्यवस्था और यात्राओं को लेकर रुकावट बनी रहेगी. पूरी दुनिया के हर देश तक वैक्सीन पहुंचे, ये तय करना हर देश के हित में है. नहीं तो सामान्य स्थिति नहीं आ पाएगी."

वो ये दावा भी करती हैं कि कोवैक्स इसलिए बनाया गया है कि ग़रीब मुल्कों को वैक्सीन के लिए लंबा इंतज़ार न करना पड़े.

कोरोना वायरस
ROBIN UTRECHT/SOPA IMAGES/LIGHTROCKET VIA GETTY IM
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मास्क पहनना सबसे बड़ा बचाव

कोवैक्स की कोशिश अपनी जगह है लेकिन अमीर देशों की तैयारी उनके इरादे में बाधा डाल सकती है.

मसलन अमेरिका में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के प्रशासन से जुड़े अधिकारियों ने कोविड वैक्सीन के वितरण की तुलना हवाई जहाज में आपातकालीन स्थिति में बाहर आने वाले ऑक्सीजन के मास्क से की है. विमान में यात्रियों को निर्देश दिया जाता है कि दूसरों की मदद के पहले वो ख़ुद मास्क पहने. इसी तरह हर देश को पहले अपने नागरिकों को वैक्सीन देनी चाहिए.

लेकिन अमेरिका में काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशन्स में ग्लोबल हेल्थ प्रोग्राम के डॉयरेक्टर टॉम बोइकी मानते हैं कि इस तरह की सोच में खामी है.

टॉम बोइकी कहते हैं कि इस सोच में अहम अंतर ये है कि विमान में ऑक्सीजन मास्क सिर्फ़ पहले दर्जे के यात्रियों के लिए ही बाहर नहीं आते हैं. ऐसा होना तबाही की वजह बन सकता है. यही वजह है कि पूरे विमान में एक ही वक्त पर ऑक्सीजन मास्क बाहर आते हैं. विमान में सवार हर व्यक्ति की सुरक्षा तय करने का यही तरीका है. वैक्सीन को लेकर भी यही रूख अपनाया जाना चाहिए.

ये जानकारी सबके पास है कि दुनिया की आबादी का बड़ा हिस्सा कोवैक्स गठबंधन के देशों में है. लेकिन रूस और अमेरिका ने कोवैक्स पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं.

इसे लेकर टॉम कहते हैं कि कोविड-19 संकट में शुरुआत से ही अंतरराष्ट्रीय सहयोग का अभाव रहा है. वो याद दिलाते हैं कि कई देशों ने पीपीई, मास्क और वेंटिलेटर की सप्लाई रोक दी थी.

अब वैक्सीन को लेकर भी यही पैटर्न आजमाया जा रहा है. अभी के मॉडल से दुनिया की पूरी आबादी को 2024 तक वैक्सीन मिल पाएगी. इसलिए ये सवाल अहम हो जाता है कि किसे क्या मिलेगा और कब मिलेगा? कई अमीर देशों ने कोवैक्स गठबंधन के बाहर वैक्सीन की एडवांस बुकिंग करा चुके हैं. उन्होंने दवा कंपनियों से सीधे करार किए हैं.

क्या पहले धनी देशों के लोगों को मिलेगी वैक्सीन?

कुछ मामलों में ऐसे करार के जरिए इस साल और अगले साल के वैक्सीन उत्पादन की हिस्सेदारी को लेकर जोखिम की स्थिति बन गई है. इसका उदाहरण फाइज़र में देखा जा सकता है.

टॉम बोइकी बताते हैं, "अमेरिका और इंग्लैंड उन आठ देशों में शामिल हैं जिन्होंने फ़ाइज़र और वैक्सीन बना रही जर्मनी की कंपनी के साथ बड़े पैमाने पर खरीद के लिए करार किए हैं. मेरे देश अमेरिका ने 10 करोड़ डोज़ खरीदी हैं. साथ ही 50 करोड़ डोज़ और खरीदने का विकल्प भी रखा है. अगर अमेरिका इस विकल्प को आजमाता है तो इसका मतलब ये होगा कि इस वैक्सीन की एक अरब तीस करोड़ डोज में से एक अरब दस करोड़ डोज धनी देशों के पास होगी. इसके बाद इतनी वैक्सीन बचेगी कि वो दुनिया के बाकी 10 करोड़ लोगों को 2021 के आखिर तक मिल सके."

वो आगे कहते हैं, "वैक्सीन और भी हैं लेकिन उन्हें भी रिजर्व करा लिया गया है और ये पता नहीं है कि बाकी दुनिया के लिए उनकी कितनी डोज़ बचेंगी."

आम लोगों तक वैक्सीन पहुंचाने की क्या है तैयारी?

मॉडर्ना और ऑक्सफोर्ड एस्ट्राजेनेका जैसे कुछ वैक्सीन उत्पादकों ने कोवैक्स के साथ करार किया है. अमेरिका की ड्यूक यूनिवर्सिटी के रिसर्च के मुताबिक साढ़े नौ अरब डोज़ रिजर्व कराई जा चुकी हैं और ऐसा करने वाले ज़्यादातर अमीर देश हैं.

कुछ देश अपनी आबादी का कई बार टीकाकरण करने लायक वैक्सीन खरीद रहे हैं. मसलन कनाडा अपनी आबादी का पांच बार टीकाकरण कर सकता है. टॉम की राय है कि इस दिशा में सहयोग की कमी के बड़े नतीजे हो सकते हैं.

वो कहते हैं, "दुनिया भर के सामने मौजूद संकट के वक़्त अगर हम एक वैक्सीन साझा नहीं कर सकते तो वो कौन सी वैश्विक चुनौती है, जिसे लेकर हम सहयोग कर सकते हैं. भविष्य की संभावित महामारियों को रोकने, जलवायु परिवर्तन और परमाणु अप्रसार को लेकर हम कैसे साथ काम कर सकते हैं."

टॉम का कहना है कि वैक्सीन का वितरण निष्पक्ष तरीके से हो, इसमें कोवैक्स की भूमिका अहम रहेगी. लेकिन इसके लिए तीन अहम कारकों के बीच संतुलन होना जरूरी है. ये कारक हैं उपलब्ध संसाधन, धनी देशों से मिलने वाली मदद और अमेरिका का पूरा सहयोग.

इस बीच महामारी के अंत की उम्मीद बुलंद है. वैक्सीन प्रभावी साबित हो रही हैं. उन्हें मंजूरी दिए जाने का काम चल रहा है.

लेकिन, जैसा कि सोम्या स्वामीनाथन कहती हैं, "वैक्सीन का क्लीनिकल ट्रायल पास कर लेना कहानी की शुरुआत भर है. असली चुनौती तब शुरू होगी जब वैक्सीन कंपनियों से निकल तमाम देशों तक पहुंचेगी."

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English summary
Corona Vaccine: Has the Epidemic-protecting vaccine been found?
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