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चीन या अमरीका: कोरोना महामारी से उबरने में दुनिया का हाथ कौन थामेगा?

कोरोना वायरस के कारण दुनिया की अर्थव्यवस्था कई कदम पीछे खिसक गई है, कौन सा देश इसे बाहर निकालने में अहम भूमिका अदा कर सकता है.

By जुबैर अहमद
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अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग
DIMITAR DILKOFF
अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग

आजकल वैज्ञानिकों के बीच एक आम राय बनती हुई दिख रही है कि हम महामारियों के दौर में पहुंच चुके हैं. कुछ महामारियों के नाम लें तो इस समय दुनिया कोरोना, इबोला, और एच1एन1 का सामना कर रही है.

और अर्थशास्त्री भी मानते हैं कि कोरोना वायरस सबसे ज़्यादा ख़तरनाक और प्रभावी वायरस है जिसने वैश्विक अर्थव्यवस्था को चरमराकर रख दिया है. इस वजह से लाखों लोगों एक बार फिर ग़रीबी की स्थिति में पहुंच चुके हैं.

विश्व बैंक के एक फोरकास्ट के अनुसार इस साल वैश्विक अर्थव्यवस्था में 5.2 फीसदी तक सिकुड़ जाएगी और "गिरावट कुछ इस तरह नज़र आएगी जैसे बीते 150 साल में नज़र नहीं आई."

इस रिपोर्ट के मुताबिक़, कोरोना वायरस विकासशील देशों में दशकों से जारी प्रगति को बेकार कर रही है और विकसित दुनिया को रिसेशन में भेज रही. सहयोग और सामूहिक प्रयास कमजोर होते दिख रहे हैं. इसकी जगह पर देश आंतरिक उत्पादन क्षमताओं को मजबूत करके आर्थिक संकट का सामना करने की कोशिश कर रहे हैं.

कुछ विशेषज्ञ ये भी चिंता जता रहे हैं कि वर्तमान दुनिया में जिस वैश्विक राजनीतिक ढांचे में हम जी रहे हैं, वह ध्वस्त होने की कगार पर खड़ा है. इन्हीं चिंताओं से ये सवाल पैदा हुआ है कि कौन-सा देश महामारी से ग्रसित वैश्विक अर्थव्यवस्था का नेतृत्व करके उसे इससे बाहर निकालेग.

विशेषज्ञों के मुताबिक़, इसके ज़्यादा विकल्प मौजूद नहीं हैं. अमरीका और चीन दो ऐसे नाम हैं जो लोगों के ज़हन में सबसे पहले आते हैं. अमरीका दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. भारतीय विश्लेषक मानते हैं कि कोरोना संकट ने एक ऐसी रिक्तता पैदा की है जिसकी वजह से भार वैश्विक आर्थिक उद्धार में एक सीमित भूमिका निभा सकता है.

लेकिन क्या दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अपनी आर्थिक समस्याओं के साथ ऐसी कोई भूमिका निभा पाएगी? यूरोपीय संघ एक मजबूत आर्थिक गुट है लेकिन ब्रेक्सिट ने इसकी सामूहिक नींव हिलाकर रख दी है. ऐसे में सवाल उठता है कि कौन दुनिया का नेतृत्व करने के लिए कितना तैयार है.

अमरीकी अटॉर्नी जनरल विलियम बार
NICHOLAS KAMM
अमरीकी अटॉर्नी जनरल विलियम बार

क्या अमरीका दुनिया का नेतृत्व कर सकता है?

द्वितीय विश्व युद्ध में यूरोप और जापान को उबारने में अमरीका ने एक अहम भूमिका निभाई थी. लेकिन इसकी नंबर वन पोजिशन इस समय संकट में है. कई विशेषज्ञ कहते हैं कि अमरीका ने इस स्थिति को स्वयं न्योता दिया है क्योंकि अमरीका ने बीते कुछ सालों में दुनिया का नेतृत्व करने की अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाना बंद कर दिया है.

लेकिन अर्थशास्त्री विवेक कौल मानते हैं कि राष्ट्रपति ट्रंप का चीन के ख़िलाफ़ ट्रेड वॉर और इस महामारी को लेकर चीन पर आरोप लगाना इस साल नवंबर में होने वाले चुनाव को ध्यान में रखकर अपनाए जा रहे चुनावी हथकंडों से ज़्यादा कुछ नहीं है.

हालांकि, राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपनी 'अमरीका फर्स्ट' नीति के तहत अमरीकी कंपनियों पर दबाव बना रहे हैं कि वे चीन से अपना व्यापार समेट कर अमरीका में व्यापार करें ताकि अमरीका एक मैन्युफेक्चरिंग हब बन सके और लाखों नौकरियां पैदा हो सकें. वहीं, दूसरी ओर उन्होंने अपने देश को विश्व स्वास्थ्य संगठन और जलवायु परिवर्तन से जुड़े समझौतों से बाहर कर लिया है. वह मुक्त व्यापार और भौगोलिकीकरण के आत्म-मुग्ध विरोधी हैं.

आजकल चीन और अमरीका के बीच व्यावसाय फिर से खोलने की चर्चा जारी है. लेकिन असल बात ये है कि अमरीका को चीन की उतनी ही ज़रूरत है जितनी चीन को अमरीका की ज़रूरत है.

विवेक कौल कहते हैं कि चीन और अमरीका के लिए अपने रास्ते अलग करना आने वाले सालों में भी संभव नहीं होगा क्योंकि दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाएं एक दूसरे में काफ़ी गुथी हुई हैं.

वह कहते हैं, "चीन और अमरीका का पूरा संबंध 'क्विड प्रो को' आदान-प्रदान पर टिका हुआ है. चीन अमरीका को उच्च गुणवत्ता का सामान निर्यात करता है जो कि अमरीकी उपभोक्ताओं के लिए मुफ़ीद साबित होता है. वे डॉलर्स में भुगतान करते हैं. ये डॉलर स्थानीय करेंसी में तब्दील होकर पीपल्स बैंक ऑफ़ चाइना में जमा कर दिए जाते हैं. इसके बाद बैंक इस पैसे से अमरीकी बॉन्ड खरीदता है जिससे अमरीकी सरकार बेहद कम ब्याज़ दरों पर पैसा हासिल कर पाती है. ऐसे में अगर आप इस समीकरण में से कोई भी चीज़ निकाल देते हैं तो ये पूरा समीकरण खराब हो जाएगा."

विवेक कौल का दावा अमरीका और चीन के बीच द्विपक्षीय व्यापार के आंकड़ों में सही साबित होता है. अमरीकी वाणिज्य मंत्रालय की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक़ 2018 में अमरीका और चीन के बीच $731.1 अरब का व्यापार हुआ था. इसमें $179 अरब का एक्सपोर्ट था और इम्पोर्ट $557.9 अरब था. और राष्ट्रपति ट्रंप के अमरीकी कंपनियों की चीन पर निर्भरता कम करने के तमाम प्रयासों के बावजूद 2020 के पहले चार महीनों में दोनों देशों की कंपनियों के बीच व्यापार कुछ कम हुआ है. लेकिन इन दोनों मुल्कों के अभी भी दुनिया में सबसे मजबूत व्यापारिक रिश्ते हैं.

राष्ट्रपति ट्रंप भले ही चीन को नियंत्रित करना चाहते हों लेकिन चीन अब अमरीका को पहले जितना भाव नहीं देता है. हाल ही में ट्रंप के एक सहयोगी ने एक लेख के माध्यम से राष्ट्रपति ट्रंप की पहली चीन यात्रा की ओर ध्यान खींचा.

इस लेख में लिखा था, "स्टेट काउंसिल के प्रीमियर ली केकियांग और चीनी सरकार के मुखिया ने अपनी राय कुछ इस तरह रखी कि चीन अपना औद्योगिक और तकनीकी बेस स्थापित कर चुका है, ऐसे में अब चीन को अमरीका की ज़रूरत नहीं है. उन्होंने अनुचित व्यापारिक और आर्थिक गतिविधियों को लेकर अमरीका की चिंताओं को अनदेखा करते हुए संकेत दिया कि भविष्य की वैश्विक अर्थव्यवस्था में अमरीका की भूमिका सिर्फ चीन को कच्चा माल, कृषि से जुड़े उत्पाद, और चीन में बन रहे विश्व स्तर के इंडस्ट्रियल और कंज़्युमर प्रॉडक्ट्स के लिए उर्जा देना रह गई है."

चीन
Getty Images
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चीन में कितनी क्षमता है

कई अमरीकी विशेषज्ञों को लग रहा है कि चीन जल्द ही अमरीका से आगे निकल जाएगा.

कोरोना वायरस के संबंध में चीन में सबसे पहले लॉकडाउन लगा और सबसे पहले लॉकडाउन हट गया. इसके बाद अब चीन का आर्थिक तंत्र एक बार फिर सक्रिय हो चुका है. जबकि अमरीका अभी भी कोरोना वायरस से जूझ रहा है.

दिल्ली के फोर स्कूल ऑफ़ मैनेज़मेंट में चीनी विशेषज्ञ डॉ. फैसल अहमद मानते हैं कि चीन दुनिया को इस आर्थिक संकट से बाहर निकलने में नेतृत्व देगा.

वह कहते हैं, "चीन निश्चित रूप से इस भूमिका को निभाने जा रहा है. चीन एक ऐसा देश है जिसे अमरीका अपना शत्रु और यूरोपीय संघ प्रतिद्वंदी कहता है. लेकिन आईएमएफ़ का अनुमान है कि साल 2021 में चीनी अर्थव्यवस्था 9.2 फीसदी से वृद्धि कर रही होगी."

लेकिन बेंगलुरु में रहने वाले चीनी व्यवसायी जियांगलॉन्ग हू कहते हैं कि चीन में बुद्धिजीवी और व्यावयायिक समुदाय कोविड के बाद की दुनिया में वर्ल्ड ऑर्डर को लेकर काफ़ी चिंतित हैं.

लेकिन चीन के पास अभी चिंतित होने की काफ़ी वजहें हैं क्योंकि वह कोरोना वायरस के प्रसार में अपने कथित योगदान की वजह से अपयश का शिकार हो रहा है.

हू कहते हैं, "कुछ वरिष्ठ कूटनीतिज्ञ ये भी मान रहे हैं कि इस महामारी की वजह से शेष दुनिया चीन को लेकर अविश्वास से भर गई है."

इसी समय पर चीनी सरकार अमरीका और यूरोप में कोरोना वायरस का प्रसार रोकने में कथित अव्यवस्थाओं को देख रहा है. ऐसे में वह अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में अपनी ताकत और आर्थिक क्षमता के आधार पर अपनी भूमिका को बढ़ाने का प्रयास कर रहा है.

वॉशिंगटन में बीबीसी चीनी सेवा के संवाददाता झाओयिन फेंग ने बीते कुछ दिनों में अनुभव किया है कि कुछ दिनों से चीनी दूत और मंत्री चीनी पक्ष रखते हुए सोशल मीडिया पर कुछ ज़्यादा ही आक्रामक हो गए हैं जबकि पहले ऐसा नहीं था.

लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या चीन में नतीजे लाने की क्षमता है? झियानलॉन्ग हू कहते हैं फिलहाल चीन की प्राथमिकता देशों के साथ द्विपक्षीय वित्तीय संबंधों को बेहतर करना है.

वह कहते हैं, "मुझे लगता है कि इस समय प्राथमिकता ये नहीं है कि अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में इसकी भूमिका को बढ़ाकर अमरीका की जगह ली जाए. इसकी जगह चीनी सरकार अमरीकी-चीनी संबंधों को बेहतर बनाना चाहती है. वह अन्य ताकतों जैसे जर्मनी और जापान से भी संबंध बरकरार रखना चाहते हैं. कम शब्दों में कहें तो चीन का उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में अपनी हैसियत का विस्तार करने की जगह अन्य बड़ी ताकतों के साथ द्विपक्षीय व्यावसायिक रिश्ते संतुलित करना है."

चीन
REUTERS/Thomas Peter/Pool
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झाओयिन फेंग कहती हैं कि चीन की इच्छा विश्व का नेतृत्व करने की है लेकिन इसकी अपनी आंतरिक समस्याएं हैं. वो कहती हैं कि यहां व्यापक आर्थिक असमानताएं है, साथ ही गरीबी है और कामगारों की कम पगार भी एक बड़ी समस्या है.

हालांकि डॉ फैसल अहमद इस बात को मानते हैं कि दुनिया की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में चीन महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है.

वो कहते हैं कि "इस वैश्विक महामारी के बाद अर्थव्यव्स्था को तीन स्तरों पर मदद चाहिए होगी, जो चीन आसानी से कर सकता है. ये हैं -

(1) एक मजबूत सप्लाई चेन - बड़े पैमाने पर संचालन और लागत में होने वाले लाभ के कारण कई कंपनियों के चीन से बाहर जाने के बाद भी इस मामले में चीन महत्वपूर्ण बना रहेगा.

(2) इन्फ्रास्ट्रक्चर में तुरंत और बड़े पैमाने पर निवेश - फिलहाल जो स्थिति है उसमें चीन ये करने में इच्छुक है भले ही गरीब देशों में उसकी महत्वाकांक्षी बेल्ट ऐंड रोड परियोजना हो या फिर चीन समर्थित एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इंवेस्टमेंट बैंक के ज़रिए बड़े निवेश में कर्ज के दर मदद करना हो.

(3) आर्टिफ़िशियन इंटेलिजेंस इकोसिस्टम - जिसकी मदद से उत्पादन, हेल्थकेयर और दूसरे क्षेत्रों में लागत कम की जी सके."

चीन विज्ञान, तकनीक पर ध्यान केंद्रित कर और हज़ारों पेटेन्ट और बौद्धिक संपदा अधिकार हासिल कर के दुनिया की नंबर वन अर्थव्यवस्था बनना चाहता है जो कल उसके बहुत काम आ सकती है. किसी दौर में ये सभ अमरीकी अर्थव्यवस्था की ताकत हुआ करती थी.

लेकिन झाओयिन फेंग और झियानलॉन्ग हू मानते हैं कि तकनीक और विज्ञान के मामले में चीन की शक्ति को अधिक कर बताया जाता है.

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NOEL CELIS/AFP via Getty Images
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मिशन 'मेड इन चाइना 2025'

लेकिन आप मानें न मानें राष्ट्रपति शी जिनपिंग की अध्यक्षता में चीन तकनीक और विज्ञान के मामले में खुद को स्वतंत्र शक्ति के रूप में विकसित कर रहा है और 'मेड इन चाइना 2025' के नारे के साथ आगे बढ़ रहा है.

अपने इस उद्देश्य़ को हासिल करने के लिए चीन हाई-टेक कंपनियों को खड़ा कर रहा है और वहां की कई निजी कंपनियां रिसर्च और पेटेन्ट रजिस्ट्रेशन में करोड़ों डॉलर खर्च कर रही हैं. कथित तौर पर वो विदेशी कंपनियों को अपने बड़े मार्केट में अपनी किस्मत आजमानों का मौक़ा तो देता है लेकिन इसके बदले उनकी तकनीक देने के लिए बाध्य करता है. चीन इसे की व्यापार का उचित तरीका मानत है लेकिन अमरीका इसे बोद्धिक संपदा की चोरी. साइबर चोरी और जबरन कराया गया टेक्नोलॉजी ट्रांसफर करार देता है.

अपने इस उद्देश्य़ को हासिल करने के लिए चीन हाई-टेक कंपनियों को खड़ा कर रहा है और वहां की कई निजी कंपनियां रिसर्च और पेटेन्ट रजिस्ट्रेशन में करोड़ों डॉलर खर्च कर रही हैं. कथित तौर पर वो विदेशी कंपनियों को अपने बड़े मार्केट में अपनी किस्मत आजमाने का मौक़ा तो देता है लेकिन इसके बदले उनकी तकनीक देने के लिए बाध्य करता है. चीन इसे व्यापार का उचित तरीका मानता है लेकिन अमरीका इसे बौद्धिक संपदा की चोरी, साइबर चोरी और जबरन कराया गया टेक्नोलॉजी ट्रांसफर करार देता है.

न्यूयॉर्क स्थित विदेशी मामलों की अमरीकी थिंक टैंक काउंसिल ने हाल में कहा था कि चीन के मिशन 'मेड इन चाइना 2025' से अमरीका को दूर रहने की ज़रूरत है.

थिंक टैंक का कहना है कि इस तरह कोशिशों ने "अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को चीनी सामान पर लगने वाले आयात करों को बढ़ाने और चीनी सरकार समर्थिक तकनीकी कंपनियों को ब्लॉक करने के लिए उत्साहित किया है. वहीं दूसरे देशों ने अपने निवेश पर लगाम लगने की कोशिश की है और वो इस पर डिबेट कर रहे हैं कि चीन के व्यवहार को लेकर क्या किया जाए."

फिलहाल तेज़ी से पैर पसारते कोरोना वायरस के कारण चीन पश्चिमी देशों के निशाने पर है और उनकी नाराज़गी झेल रहा है. राष्ट्रपति ट्रंप ने चीन पर कोरोना वायरस से जुड़ी जानकारी छिपाने और इस कारण इसे दुनिया भर में फैलने से न रोकने का आरोप लगाया है. अकेले अमरीका में कोरोना महामारी के कारण एक लाख से अधिक मौतें हो चुकी हैं, लाखों लोगों की नौकरियां गई हैं और यहां की ट्रिलियन डॉलर अर्थव्यवस्था को करारा झटका लगा है.

चीन कोरोना वायरस
EPA/Sebastiao Moreira
चीन कोरोना वायरस

चीन अब तक यही कहता रहा है कि उसने जनवरी 4 को अमरीका को इस वायरस के बारे में जानकारी दे दी थी. लेकिन चीन के सफाई देने के बावजूद कई देश ये मान रहे हैं कि इस घातक वायरस के लिए चीन ही ज़िम्मेदार है.

कई तो इस दावे से इत्तेफाक रखते हैं कि चीन के एक लैब में ये वायरस बनाया गया है. हालांकि वैज्ञानिक इस दावे से इनकार करते हैं लेकिन आम व्यक्ति भी इस दलील में यकीन कर रहा है और चीन को ज़िम्मेदार ठहरा रहा है.

कई ट्रंप समर्थित अमरीकी थिंक टैंक और बुद्धिजीवी चीन को कोरोना वायरस का 'निर्यातक' मान रहे हैं.

एक नामी कंजर्वेटिव पत्रिका नेशनल रिव्यू ने बीते सप्ताह लिखा, "कोविड-19 मेड इन चीन था. ये वायरस चीनी कम्युनिस्ट पार्टी सीपीपी की करतूत थी."

क्या ये भारत के लिए एक मौक़ा है?

कोरोना लॉकडाउन के दौरान भारत की सबसे बड़ी कंपनी रिलायंस जियो में कई विदेशी कंपनियों ने करीब 87,000 करोड़ रूपये का निवेश किया. ये निवेश दो बातें बताते हैं - पहला ये कि भारत अब भी विदेशी निवेशकों का पसंदीदा देश बना हुआ है, दूसरा कोरोना वायरस की महामारी के बाद से दौर में डेजिटल प्लेटफ़ॉर्म और तकनीक ही भारतीय अर्थव्यवस्था को आगे ले कर जाएगी.

विवेक कौल कहते हैं कि इस बात को लेकर भी स्पष्टता नहीं है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लौटा लाने में भारत क्या भूमिका अदा कर सकता है.

हालांकि वो मानते हैं कि भारत कुछ कदम तो उठा ही सकता है, "एक काम जो हम कर सकते हैं और राजनेता भी इस बार में पहले कह चुके हैं कि हम भारतीय कंपनियों को चीन से निकलने के लिए एनकरेज कर सकते हैं, ताकि वो भारत में आकर काम शुरु कर सकें."

वो कहते हैं, "लेकिन लोग ये बात नहीं समझ रहे कि बीते चार सालों से चीन से कंपनियां बाहर जा रही हैं क्योंकि वहां अब लेबर उतना सस्ता नहीं रह गया है. ये कंपनियां बांग्लादेश और वियतनाम का रुख़ कर रही हैं. अगर हमें आने वाले नए दौर में नई भूमिका के बारे में सोचना है तो हमें अपना इंफ्रास्ट्रक्चर मज़बूत करना होगा ताकि कंपनियां यहां काम करने के लिए उत्साहित अनुभव करें. जीडीपी में निवेश गिर रहा है. इससे कारोबिरियों और कंपनियों को ये संदेश जाता है कि भारतीय लोग भी देश में निवेश नहीं कर रहे हैं. ऐसे में आप ये उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि विदेशी कंपनियां यहां निवेश करेंगी."

मोदी
EPA
मोदी

पीएम मोदी ने आत्मनिर्भर भारत का जो नया मंत्र दिया है वो कि विदेशी कंपनियों को बंद करने और स्थानीय कंपनियों को बढ़ावा देने को प्राथमिकता देने की ओर इशारा करता है.

और तो और अमरीका और चीन के बीच जारी विवाद के कारण भी भारत की स्थिति अजीब हो गई है. चीन और अमरीका के साथ भारत का व्यापार करीब 100 अरब डॉलर का है.

चीन भारत का पड़ोसी है जिसके साथ फिलहाल भारत सीमा विवाद में उलझा हुआ है. इस बात की काफी संभावना है कि चीन के ख़िलाफ़ भारत अमरीका से हाथ मिला ले. लेकिन चीन को लेकर भारत की अपनी अलग और स्वतंत्र विदेश नीति है जो जल्द नहीं बदलने वाली.

चीन और भारत के बीच सीमा विवाद पहले भी होते रहे हैं. तो क्या ऐसे में भारत को अपनी सीमाओं पर दीवार खड़ी कर देनी चाहिए? या फिर अपनी स्थिति और स्पष्ट करनी चाहिए?

जानकार कहते हैं कि भारत को सिंगापुर मॉडल अपनाना चाहिए जो दोनों मुल्कों के साथ सौहार्द्यपूर्ण संबंध रखने में सफल हुआ है.

और कौन-कौन कर सकते हैं दुनिया का नेतृत्व?

यूरोपीय संघ वैश्विक सहयोग और सहभागिता में यकीन करने वाला अब तक का सबसे बड़ा आर्थिक और राजनीतिक समूह है. लेकिन ब्रेक्सिट ने इसके सामने नई चुनौतियां खड़ी कर गई हैं.

इसके अलावा अगर इस समूह को कोराना महामारी के निकलने में विश्व का नेतृत्व करने का मौक़ा दिया जाए तो इसके पास न तो ज़रूरी आर्थिक ताकत होगी और न ही राजनीतिक इच्छाशक्ति. अगर जर्मनी और फ्रांस एक साथ आ जाएं तो भी उसके नेता विश्व का नेतृत्व करने की क्षमता रखते हैं और खुद अमरीका भी इस बात से इनकार नहीं कर सकता.

लेकिन वैश्विक अर्थव्यवस्था का नेतृत्व इसे सौंपा जाए इसके लिए इस बात पर भी ग़ौर करना होगा कि हाल के समय में कई मोर्चों पर यह समूह विफल रहा है.

कई देशों का मानना है कि इतने बड़े पैमाने पर हुई तबाही से उबरने के लिए वैश्विक सहभागिता ही सबसे बेहतर रास्ता है.

अर्थशास्त्री विवेक कौल भी इस बात को मानते हैं. वो कहते हैं, "जो सहभागिता बने उसका नेतृत्व अमरीका को ही करना चहिए क्योंकि चीन और दूसरों के मुक़ाबले इसके अब भी कई फायदे हो सकते हैं."

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English summary
China or America: Who will hold the world's hand in recovering from the Corona epidemic
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