ब्लॉग: दबा हुआ दुख निकालने के लिए हमें चाहिए एक बुरी ख़बर
जिस तरह छत, पोषण, भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार और खुशी चाहिए, उसी तरह मेरे अंदर की दया, पीड़ा, शराफ़त और चेतना को भी फलने-फूलने, खुद को दिखाने और बाहर निकालने के लिए एक ट्रेजडी की ज़रूरत है.
ऐसी ट्रेजडी जो मुझे कभी-कभार अंदर से बुरी तरह हिला दे और मुझे ये ख़ुशी मिल सके कि अभी मेरे अंदर की मानवता ज़िंदा है.
एक बुरी ख़बर मेरी ज़रूरत है.
जिस तरह छत, पोषण, भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार और खुशी चाहिए, उसी तरह मेरे अंदर की दया, पीड़ा, शराफ़त और चेतना को भी फलने-फूलने, खुद को दिखाने और बाहर निकालने के लिए एक ट्रेजडी की ज़रूरत है.
ऐसी ट्रेजडी जो मुझे कभी-कभार अंदर से बुरी तरह हिला दे और मुझे ये ख़ुशी मिल सके कि अभी मेरे अंदर की मानवता ज़िंदा है.
एक बुरी ख़बर मेरी ज़रूरत है. मुझे ख़ून में लथपथ एक शव या उसकी तस्वीर या ख़बर चाहिए ताकि मेरे अंदर किसी और वजह से दबा हुआ दुख आंखों के रास्ते आंसू की शक्ल में बाहर निकल सके और मेरी आत्मा कुछ समय के लिए हल्की हो जाए.
मानवता को नंगा कर देती है...
मुझे एक ज़ालिम चाहिए जिससे मैं नफ़रत कर सकूं, एक मज़लूम भी चाहिए जिसे मैं ख़्यालों ही ख़्यालों में गले लगाकर खुद को तसल्ली दे सकूं कि अगर मैं उस वक्त वहां मौजूद होता तो इस मज़लूम पर ऐसा अन्याय नहीं होने देता.
मुझे एक ऐसी दुखद घटना ज़्यादा अच्छी लगती है जो मेरे मोहल्ले, शहर या देश से कहीं दूर घटी हो क्योंकि इसकी निंदा करना, शोर मचाना और इंसाफ़ की दुहाई देना ज़्यादा आसान होता है.
मसलन, कर्ज़ से तंग आकर, पंखे से लटककर, आत्महत्या करने वाले पड़ोस के किसान की लाश मुझे इसलिए पसंद नहीं क्योंकि वो मेरी मानवता को नंगा कर देती है.
भारी दिल के साथ...
लेकिन तुर्की के समुद्री तट पर मुर्दा हालत में औंधे पड़े दो साल के सीरियाई शरणार्थी एलन अल कुर्दी के शव की तस्वीर, मैं खुशी-खुशी, भारी दिल के साथ अपने बच्चों को दिखाकर कह सकता हूं कि मुझे तुमसे कितनी मोहब्बत है.
मुझे तालिबान के हाथों तक़रीबन मर जाने वाली मलाला युसुफज़ई का दुख तो है मगर उतना नहीं जितना इसराइली फ़ौजी को थप्पड़ मारने वाली 16 वर्ष की फ़लस्तीनी बच्ची अह तमीमी पर बंद कमरे में मुक़दमा चलाकर सज़ा मिलने का दुख है.
मुझे धर्म के अपमान के शक में भीड़ के हाथों मरदान यूनिवर्सिटी में मरने वाले मशाल खान की बेगुनाही पर कोई शक नहीं.
लेकिन अगर यही मशाल खान हरियाणा के किसी रेलवे स्टेशन पर हिंदू चरमपंथियों के हाथों मारा जाता तो मेरा दुख दोगुना होकर और आनंद देता.
ऐसे ही किरदार तो चाहिए...
मुझे जम्मू की बकरवाल बच्ची के साथ होने वाले ज़ुल्म पर करोड़ों और लोगों की तरह सदमा है.
मगर इत्मीनान भी है कि चलो ये तो सिर्फ़ उस बच्ची के साथ हुआ, मेरी बच्ची तो महफ़ूज़ है.
मगर हम ऐसे भी तो सोच सकते हैं कि अगर मलाला, एलन अल कुर्दी या अह तमीमी की जगह मेरी बच्ची या बच्चा होता तो?
सब ऐसे सोचना शुर कर दें तो निज़ाम ठीक न होना शुरू हो जाए? ज़ुल्म के लिए धरती तंग न होती चली जाए? मगर ऐसा क्यों सोचें?
हमें अपनी कायरता को सुलाने और फिर दुखी होकर, खुद को पुर-सुकून रखने के लिए ऐसे ही किरदार तो चाहिए...