ब्लॉग: 'एक हिरोइन और विलेन थीं आसमा जहांगीर'
मानवाधिकार कार्यकर्ता आसमा जहांगीर के निधन पर अफ़सोस ज़ाहिर कर रहे हैं वुसअतुल्लाह ख़ान.
पाकिस्तान भारत जितना बड़ा तो नहीं जहां मानवाधिकारों का कम से कम एक रक्षक हो, ऐसे बहुत से वकील हों जो फ़ीस की परवाह किए बग़ैर उनका मुक़दमा लड़ते हों जिनका मुक़दमा लेते वक़्त बाक़ी वकीलों के हाथ जलते हैं.
जैसे चौतरफ़ा मार खाने वाला कोई अल्पसंख्यक, जैसे न्यायालय से अन्याय पाने वाला कोई बदक़िस्मत, जैसे रेप का कोई शिकार, जैसे ज़बरदस्ती की शादी से भागने वाली कोई बच्ची.
भारत के हर राज्य में कम से कम कोई ऐसा बड़े दिलवाला तो होगा जो धान-पान होने के बावजूद अपने ख़र्चे पर किसी तानाशाह के ख़िलाफ़ अदालत का दरावाज़ा खटखटा सके. किसी समुदाय के ख़िलाफ़ संविधान की किसी धारा को चैलेंज करने का हौसला कर सके.
मगर हमारे यहां तो ये सब काम बबांगे दौहल ज़मीन पर ऐढ़ी मारकर करने वाली एक ही शख़्सियत थी, वो भी कल चली गई.
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सच्चा हमदर्द
इस वक़्त तो उसके चले जाने का सोचकर कुछ यूं लग रहा है जैसे किसी अजनबी भीड़ में किसी बच्चे का हाथ किसी मां से छूट जाए.
अब अगला ख़्याल रखने वाला कैसा मिले. कोई सच्चा हमदर्द या हमदर्द के रूप में कोई ठग, क्या मालूम?
ऐसा नहीं है कि हमारे यहां क़ाबिल वकीलों का या राजनीतिक कार्यकर्ताओं का या मानवाधिकारों के उल्लंघन पर आवाज़ उठाने वालों का काल है. मगर अब कोई आसमा जहांगीर नहीं.
बिलकुल ऐसे ही जैसे परिंदे तो लाखों तरह के हैं मगर कोई कोयल जैसा नहीं. गवैये तो हज़ारों हैं पर दिल के पन्ने पर पहला नाम तो लता जी या नूरजहां का ही उभरता है ना.
हीरो वो नहीं होता जिसे सब लोग हीरो समझें. हीरो वो होता है जिसे अगर बहुमत हीरो समझें तो कुछ लोग उसे राक्षस भी समझें.
न्याय अन्याय की जंग
इसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं. अगर जनता की अक्सरियत किसी को देशद्रोही, धरम दुश्मन, हिंदुओं और यहूदियों का एजेंट और सिक्यॉरिटी रिस्क समझ रही हो तो 90 प्रतिशत संभावना है कि इसके पीछे कुछ न कुछ सच्चाई ज़रूर होगी.
लेकिन अगर किसी गुप्तचर संस्था का कोई तनख़्वाहदार मुखबिर, कोई ख़ास धार्मिक गुट, जी हुज़ूर वकीलों का कोई एक टोला, कुछ माथाटेक टाइप नेता जनता के किसी हीरो को विलेन कह रहे हैं तो आंख बंद करके मान लो कि ऐसा विलेन मानवता के हित में कोई न कोई बड़ा या अच्छा काम कर ही रहा होगा.
आसमा जहांगीर ऐसी ही हीरोइन और विलेन का नाम है. दुख तो बेपनाह है. बेचारगी की ठंड उससे भी ज़्यादा लग रही है. पर कोई बात नहीं, न्याय अन्याय की जंग तो चलती रहेगी.
इसी भीड़ में से कोई और आगे आ जाएगा. शायद जल्दी या शायद कुछ देर बाद. दुख की भरपाई भी शायद समय के साथ हो ही जाए.
मगर आसमा जहांगीर का काफ़िला रुकना नहीं चाहिए, भले रफ़्तार कितनी ही धीमी हों.... अब चलता हूं.