बालाकोट: एक साल बाद क्या है मदरसा और लोगों का हाल
एक साल पहले पाकिस्तान के जिस कम आबादी वाले पर्वतीय इलाक़े को भारतीय वायु सेना ने अपना निशाना बनाया था, वह आज भी आम लोगों के लिए बंद है. यह इलाक़ा पूरी तरह से दुर्गम नज़र आता है जिसके चारों ओर एक अदृश्य-सा सुरक्षा घेरा है और एक ख़ुफ़िया ढाल की तैनाती है. यह स्थिति तब है जब इस घटना को एक साल का वक्त गुज़र चुका है.
एक साल पहले पाकिस्तान के जिस कम आबादी वाले पर्वतीय इलाक़े को भारतीय वायु सेना ने अपना निशाना बनाया था, वह आज भी आम लोगों के लिए बंद है.
यह इलाक़ा पूरी तरह से दुर्गम नज़र आता है जिसके चारों ओर एक अदृश्य-सा सुरक्षा घेरा है और एक ख़ुफ़िया ढाल की तैनाती है. यह स्थिति तब है जब इस घटना को एक साल का वक्त गुज़र चुका है.
मौजूदा वक्त में पर्यटन केंद्र बन चुके बालाकोट के नज़दीक मौजूद छोटे से गांव जाबा में एक साल बाद भी कोई बदलाव नहीं हुआ है.
इस हमले में गांव के निवासी नूरां शाह के घर का भी कुछ हिस्सा क्षतिग्रस्त हुआ था. वो घर आज भी वैसा ही नज़र आता है. एक साल बाद भी मिसाइल हमले से बने चार गड्ढों में से दो गड्ढे साफ़ नज़र आते हैं.
बालाकोट रोड पर स्थित जाबा गांव के खेतों के ठीक सामने उस क्षेत्र की शुरुआत होती है जहां भारतीय विमानों ने बम बरसाए थे. यहां बहने वाली एक छोटी नदी को पार करने के बाद कोई कंगार गांव पहुंच सकता है. जाड़े और गर्मियों में ये नदी पानी से भरी रहती है, इसका इस्तेमाल स्थानीय लोग खेती के लिए करते हैं.
लोगों के दिलों में डर
पिछले साल जब हमले के बाद मीडिया के लोग इलाक़े में गए थे तब स्थानीय लोगों ने उनकी पूरी मदद की थी, कैमरे पर सामने आकर घटना के बारे में विस्तार से बताया था. लेकिन हमले के एक साल बाद, यहां की सड़कों से गुज़रते हुए आप लोगों का रवैया बदला हुआ महसूस कर सकते हैं. उनके हाव-भाव से यह ज़ाहिर हो जाता है कि कोई भी आपसे बातचीत करने के लिए तैयार नहीं है.
पिछले साल, कंगार गांव के रास्ते में स्थानीय लोग मदद के लिए तैयार थे लेकिन एक साल बाद जब हम लोग नदी पार करके कंगार पहुंचे तो कोई भी हमसे बात करने को तैयार नहीं हुआ.
एक बुज़ुर्ग शख्स से जब हम लोगों ने एक साल पहले हुई घटना के बारे में पूछा तो उनका जवाब था कि "एक साल गुज़र चुका है, अब आप उसके बारे में ज़्यादा क्या जानना चाहते हैं?"
यह कहने के बाद वो चले गए. इसी तरह से हमने कुछ और लोगों से बातचीत करने की भी कोशिश की लेकिन कोई बातचीत करने के लिए तैयार नहीं हुआ. ये लोग स्पष्ट तौर पर डरे हुए लग रहे थे.
बाज़ार से क़रीब एक घंटे तक चलने के बाद हम कंगार गांव पहुंचे तो अपने-अपने घरों में मौजूद पुरुषों ने हमसे बात करने से इनकार कर दिया.
उन्होंने बताया कि उन्हें इसकी अनुमति नहीं है. अगर वे बात करेंगे तो उनसे इसके बारे में बाद में पूछताछ होगी.
लोगों ने हमें तस्वीरें लेने और वीडियो बनाने से भी रोका और कहा कि इसकी भी इजाज़त नहीं है.
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'हमसे जो कहा गया वही कर रहे हैं'
वहां रहने वाले लोग हमारे सामने ही मोबाइल फ़ोन से कुछ लोगों को कॉल करने लगे. उधर जब किसी ने फ़ोन उठाया तो इन लोगों ने बताया कि मीडिया के लोग आए हुए हैं, इस जगह की तस्वीरें ले रहे हैं और वीडियो बना रहे हैं.
एक स्थानीय शख्स ने अपना फ़ोन हमें देते हुए हमें बात करने को कहा. हमने जब फ़ोन पर बात की तो दूसरी तरफ मौजूद शख़्स ने साफ़-साफ़ कहा कि वह ख़ुफ़िया एजेंसी से हैं. उन्होंने हमें यहां की तस्वीरें लेने और वीडियो बनाने से मना किया.
हमने बताया कि हम प्रतिबंधित क्षेत्र में नहीं हैं. हमने पिछले साल भी यहां आकर रिपोर्ट की थी, तब भी कोई पाबंदी नहीं थी. को फिर एक साल बाद पाबंदी क्यों है?
हमने ये भी सवाल किया कि मीडिया से बात करने के लिए स्थानीय लोगों को क्यों रोका जा रहा है?
इसके बाद उस शख्स ने कहा कि वो थोड़ी देर बाद फिर से हमें फ़ोन करेंगे. पांच से सात मिनट के बाद हमने देखा कि हमारे आस पास जो भी स्थानीय लोग थे वे सब वहां से जाने लगे.
एक स्थानीय शख़्स फ़ोन पर निर्देश ले रहे थे. हमने उनसे अनुरोध किया कि वे हमारे साथ कुछ देर तक रहें.
उन्होंने बताया, "हम लोग काफी ग़रीब है. हमें यहीं रहना है. इसलिए जो हमें कहा गया है हम वही कर रहे हैं."
कंगार गांव में नूरां शाह का घर, उस जगह के बिलकुल निकट है जहां मिसाइल हमला हुआ था. जब हम उनके घर पहुंचे तो हम लोगों को देखने के बाद वे दूर पहाड़ की तरफ जाने लगे.
मैंने उनसे कुछ समय देने का अनुरोध किया तो उन्होंने कहा कि उन्हें घास काटने जाना है. हालांकि उस दिन शुक्रवार था और यहां पर स्थानीय लोग शुक्रवार को कोई काम नहीं करते हैं, छुट्टी के दिन के तौर पर घर पर रहते हैं.
प्रतिबंधित इलाका
नूरां शाह का घर कंगार गांव का आख़िरी घर है. उसके ऊपर केवल पर्वत और जंगल हैं. नूरां शाह के घर के ऊपर जो पर्वतीय इलाका है, उसे थान्ना पर्वत कहते हैं. बताया गया कि इसी पहाड़ी पर मदरसा तालीमुल क़ुरान स्थित है.
नूरां शाह के घर से मदरसा तालीमुल क़ुरान तक जाने के लिए कोई रास्ता नहीं है. लेकिन स्थानीय लोगों के मुताबिक़ आधे घंटे चलने के बाद मदरसा तक पहुंचा जा सकता है. वैसे मदरसे का सामान्य रास्ता जाबा बाज़ार से गुजरने वाले बालाकोट रोड से जाता है. लेकिन किसी को भी किसी रास्ते से वहां जाने की इजाज़त नहीं है.
हमें यह बताया गया कि कोई भी नूरां शाह के घर तक आ सकता है. एक साल पहले भी किसी को इससे आगे जाने की इजाज़त नहीं थी और एक साल भी कोई उस तरफ नहीं जा सकता. किसी को नहीं मालूम है कि वहां चल क्या रहा है.
मदरसा तालीमुल क़ुरान की ओर जाने वाले हर रास्ते, चाहे वह कंगार गांव से या जाबा बाजार से हो, पर एक साल बीतने के बाद भी अघोषित पाबंदी लगी हुई है. कुछ स्थानीय और विदेशी पत्रकारों को न केवल उस तरफ से जाने से रोका गया है बल्कि उनसे मुश्किल सवाल भी पूछे गए हैं.
जब एक पत्रकार ने मदरसे तक जाने की कोशिश की
एक पत्रकार ने बताया कि जब अपनी स्टोरी के लिए वो यहां पहुंचे तो उन्हें केवल नूरां शाह के घर तक जाने की इजाज़त मिली. यहां तक किसी ने उन्हें नहीं रोका.
पत्रकार के मुताबिक, "मैंने नूरां शाह के घर से ऊपर जाने की कोशिश की तो मुझे वहां तक लाने वाले स्थानीय लोगों ने माफी मांगते हुए कहा कि वे इस जगह से आगे नहीं ले जा सकते. इसके बाद मैंने अकेले जाने की कोशिश की. पांच-सात मिनट की चढ़ाई के बाद मुझे लोगों ने रोक दिया और कहा कि अकेले जाना सही नहीं है. यह पर्वतीय और जंगली क्षेत्र है, कुछ भी हो सकता है."
"जिन लोगों ने मुझे रोका उन्होंने ये भी कहा कि मेरी सुरक्षा की वजह से वे मुझे ऊपर नहीं जाने देंगे."
इस पत्रकार के मुताबिक़, "दूसरे दिन मैंने जाबा बाज़ार बालाकोट रोड से होते हुए मदरसा तालीमुल क़ुरान जाने की कोशिश की. तब सादे कपड़ों वाले कुछ लोग मुझे अपने साथ ले गए. उन्होंने मेरे साथ शारीरिक बल प्रयोग तो नहीं किया लेकिन 10-11 घंटे तक सवाल जवाब करते रहे. मेरे पास दफ़्तर से कई फ़ोन आ रहे थे, विदेशी नंबर से भी मेरे कुछ साथी मुझे फ़ोन कर रहे थे. मुझसे न फ़ोन कॉल्स के बारे में भी पूछताछ हुई. मेरे साथियों ने जब बीच बचाव किया तब उन लोगों ने मुझे मेरे दफ़्तर जाने की इजाज़त दी."
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एक अन्य पत्रकार के साथ क्या हुआ?
एक दूसरे पत्रकार ने भी बताया, "मैं भी मदरसा तालीमुल क़ुरान जा रहा था. तब मुझे रोका गया. मेरा लैपटाप, मोबाइल फ़ोन, कैमरा सबकी पूरी छानबीन हुई. कार की भी तलाशी हुई. मुझे अपने साथियों को या दफ़्तर में फ़ोन करने का कोई मौका नहीं दिया गया. कई घंटों की पूछताछ के बाद मुझे वापस भेजा गया."
हालांकि बताया जाता है कि हमले के बाद से ही मदरसा तालीमुल क़ुरान बंद है.
स्थानीय लोगों के मुताबिक़ मदरसा में हमले की रात तक छात्र मौजूद थे और उनकी संख्या तीन सौ से चार सौ के बीच रही होगी.
एक शख़्स के मुताबिक़, "जब हमला हुआ था तब पहला ख़याल यही आया था कि मदरसे में कुछ हुआ है. लेकिन कुछ देर बाद पता चला कि मदरसे के पास बम गिराए गए हैं और उससे (मदरसे को) कोई नुकसान नहीं हुआ था."
वे शख़्स आगे बताते हैं, "सुबह होने पर हम सब कंगार की ओर निकल पड़े. लेकिन वहां बड़ी संख्या में सैन्यबल तैनात थे. उन्होंने हमें आगे बढ़ने से रोक दिया. मीडिया के लोगों के वहां पहुंचने से पहले वे वापस लौट गए और तब फ्रंटीयर पैरामिलिट्री फोर्स के जवान आ गए."
मदरसे में दी जाती थी बाहर के छात्रों को तालीम
एक दूसरे शख़्स ने बताया, "हमें रात में लगा कि मदरसे पर हमला हुआ लेकिन सुबह में मालूम चला कि ऐसा नहीं था. मदरसे को कोई नुकसान नहीं हुआ. सब कुछ बच गया था."
स्थानीय लोगों के मुताबिक़, हमले के बाद से ही मदरसा बंद है. अब वहां कोई नहीं है और न ही वहां कोई गतिविधि होती है. हालांकि कुछ मौकों पर मदरसा से दो शख़्स बाहर निकलते हैं. ये दोनों खुद को मदरसा की देखभाल करने वाले बताते हैं.
ख़ास बात यह है कि इस मदरसे में केवल बाहर के छात्रों को तालीम दी जाती थी. स्थानीय लोगों के मुताबिक़, "हमारे बच्चे कभी इस मदरसे में नहीं गए. हमारे बच्चे स्थानीय मस्जिद के मदरसे में क़ुरान पढ़ते हैं. वह मदरसा केवल उन छात्रों के लिए था जो वहीं हॉस्टल में रहते थे."
यह मदरसा जाबा गांव के धनाह पहाड़ी पर वन विभाग की ज़मीन पर बना हुआ है. जहां पर जंगल घना होने लगता है उसे मासेर रिजर्व फॉरेस्ट कहा जाता है. मासेर रिजर्व फॉरेस्ट को 2015 में इंटरनेशनल प्रोजेक्ट बिलियन ट्री फॉरेस्टेशन प्रोजेक्ट में शामिल किया गया था. इस प्रोजेक्ट का उद्देश्य प्राकृतिक वातावरण और वनों का संरक्षण है.
जिस इलाके में मदरसा स्थित है, वहां लोगों का आना जाना पहले भी बेहद कम रहा है.
क्या है इस मदरसे की कहानी?
स्थानीय लोगों के मुताबिक़ 1980 के दशक में मदरसा स्थापित हुआ था.
पहले इस मदरसे का इस्तेमाल अफ़ग़ानी छात्रों के लिए होता था. 1990 के दशक से मदरसे में अफ़ग़ानी छात्रों की जगह पाकिस्तानी और कश्मीरी छात्रों ने ले ली.
अब प्रतिबंधित किए गए संगठन हरकत-उल-अंसार की स्थापना 1990 की शुरुआत में हुई थी. तब इस मदरसे का प्रशासन हरकत-उल-अंसार के हाथों में ही था.
मौलाना मसूद अजहर तब हरक़त-उल-अंसार की पत्रिका सदा-ए-जिहाद के एडिटर हुआ करते थे. बाद में मौलाना मसूद अज़हर को भारत प्रशासित कश्मीर में गिरफ़्तार कर लिया गया. इसके बाद भारतीय विमान के अपहरण के बाद अजहर को छोड़ा गया था. रिहा होने के बाद पाकिस्तान पहुंचे मौलाना मसूद अज़हर ने संगठन जैश-ए-मोहम्मद का गठन किया (जिसे बाद में प्रतिबंधित कर दिया गया) और तब मदरसा सीधे उनके नियंत्रण में आ गया था.
बीते वर्ष हमले के बाद, बालाकोट रोड पर मदरसा तालीमुल क़ुरान की होर्डिंग भी लगी हुई थी, जिस पर अंतरराष्ट्रीय मीडिया की भी नज़रें गई थीं लेकिन अब ऐसे बोर्ड नज़र नहीं आते हैं.
पर्यटकों का आकर्षण केंद्र
बीते साल हुए हमले के बाद कंगार और जाबा के इलाक़े पर्यटन केंद्र बन गए हैं. पर्यटक नारान, कागहन, बालाकोट और दूसरे इलाकों में आते हैं और यहां ठहरते हैं.
एबटाबाद के खुर्रम ख़ान पिछले साल, अपने परिवार के साथ कंगार इलाके में नारान गए थे. वे बताते हैं कि जहां पर भारतीय वायुसेना ने हमला किया था उस इलाके को उनके बच्चों ने देखा.
वो बताते हैं कि वो उस इलाके में कुछ देर तक ठहरे और कुछ देर इधर उधर भटकते रहे.
बालाकोट के टैक्सी ड्राइवर सरदार फरहान ने बताया कि हमले के बाद बड़ी संख्या में लोग इधर आने लगे थे. जब ऐसे लोगों की संख्या बढ़ने लगी तो हमें स्पष्ट तौर पर कहा गया कि किसी को इस तरफ लेकर ना आएं.
स्थानीय लोगों ने भी हमें बताया कि जब काफी ज़्यादा लोग इस इलाके में आने लगे तो उन्हें कहा गया कि इधर आने वालों की कोई मदद न करे.
इसके बाद से ही स्थानीय लोगों ने पर्यटकों के लिए अपने दरवाज़े बंद कर लिए हैं. लेकिन अभी भी कुछ लोग कौतुहल के चलते यहां पहुंच ही जाते हैं.