नज़रियाः क्या 2018 के चुनाव में पाकिस्तानी कट्टरपंथियों का रहेगा असर?
पाकिस्तान में मजहबी समूहों के प्रति सेना का नरम रवैया एक खुला रहस्य है.
इसी साल पाकिस्तान में आम चुनाव होने हैं और देश में अतिवादी दक्षिणपंथी समूहों को प्रोत्साहित किया जा रहा है. माना जाता है कि राजनीति में नए इस्लामिक ग्रुप के उभार को देश की शक्तिशाली सेना का समर्थन प्राप्त है, जिसका देश के राजनीतिक मामलों पर प्रभाव बरकरार है.
मुस्लिम बहुल पाकिस्तान में इस्लामिक राजनीतिक पार्टी का गठन कोई नयी बात नहीं है और धार्मिक समूहों के प्रति सेना का नरम रवैया भी एक खुला रहस्य है.
हालांकि, मीडिया को शक है कि चुनाव से पहले दक्षिणपंथी धार्मिक समूहों को इस प्रकार आगे बढ़ाने का लक्ष्य चुनी हुई कमजोर सरकार को और कमजोर बनाना है.
पाकिस्तान में चुनी हुई सरकार को सेना के साथ बेहद बारीकी के साथ तालमेल बनाकर चलना होता है, जिसने यहां लंबे वक्त तक शासन किया है और इसे जनता का मजबूत समर्थन प्राप्त है.
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वांछित कट्टरपंथी की राजनीतिक महत्वाकांक्षा
पाकिस्तान के एक प्रभावशाली कट्टरपंथी हाफ़िज़ सईद, जिन पर अमरीका और भारत 2008 के मुंबई हमलों के मास्टरमाइंड होने का आरोप लगाते हैं, कह चुके हैं कि उनका समूह आगामी चुनाव लड़ेगा.
आरोपों को नकारने के बावजूद सईद को जनवरी 2017 में नजरबंद कर दिया गया. बाद में नवंबर में उन्हें छोड़ दिया गया, जिसकी भारत ने आलोचना की. उनकी नज़रबंदी के दौरान सईद के नेतृत्व वाली विवादास्पद जमात-उद-दावा की राजनीतिक शाखा मिल्ली मुस्लिम लीग (एमएमएल) ने चुनाव आयोग में पंजीकरण का दावा किया.
अक्तूबर में चुनाव आयोग ने आंतरिक मंत्रालय के विरोध के बाद एमएमएल के पंजीकरण का आवेदन ठुकरा दिया था. आंतरिक मंत्रालय को आशंका थी कि सियासत में एमएमएल की सीधी एंट्री से राजनीति में हिंसा और चरमपंथ बढ़ सकता है. एमएमएल ने चुनाव आयोग के फ़ैसले को चुनौती दी है.
दिलचस्प है कि एमएमएल से समर्थन प्राप्त याक़ूब शेख ने पिछले साल सितंबर में लाहौर शहर की सीट से नेशनल असेंबली का चुनाव लड़ा था. उस समय स्थानीय मीडिया का कहना था कि शेख़ के बैनरों में हाफ़िज़ सईद की तस्वीरें लगी हैं. इसी तरह, लियाक़त अली ख़ान ने भी पेशावर के एनए-4 सीट का उपचुनाव एमएमल के समर्थन के साथ लड़ा था.
ख़ैर चुनाव तो हुआ, लेकिन उपचुनाव में याक़ूब शेख़ के चौथे नंबर पर रहने से सभी की आंखें खुली की खुली रह गई, क्योंकि परंपरागत रूप से इस सीट को सत्तारूढ़ पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज़ (पीएमएल-एन) का मजबूत गढ़ माना जाता है.
हालांकि इस सीट पर जीत पीएमएल-एन की ही हुई, लेकिन शेख को मिले वोटों को सत्तारूढ़ पार्टी के इस्लामिक वोट बैंक पर सेंध के रूप में देखा गया.
उपचुनाव के बाद सेना के प्रवक्ता मेजर जनरल आसिफ ग़फ़ूर के हवाले से कहा गया, "राजनीति में हिस्सा लेना प्रत्येक पाकिस्तानी का अधिकार है." मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़ रिहा होने के बाद से सईद पाकिस्तान में आज़ाद घूम रहे हैं, रैलियां कर रहे हैं और एमएमएल के चुनाव अभियान का प्रसार कर रहे हैं. इस बीच, अमरीका ने हाफ़िज़ सईद के चुनाव अभियान में उतरने पर चिंता जताई है.
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मंत्री के इस्तीफ़े के पीछे दक्षिणपंथी समूह
एक अन्य दक्षिणपंथी समूह तहरीक ए लब्बैक या रसूल अल्लाह (टीएलवाईआर) भी सियासत में ताल ठोकने को लेकर चर्चा में है.
एमएमएल की तरह, टीएलवाईआर ने भी राष्ट्रीय राजनीति में कदम रखा है और एनए-120 के उपचुनाव में उम्मीद से परे सफलता हासिल कर सुर्खियों में आया है.
टीएलवाईआर ने हाल ही में सरकार विरोधी प्रदर्शन कर दुनियाभर में सुर्खियां बटोरी थी, जब नवंबर में इसने राजधानी इस्लामाबाद में जनजीवन अस्त-व्यस्त कर दिया था. टीएलवाईआर ने केंद्रीय क़ानून मंत्री ज़ाहिद हामिद के इस्तीफ़े के बाद ही अपना आंदोलन ख़त्म किया.
टीएलवाईआर का गठन मुमताज़ क़ादरी को फांसी की सज़ा देने के विरोध में किया गया था. मुमताज़ क़ादरी प्रांतीय गवर्नर सलमान तासीर के अंगरक्षक थे और सलमान के पाकिस्तान के सख्त ईशनिंदा क़ानून का विरोध करने पर क़ादरी ने साल 2011 में उनकी हत्या कर दी थी.
क़ादरी को साल 2016 में फांसी दे दी गई थी और टीएलवाईआर ने उन्हें जनता के सामने नायक के रूप में पेश किया. टीएलवाईआर का नेतृत्व कर रहे ख़ादिम हुसैन रिजवी चुनावी अखाड़े में कूदे, जब उनकी पार्टी तहरीक ए लब्बैक को चुनाव आयोग ने मान्यता प्रदान की.
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मुख्य धारा में चरमपंथी समूह
पाकिस्तानी मीडिया इस बात पर बहस कर रहा है कि क्या इस्लामिक पार्टियों का उभरना चरमपंथी समूहों को मुख्यधारा में शामिल करने की चोरी-छिपी रणनीति का हिस्सा है? मीडिया का कहना है कि चरमपंथी समूहों से निपटने के मामले में नागरिक और सैन्य नेतृत्व का नज़रिया अलग-अलग है.
एमएमएल समर्थित उम्मीदवारों के उपचुनाव में अच्छे वोट हासिल करने के बाद 'मुख्यधारा जिहाद' और 'चरमपंथियों को मुख्यधारा में लाना' जैसे शब्द उर्दू और अंग्रेजी मीडिया की ज़बान पर चढ़ चुके हैं.
डॉन में छपे एक संपादकीय के मुताबिक, "लोकतंत्र खुली प्रक्रिया है और विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं को साथ लेकर चलती है. लेकिन ये खुलापन उन समूहों के लिए नहीं होना चाहिए जो इसका इस्तेमाल क़ानून के राज को तहस-नहस करने में करना चाहते हैं. उन आतंकवादियों के लिए एक स्पष्ट नीति होनी चाहिए जो आतंकवाद छोड़ने को तैयार हैं, लेकिन उन्हें गुपचुप तरीके से लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल होने देना सही नहीं हो सकता."
आगे क्या?
इस्लामिक दलों का राजनीतिक पुनरुत्थान ऐसे समय हुआ है, जब कुछ महीनों पहले तक सत्तारूढ़ पार्टी को 2018 के आम चुनावों में जीत का दावेदार माना जा रहा था.
पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ को प्रधानमंत्री पद के अयोग्य घोषित करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद पीएमएल-एन अपना संतुलन साधने के लिए संघर्ष कर रही है. ठीक उसी समय, पाकिस्तानी मीडिया में ऐसी भी ख़बरें आ रही हैं कि पीएमएल-एन में आंतरिक कलह ज़ोर पकड़ रहा है.
हालाँकि नवाज़ शरीफ़ अब भी पाकिस्तान में लोकप्रिय नेता बने हुए हैं और पीएमएल-एन का वोट बैंक भी मजबूत है, लेकिन मजहबी पार्टियों के मजबूत होकर उभरने और उनके पीएमएल-एन जैसी मुख्यधारा की पार्टियों के इस्लामिक वोटों में सेंध लगाने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता.
चुनावी साल में दक्षिणपंथी समूहों के एक के बाद एक प्रदर्शनों का आह्वान और रैलियां करने से सरकार पर दबाव जारी है. लेकिन एक बात लगभग निश्चित है कि सरकार अलोकप्रिय फैसले करने से बचना चाहती है, क्योंकि अभी तो वह अपना कार्यकाल पूरा करने के लिए ही संघर्ष कर रही है.
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