नज़रिया: क्या ट्रंप ने भारत और चीन की अहमियत बढ़ा दी?
डोनल्ड ट्रंप की 'अमरीका फर्स्ट' नीति से चीन, जर्मनी और भारत के पास चौधरी बनने का मौक़ा?
एक साल पहले अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव में जीत हासिल कर डोनल्ड ट्रंप ने सबको हैरान कर दिया था.
उनके समर्थकों ने इस जीत का श्रेय उनकी 'अमरीका फर्स्ट' नीति को भी दिया था. ट्रंप ने 'अमरीका फर्स्ट' नीति को नारे की तरह इस्तेमाल किया है.
उन्होंने इसके तहत सुरक्षा, अमरीकी हितों और अमरीकी नागरिकों की चिंताओं को प्राथमिकता देने का वादा किया है.
इसी नीति के तहत राष्ट्रीय सुरक्षा, अर्थव्यवस्था में गति, सैन्य ताक़त में बढ़ोतरी, सीमा सुरक्षा और संप्रभुता की रक्षा जैसे वादे किए गए हैं.
राष्ट्रपति ट्रंप का ज़ोर रहा है कि अमरीका और अमरीकी नागरिकों के हितों से कोई समझौता नहीं किया जाएगा. हालांकि ट्रंप के रणनीतिक बयानों और अवधारणाओं में विरोधाभास साफ़ दिखता है.
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अमरीकी नीति में विरोधाभास
दूसरे विश्व युद्ध ख़त्म होने के बाद से अमरीका ने दुनिया से अलग-थलग रहने की नीति को त्याग दिया था. अमरीका तब से वैश्विक संपर्क बढ़ाने और वैश्विक शांति को लेकर काफ़ी मुखर रहा है.
ये दोनों चीज़ें अमरीकी नीति में प्राथमिकता के तौर पर रही हैं. दूसरे विश्व युद्ध के बाद वैश्विक संस्थाओं का निर्माण हुआ और उनमें व्यापक पैमाने पर निवेश भी हुए.
संयुक्त राष्ट्र और विश्व बैंक जैसी संस्थाओं को अमरीकी वैश्विक दृष्टिकोण के सबूत के तौर पर भी देख सकते हैं. अमरीका दुनिया के नेतृत्व का भी दावा करता है और दूसरी तरफ़ 'अमरीका फर्स्ट' नीति की वक़ालत भी कर रहा है.
दोनों बातें एक साथ संभव नहीं हैं. ऐसे में हम ट्रंप की इस नीति में विरोधाभासों को साफ़ तौर पर महसूस कर सकते हैं.
यह हैरान करने वाली बात है कि कोई देश वैश्विक घटनाक्रमों की उपेक्षा कर दुनिया का दारोगा बनने का दावा कैसे कर सकता है?
हाल के दिनों में अमरीका कई वैश्विक मसलों अलग-थलग दिखा है. ट्रंप ने अचानक से यरूशलम को इसराइल की राजधानी के रूप में मान्यता दे दी, लेकिन संयुक्त राष्ट्र की आम सभा में इस मसले पर हुए मतदान में अमरीका बुरी तरह से अलग-थलग हो गया.
लंबी अवधि में अमरीका को नुक़सान
'अमरीका फर्स्ट' नीति के तहत वैश्विक आर्थिक प्रतिबद्धताओं से जुड़े फंडों में कटौती की वजह से उसे तात्कालिक फ़ायदा मिल सकता है. लेकिन लंबी अवधि के लिए उसे नुक़सान उठाना पड़ सकता है.
अमरीका इस नीति साथ दुनिया की अगुआई नहीं कर सकता है. मिसाल के तौर पर पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते को हम देख सकते हैं.
अमरीका यहां भी ट्रंप के कारण अलग-थलग हो गया है. इस सदी में जलवायु परिवर्तन को सबसे महत्वपूर्ण वैश्विक मसलों के रूप में देखा जा रहा है.
पेरिस समझौते से अमरीका ने ख़ुद को अलग कर लिया है. अमरीका के अलग होने के बाद से फ़्रांस और चीन इस मामले में दुनिया की अगुआई कर रहे हैं.
आधी सदी से ज़्यादा वक़्त से दुनिया अमरीकी नेतृत्व और दिशा पर भरोसा करती आई है. अब अमरीका को लग रहा है कि उसे बाक़ी दुनिया से मुंह मोड़ अपनी चिंताओं पर ध्यान देना चाहिए.
ऐसे में दुनिया एक नए नेतृत्व की तरफ़ देख रही है. यूरोपीय देश पहले से ही जर्मनी की चांसलर एंगेला मर्केल के नेतृत्व के साथ दिख रहे हैं. जर्मनी मुक्त दुनिया के नेता के तौर पर उभरा जिस पर अमरीका का एकाधिकार हुआ करता था.
अमरीका के बाद दुनिया की अगुआई कौन करेगा?
अक्टूबर 2017 में प्रसिद्ध मैगज़ीन 'द इकनॉमिस्ट' ने चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग को दुनिया का सबसे ताक़तवर नेता क़रार दिया था. इन घटनाक्रमों से हम समझ सकते हैं कि दुनिया के नेतृत्व के मामले में अमरीका कहां जा रहा है.
अब दुनिया की अगुआई जर्मनी करेगा या चीन या अब भी अमरीका ही है?
इसे म्यांमार में एक नरसंहार का सामना किए रोहिंग्याओं से पूछिए. ये सीमा पर ख़ुद को सुरक्षित निकाले जाने को लेकर चीनी या जर्मन नौसैनिकों इंतजार कर रहे थे?
राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा यरूशलम को लेकर दशकों पुरानी नीति छोड़े जाने के बाद फ़लस्तीनी जर्मनी की तरफ़ भागते दिखे या चीन की तरफ़? इन सवालों का जवाब नहीं और नहीं है.
जिन इलाक़ों में अमरीका दिलचस्पी कम दिखा रहा है या वो नकारात्मक है, वहां ज़्यादातर पर्यवेक्षक और नेता दूसरे देशों की तरफ़ देख रहे हैं. लोगों को लगता है कि अमरीका फर्स्ट नीति के कारण इन इलाक़ों में एक किस्म की शून्यता आई है.
नवंबर 2017 में मलेशिया में मुझे पूर्वी एशियाई देशों के राजनयिकों से बातचीत करने का मौक़ा मिला था. यहां मुझे यह काफ़ी दिलचस्प लगा कि लोग कैसे अमरीका की अहमियत को रेखांकित करते हुए चीन या आसियान समेत क्षेत्रीय अंतरराष्ट्रीय संगठनों की तरफ़ उम्मीद भरी निगाहों से देख रहे थे.
मुझे एक वैश्विक पैटर्न बनने को लेकर संदेह है. अमरीका दूसरे देशों और उनकी समस्याओं को लेकर बिल्कुल उदासीन दिख रहा है. ऐसे में ये देश क्षेत्रीय संगठनों जैसे आसियान, अफ़्रीकी यूनियन और यूरोपीय यूनियन या क्षेत्रीय नेताओं जैसे चीन, जर्मनी और शायद भारत की तरफ़ देख रहे हैं.
किसी भी एक देश में आर्थिक या सैन्य क्षमता नहीं है कि वो अमरीका की जगह ले ले. हालांकि ये संभव है कि वैश्विक समाज का बंटवारा क्षेत्रीय समूहों में हो जाए और क्षेत्रीय गोलबंदियों के हिसाब से सुरक्षा और आर्थिक सहयोग को बढ़ावा मिले.
चीन के पास कितनी ताक़त?
चीन के पास उस तरह की सैन्य शक्ति नहीं है कि वो पृथ्वी पर कहीं भी अपनी ताक़त का प्रदर्शन कर सके. ऐसे में वो सीमित दायरे में दुनिया का नेतृत्व कर सकता है.
चीन की अर्थव्यवस्था काफ़ी मजबूत है क्योंकि वो वैश्विक स्तर पर अमरीका की तरह दशकों से संसाधनों को खर्च नहीं कर रहा है. क्या चीन की अर्थव्यवस्था विश्व की दशा और दिशा को संतुलित करने का भार उठा सकती है?
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अगर चीन दुनिया की अगुआई की तरफ़ क़दम बढ़ाता है तो अमरीका को उसके स्वार्थों के साथ नियंत्रित कर सकता है? एक बार फिर से मेरे जवाब हैं नहीं और नहीं.
अमरीका अब भी एक बेहतर विकल्प है. अमरीका को ख़ुद को समेटने और अलग-थलग होने के बजाय दुनिया को साथ लेकर चलना चाहिए. अमरीका फर्स्ट एक चुनावी नारा था न कि कोई एक सदाबहार रणनीति है.
मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूं कि अमरीका ने जिस ज़िम्मेदारी से इस्लामिक स्टेट और उत्तर कोरिया की चुनौतियों का सामना किया है उसी तरह वो अन्य वैश्विक मामलों में अपनी भूमिका अदा करेगा.