आर्कटिक में जाग सकते हैं हजारों सालों से सोए घातक बैक्टीरिया-वायरस, दुनिया में ला सकते हैं तबाही
आर्कटिक में बर्फ के अंदर सदियों से सोए बैक्टीरिया और वायरस एक बार फिर से एक्टिव हो सकते हैं और पिघलते बर्फ के साथ इंसानों के बीच पहुंचकर तबाही ला सकते हैं।
नई दिल्ली, अक्टूबर 26: इंसानों ने प्रकृति को जितना नुकसान पहुंचाया है, अब धीरे धीरे उसकी सजा भुगतने का समय आ रहा है। पिछले कुछ सालों से जलवायु परिवर्तन के कारण दुनियाभर में चरम घटनाएं हो रही हैं और अब वैज्ञानिकों ने सनसनीखेज रिपोर्ट देते हुए कहा है कि, आर्किटिक में बर्फ पिघलने की वजह से जानलेवा वायरस और बैक्टीरिया इंसानों की आबादी में आ सकते हैं, जो इंसानों के लिए काफी खतरनाक साबित हो सकता है।
बैक्टीरिया और वायरस का खतरा
वैज्ञानिकों ने रिसर्च के आधार पर कहा है कि, जलवायु परिवर्तन की वजह से आर्कटिक के बर्फ में हजारों साल से दबे और छिपे हुए बैक्टीरिया और वायरस के बहकर इंसानों के बीच आने की आशंका है। ये बैक्टीरिया और वायपस इंसानी शरीर के प्रतिरोधक क्षमता से काफी ताकतवर हो सकते हैं, जिसका जानलेवा प्रभाव इंसानों पर पड़ने की आशंका है। वैज्ञानिकों ने कहा है कि, जलवायु परिवर्तन की वजह से आर्किटिक में पर्माफ्रॉस्ट भी पिघल रहा है और उसमें सदियों से वायरस और बैक्टीरिया छिपे हुए हैं, जो इंसानी आबाजी में उजागर हो सकते हैं। आपको बता दें कि, पर्माफ्रोस्ट धरती का वो हिस्सा होता है, जो कम से कम दो सालों से ज्यादावक्त से पानी के जमने वाली तापमान से काफी कम तापमान पर धरती के नीचे मौजूद रहता है। हालांकि, ये काफी ज्यादा सख्त होता है, लेकिन तापमान बढ़ने की वजह से ये धीरे धीरे पिघलने लगता है।
रासायनिक कचरा भी है मौजूद
वैज्ञानिकों ने कहा है कि, तेजी से पिघलने वाले पर्माफ्रॉस्ट से शीत युद्ध के परमाणु रिएक्टरों और पनडुब्बियों से रेडियोएक्टिव कचरा भी पिघलकर बह सकता है। आपको बता दें कि, स्थायी रूप से जमी हुई भूमि (पर्माफ्रॉस्ट) उत्तरी गोलार्ध में लगभग 23 मिलियन वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र को कवर करती है, जो 10 लाख वर्ष तक पुरानी है। इस क्षेत्र में सहस्राब्दियों से रासायनिक कपाउंड्स की एक विविध श्रेणी है, चाहे वह प्राकृतिक प्रक्रियाओं, दुर्घटनाओं या रोगाणुओं के अलावा जानबूझकर भंडारण के माध्यम से आया हो।
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रेडियोएक्टिव कचरा फैलने की आशंका
एक नये अध्ययन से पता चला है कि, वायरस और एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया आर्कटिक से पिघल कर वातावरण के संपर्क में आ सकता है। तेजी से पिघलने वाले पर्माफ्रॉस्ट में अमेरिका-रूस के बीच चले शीत युद्ध के दौरान परमाणु रिएक्टरों और पनडुब्बियों से निकलकर जो रेडियोएक्टिव कचरा आर्कटिक में बर्फ के अंदर जम गया है, वो भी पिघलकर समुद्र और नदियों में आ सकता है। ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के कारण जैसे-जैसे हमारी धरती गर्म होती जा रही है, आर्कटिक दुनिया भर के अन्य स्थानों की तुलना में तेजी से गर्म हो रहा है। और यह अनुमान लगाया गया है कि, साल 2100 तक दो-तिहाई पर्माफ्रॉस्ट नष्ट हो सकता है। जलवायु परिवर्तन की वजह से आर्कटिक ग्रीन हाउस गैस और ऐसे वायरस बैक्टीरिया के निकलने का बहुत बड़ा ठिकाना बन सकता है।
इंसानों के लिए होगा जानलेवा
नेचर क्लाइमेट चेंज नामक पत्रिका में प्रकाशित रिसर्च के अनुसार, पर्माफ्रॉस्ट के गायब होने से सिर्फ एक ही खतरा नहीं है, बल्कि इसके नुकसान इंसानी सोच से कहीं ज्यादा हो सकते हैं। इस घटना में बैक्टीरिया, अज्ञात वायरस, परमाणु अपशिष्ट और विकिरण, और घातक रसायन भी बहने की संभावना है। इस रिसर्च को लिखने वाले प्रमुख वैज्ञानिक कागज ने कहा कि, ''आर्कटिक क्रायोस्फीयर ढह रहा है, जिससे काफी ज्यादा पर्यावरणीय जोखिम पैदा हो रहे हैं। विशेष रूप से, पर्माफ्रॉस्ट पिघलने से जैविक, रासायनिक और रेडियोधर्मी पदार्थों के बाहर निकलने की खतरनाक आशंका है, जो सैकड़ों हजारों सालों से बर्फ में दबे हुए हैं।" उन्होंने कहा कि, उन बैक्टीरिया और वायरस में पारिस्थितिकी तंत्र के कार्य को बाधित करने, अद्वितीय रूप से आर्कटिक में मौजूद वन्यजीवों की आबादी को कम करने और मानव स्वास्थ्य को खतरे में डालने की संभावना है।
आर्कटिक में मौजूद हैं सूक्ष्मजीव
आर्कटिक से आने वाली खतरे के इस अलार्म को लेकर ESANasa ने रिपोर्ट दी है। जिसके मुताबिक, तीन मीटर से ज्यादा की गहराई पर मौजूद पर्माफ्रॉस्ट, पृथ्वी पर उन कुछ वातावरणों में से एक है, जहा मौजूद बैक्टीरिया और वायरस से बीमार पड़ने वाले मरीजों का इलाज करने की क्षमता आधुनिक एंटीबायोटिक दवाओं में नहीं है। साइबेरिया के गहरे पर्माफ्रॉस्ट में 100 से ज्यादा अलग अलग प्रकार के सूक्ष्मजीव पाए गए हैं, जिनपर एंटीबायोटिक पूरी तरह से बेअसर है। ऐसे में बर्फ के पिघलने से सबसे बड़ा खतरा ये है कि ये बैक्टीरिया और वायरस भी पानी में मिल जाएंगे और फिर ऐसे स्ट्रेन का निर्माण कर सकते हैं, जिनका कोई इलाज ही मौजूद नहीं है।
पर्माफ्रॉस्ट को बर्बाद कर रहे इंसान
रिपोर्ट में कहा गया है कि, पिछले 70 सालों में एक हजार से ज्यादा इंसानी बस्तियां, सैन्य योजनाएं, वैज्ञानिक परियोजनाएं पर्माफ्रॉस्ट पर बनाई गई हैं, जिनकी वजह से पर्माफ्रॉस्ट के प्रदूषित होने और तेजी से पिघलने की आशंका काफी ज्यादा बढ़ चुकी है। इस रिसर्च में इस तरह के प्राकृतिक तनाव का सामना करने के लिए आर्कटिक की क्षमता पर भी चिंता जताता है। शोध पत्र में कहा गया है, "हम काफी तेजी से ऐसा काम कर रहे हैं, जिससे प्रकृति को गहरा नुकसान पहुंच रहा है, जिनकी वजह से इंसान काफी गंभीर जोखिम में फंस सकता है।
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