Analysis: अमेरिका ने कैसे इस्लामिक देशों को बर्बाद किया?
अमेरिका और सोवियत संघ कई स्तर पर कोल्ड वार में शामिल थे और इसका एक प्रमुख मैदान क्रूड ऑयल बन गया और अमेरिका ने सोवियत संघ के मुकाबले इस दिशा में तेजी से कदम उठाना शुरू कर दिया।
नई दिल्ली, सितंबर 11: द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से ही अमेरिका ने अपनी विदेश नीति में अपनी सेना को सबसे अहम हिस्सा बनाकर रखा है। लेकिन, गुप्त ऑपरेशंस हों या फिर सीधी लड़ाई, इस्लामिक देशों का नाम सबसे अमेरिका की लिस्ट में सबसे ऊपर ही दिखता रहता है। आज का अमेरिका, जो इंडो-पैसिफिक, भारत और चीन के इर्द-गिर्द घूमता रहता है, असल में कुछ साल पहले तक ऐसा बिल्कुल नहीं था। असल में कुछ साल पहले तक अमेरिका की विदेश नीति के सबसे आखिरी पन्ने पर कहीं भारत का नाम हुआ करता था और ये वो वक्त था, जब अमेरिका की विदेश नीति पूरी तरह से इस्लामिक देशों पर ही केन्द्रित थी, जिसमें ईरान, इराक, सीरिया, लीबिया, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, यमन, कुवैत और तुर्की जैसे देश फोकस में रहते थे। लेकिन, अमेरिका ने इन इस्लामिक देशों को कैसे अपना शिकार बनाया है, आइये उसे समझने की कोशिश करते हैं।
इस्लामिक देशों का शिकार!
अफगानिस्तान, इराक, सीरिया, लीबिया और यमन जैसे इस्लामिक देशों की जो आज दुर्दशा है, उसके लिए कमोबेश अमेरिका ही पूरी तरह से जिम्मेदार है और अमेरिका के प्यार, धोखे और फ्रॉड नीति ने कई लाख लोगों को बेमौत मरने के लिए मजबूर कर दिया। अमेरिका ने इस्लामिक देशों के साथ पावर गेम, पॉजिशन गेम, फ्राइंडशिप गेम, इगो गेम और अंत में हेट गेम खूब अच्छी तरीके से खेला और इस दौरान अमेरिका ने जमकर मानवाधिकार, इथिक्स और कानून का जमकर उल्लंघन किया है, जिसकी दुहाई हर अमेरिकी राष्ट्रपति देते हैं और जिसका चैंपियन बनकर अमेरिका हर दिन खड़ा होता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दुनिया में दो सबसे बड़ी ताकतें उभर कर आईं, एक अमेरिका और दूसरा सोवियत संघ। अमेरिका में डेमोक्रेसी थी और रूस में वामपंथ, लिहाजा दोनों ही देशों ने आपसी समझौते के साथ आगे बढ़ने की कोई कोशिश ही नहीं की, बल्कि दोनों ही एक दूसरे के सामने डटे रहे और इस दौरान अमेरिका की विदेश नीति 'Trauma Doctine' पर आधारित थी, जिसका मतलब ये, कि दुनिया के किसी भी देश के लोकतंत्र पर अगर खतरा है, तो इसका मतलब पूरी दुनिया में खतरा है।
कोल्ड वार से क्रूड ऑयल वार
अमेरिका और सोवियत संघ कई स्तर पर कोल्ड वार में शामिल थे और इसका एक प्रमुख मैदान क्रूड ऑयल बन गया और अमेरिका ने सोवियत संघ के मुकाबले इस दिशा में तेजी से कदम उठाना शुरू कर दिया। अमेरिका ने काफी स्किल्ड इंजीनियरों की फौज को अरब देशों में भेजना शुरू कर दिया और अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने 1928 के रेड लाइन एग्रीमेंट और 1944 के एंग्लो अमेरिकन पेट्रोलियम एग्रीमेंट के जरिए पेट्रोलियम सेक्टर पर अपने वर्चस्व के स्थापना करने की कोशिश करनी शुरू कर दी और इसके लिए जरूरी था, कि कोई भी मिडिल ईस्ट देश काफी ज्यादा ताकतवर ना बने। और इसे अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति फ्रेंकलिन डी रूजवेल्ट के 1944 के उस बयान से काफी आसानी से समझा जा सकता है, जो उन्होंने ब्रिटिश एंबेसडर से कहा था। उन्होंने कहा था, कि 'पर्सियन तेल आपका है और हम इराक और कुवैत के तेल शेयर कर लेते हैं, और जहां तक सऊदी अरब के तेल की बात है, तो वो हमारा होगा।'
मिडिल ईस्ट का कैसे किया शिकार?
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद मिडिल ईस्ट में भी ताकत का विस्तार होने लगा था और भारत की ही तरह इन देशों में भी राष्ट्रवाद का उदय हो रहा था और राष्ट्रवादी शक्तियां फ्रांस और ब्रिटिश के लिए सरदर्द साबित हो रहे थे। जिसकी वजह से मिडिल ईस्ट में एक पॉवर बनने की शुरूआत हो चुका था और अमेरिका ने इस पावर को अपनी हाथों में लेने की प्लानिंग कर ली थी और अमेरिका के गेम की शुरूआत होती है सीरिया से, जो साल 1946 में नया नया आजाद देश बना था। लेकिन, साल 1949 में ही पहली बार सीरिया में सैन्य तख्तापलट हो गया, जिसने सीरिया को हमेशा के लिए लोकतंत्र के रास्ते से हटाकर डिक्टेटेरशिप के रास्ते पर धकेल दिया और इस सैन्य तख्तापलट को अंजाम दिया गया था अमेरिकी खुफिया एजेंसी CIA की मदद से। यानि, जो सीरिया एक स्थाई लोकतांत्रिक देश बन सकता था, उसके विकास की यात्रा को ही बर्बादी और तानाशाही की तरफ अमेरिका ने धकेल दिया, ताकि मिडिल ईस्ट में वो अपने पैर जमा सके।
सीरिया बना आतंकवादी देश
सीरिया के नये सैन्य तानाशाह ने अमेरिका को फायदा पहुंचाने के लिए कई फैसले लिए, जिसमें ट्रांस अरेबियन पाइपलाइन भी शामिल था,जो सऊदी अरब के तेल को आसानी से ट्रांसपोर्ट करने का अमेरिकन प्रोजेक्ट था। इस दौरान सीरिया के तानाशाह ने अपने देश में अराजका की स्थिति पैदा कर दी, जबकि अमेरिका ने तुर्की के साथ साथ दूसरे इस्लामिक देशों की तरफ ध्यान देना शुरू कर दिया। इस दौरान अमेरिका लगातार सीरिया में अपनी मर्जी के तानाशाह को इंस्टाल करता रहा और सीरिआ भुखमरी, गरीबी और हिंसा से ग्रस्त देश बनता चला गया। इसी दौरान अमेरिका ने सीरिया को अपना 'मोस्ट ट्रस्टेड पार्टनर' भी घोषित कर दिया। लेकिन, साल 1986 में इसी अमेरिका ने सीरिया को दुनिया का सबसे खतरनाक 'टेरेरिज्म स्पॉसर्ड नेशन' यानि आतंकवादियों का देश घोषित कर दिया। वहीं, कुछ सालों के बाद जब सीरिया ने अमेरिका के इराक में हमले का विरोध किया, तो अमेरिका ने सीरिया को दिए गये सारे अधिकारों को ना सिर्फ छीन लिया, बल्कि सीरिया पर कई तरह से प्रतिबंध लगा दिए गये, जिसने सीरिया को आर्थिक और सामाजिक स्तर पर पूरी तरह से बर्बाद कर दिया, जिसने ना सिर्फ सीरिया के वर्तमान, बल्कि सीरिया के भविष्य को भी बर्बाद कर दिया।
अमेरिका का डबल गेम
इतना सब होने के बाद भी साल 2001 में जब अमेरिका के ऊपर आतंकवादी हमला हुआ, तो सीरिया ने अमेरिका को काफी इंटेलिजेंस रिपोर्ट्स दिए, लेकिन अमेरिका बार बार सीरिया के पीठ पर वार करता रहा। इराक युद्ध के समय सीरिया अपना न्यूट्रस विदेश नीति अपनाना चाहता था, जो अमेरिका को कबूल नहीं था, लिहाजा जब 90 के दशक में सीरिया में एंटी-गवरमेंट ताकतों ने सिर उठानी शुरू कर दी, जिसका मकसद सीरिया में सुन्नी इस्लामिक सरकार का स्थापना करना था, तो अमेरिका ने उसे सपोर्ट करना शुरू कर दिया और अमेरिका की तरफ से कहा गया, कि वो लोकतंत्र की मजबूती के लिए विरोध-प्रदर्शनों का समर्थन कर रहा है। तो फिर सवाल ये उठ रहे हैं, कि अमेरिका उस सीरिया में लोकतंत्र की स्थापना करना चाहता था, जहां पहले से ही चुनी गई सरकार थी, लेकिन सऊदी अरब, यूएई, कतर और बहरीन जैसे देशों में, जहां राजशाही थी, वहां अमेरिका ने लोकतंत्र की स्थापना के लिए एक भी कदम नहीं उठाए। जाहिर है, ये अमेरिका का डबल गेम था।
ईरान पर अमेरिका की बुरी नजर
साल 1950 में ईरान एक लोकतांत्रिक देश हुआ करता था, जहां प्रधानमंत्री देश के प्रमुख होते थे और शाह देश के आधिकारिक अध्यक्ष हुआ करते थे, जैसा की ब्रिटेन में हुआ करता है। लेकिन, अमेरिका ने अपने फायदे के लिए ईरान को अस्थिर करना शुरू कर दिया। ईरान की सरकार काफी उदारवादी थी और लोग काफी शौक के साथ आधुनिकता की तरफ बढ़ रहे थे। ईरान में साल 1951 में प्रधानमंत्री थे मोहम्मद मोसादिक और उन्होंने राष्ट्रीय हितों को देखते हुए ईरानियन तेल इंडस्ट्री को राष्ट्रीयकरण करने का फैसला किया,जिसपर अभी तक ब्रिटेन की मालिकाना हक वाली 'एंग्लो-अमेरिकन ऑयल कंपनी' के पास थी। लेकिन, ईरान के शाह मोहम्मद रियाज पहलवी ने प्रधानमंत्री के इस फैसले का विरोध किया, क्योंकि उन्हें ईरान पर प्रतिबंध लगने का डर था। फिर भी प्रधानमंत्री ने तेल कंपनी का राष्ट्रीयकरण कर दिया, जिसके बाद ईरान पर कई सख्त प्रतिबंध लगा दिए गये और उसका नतीजा ये हुआ, कि ईरान में भयानक विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया। ईरान के शाह ने प्रधानमंत्री को इस्तीफा देने के लिए कहा, लेकिन उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया। लेकिन, साल 1953 में अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए और ब्रिटिश खुफिया एजेसी एमआई-6 ने मिलकर ईरान के प्रधानमंत्री की सत्ता का तख्तापलट कर दिया।
ईरानी तेल पर अमेरिका का कब्जा
अमेरिका ने प्रधानमंत्री को हटाकर देश की सत्ता अब सीधे ईरान के शाह को सौंप दी, जो अमेरिका के आगे कठपुतली बन गये थे। इसके बाद अमेरिका ने ईरानियन पेट्रोलियम कंपनी का 40 प्रतिशत हिस्सा ब्रिटेन को दे दिया, 40 प्रतिशत हिस्सा अपने पास रखा और बाकी का हिस्सा फ्रांस और डच कंपनियों दो दे दिया। वहीं, ईरान पेट्रोलियम कंपनी का नाम बदलकर 'ब्रिटिश पेट्रोलियम' कर दिया गया। इसके बाद अमेरिका ने ईरान को अपना 'मोस्ट ट्रस्टेड पार्टनर' का खिताब दे दिया। इस दौरान अमेरिका ने ईरान के शाह के लिए सीक्रेट पुलिस बल का निर्माण किया और उसकी फंडिंग की। वहीं, अमेरिका के डबल गेम की पराकाष्ठा इसी से समझी जा सकती है, कि जिस अमेरिका ने आज ईरान पर न्यूक्लियर हथियारों के निर्माण के खिलाफ दर्जनों प्रतिबंध लगा रखे हैं, उसी अमेरिका ने ईरान का न्यूक्लियर प्रोग्राम शुरू किया था। साल 1957 में अमेरिका ने ईरान में न्यूक्लियर रिएक्टर और साल 1967 न्यूक्लियर फ्यूल पंप की स्थापना की। वहीं, ईरान में इस्लामिक क्रांति आने के पीछे भी अमेरिका ने काफी अहम किरदार निभाया था औकर ईरानी जनता के बीच ये संदेश फैलाया था, कि ईरान में सोवियत संघ इस्लाम को खत्म करना चाहता है। लेकिन, जब ईरान में इस्लामिक क्रांति हो गई, तो फिर अमेरिका ने ईरान से सारे संबंध खत्म कर लिए और आज भी अमेरिका, पाकिस्तान और स्विट्जरलैंड के जरिए ईरान से बातचीत करता है। (आगे की कहानी पार्ट-2 में)
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