जॉर्ज फ़्लॉयड की मौतः प्रदर्शनों में शामिल हैं दक्षिण एशियाई
अफ़्रीकी मूल के अमरीकी नागरिक की पुलिस के हाथों मौत के बाद अमरीका में उबाल है.
अफ़्रीकी मूल के अमरीकी जॉर्ज फ़्लॉयड की पुलिस के हाथों मौत का वीडियो सामने आने के बाद से अमरीका के अलग-अलग शहरों में हज़ारों लोग सड़कों पर निकले हैं.
इन प्रदर्शनों में हर क्षेत्र और समुदाय के लोगों ने हिस्सा लिया है. दक्षिण एशियाई भी इसमें पीछे नहीं है. उनका कहना है कि उन्होंने भी कभी न कभी पुलिस की बर्बरता का सामना किया है.
बीबीसी हिंदी ने अमरीका में रह रहे कुछ ऐसे दक्षिण एशियाई लोगों से बात की जो प्रदर्शनों में शामिल हुए हैं और जिनकी ज़िंदगी इससे प्रभावित हुई है.
राहुल दुबे
हेल्थकेयर इनोवेशन सेक्टर में काम करने वाले राहुल दुबे ने 70 से अधिक प्रदर्शनकारियों को अपने घर में जगह दी. उन्होंने बताया-
पुलिस और प्रदर्शनकारी घर के बाहर थे. प्रदर्शनकारी नारे लगा रहे थे. रात में क़रीब 9.15 बजे पुलिस ने शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर हमला कर दिया. प्रदर्शनकारी अपने फ़र्स्ट अमेंडमेंट अधिकार का पालन कर रहे थे, अमरीका में लोग इससे बहुत गहराई से जुड़े हैं.
वहां लोगों की सूनामी थी. पुलिस लोगों को बुरी तरह मार रही थी. मैं दरवाज़े पर खड़ा था. मैं चिल्लाने लगा, घर में आओ, घर में आओ.
मैं दस मिनट तक चिल्लाता रहा. क़रीब सौ लोग मेरे घर में आए. लोगों की आंखों में जलन हो रही थी. वो अपनी आंखों पर पानी की बौछारें मार रहे थे. कुछ तो रो रहे थे. वो बहुत भावुक थे. पुलिस हम पर हंस रही थी. घर के भीतर मिर्ची पाउडर छोड़ रही थी.
मेरा घर 1500 वर्ग फीट में बना है. बैकयार्ड भी है. क़रीब बीस लोग बैकयार्ड में थे. क़रीब तीस लोग फ़र्श पर थे. हम सब भूखे थे तो रात में क़रीब 11 बजे मैंने पिज्ज़ा का आर्डर दिया. लेकिन पुलिस ने मुख्य रास्ता बंद कर दिया था. वो अगली सुबह 6-7 बजे तक मेरे घर में रहे.
छह घंटे बाद मुझे कोरोना वायरस के डर का अहसास हुआ. क्योंकि मेरे घर में बहुत से लोग थे, मैं आज से अपने आप को क्वारंटीन करने जा रहा हूं.
हमने रात भर बात की. कुछ लोग सोशल मीडिया पर वीडियो लाइव भी कर रहे थे. हमने अपने डर के बारे में बात की, आगे क्या किया जाना चाहिए इस बारे में बात की, सुरक्षाबल क्या करेंगे इस पर चर्चा की. इस बातचीत में सभी शामिल थे. काले भी गौरे भी. स्पेनिश मूल के लोग भी और भारतीय भी.
रज़ा रूमी- निदेशक, सेंटर फॉर इंडिपेंडेंट मीडिया, इथाका कॉलेज
हम ऐसे इलाक़ों से आते हैं जहां पुलिस की बर्बरता आम बात है. इस मुद्दे की गूंज पूरी दुनिया में है. भारत में पुलिस एनकाउंटरों पर बहुत सी फ़िल्में, नाटक, कहानियां बन चुकी हैं.
ये आने वाले राष्ट्रपति चुनावों में बड़ा मुद्दा होगा. अमरीका में नस्लीय विविधता के लोग बहुत हैं. पिछली बार वो हिलेरी और सैंडर्स के बीच बंटे हुए थे.
अगर कोई काला व्यक्ति किसी अपराध में जेल जाता है तो उसके लिए मौके बहुत कम हो जाते हैं. 9/11 के चरमपंथी हमले के बाद से अमरीका में रह रहे मुसलमानों को भी निगरानी का सामना करना पड़ा है.
मैंने उनकी कहानियां पढ़ी हैं. वहां भी पुलिस बर्बरता करती है. समय के साथ इसे बदलना ही होगा. एक दिन में कुछ नहीं होगा. इन प्रदर्शनों ने अमरीकियों को याद दिलाया है कि उन्हें लोगों की आवाज़ सुननी ही होगी. ऐसे नहीं चलेगा.
मैं भी इससे प्रभावित हो सकता हूं. मेरा रंग भी अलग है. मैं मुसलमान भी हूं. मैं एक मुसलमान देश से हूं. पाकिस्तान से हूं. मेरे ऊपर तो शक किए जाने की कई परतें हैं. जब तक पुलिस और न्याय-व्यवस्था पारदर्शी नहीं होगी, मैं कितनी परतों को सुधारूंगा.
दक्षिण एशियाई लोग बाहर निकल रहे हैं क्योंकि वो एक छोटा अल्पसंख्यक समुदाय हैं. स्पेनिश मूल के लोग अफ्रीकी मूल के लोग तादाद में दक्षिण एशियाई लोगों के मुकाबले काफ़ी ज़्यादा हैं. भले ही हमारे देशों के बीच में मतभेद हों, लेकिन यहां अमरीका में, दक्षिण एशियाई लोगों की एक साझा पहचान है.
मिनाहिल मेहदी, प्रदर्शन में शामिल छात्रा
मैं हार्वर्ड में स्नातक की छात्रा हूं. मैं पाकिस्तान में पली बढ़ी हूं जहां मुझे कई सामाजिक न्याय अभियानों के साथ काम करने का मौका मिला.
जब यहां जॉर्ज फ़्लॉयड की मौत के बाद प्रदर्शन हुए तो हमें लगा कि साथ देना हमारी ज़िम्मेदारी है. हम उन लोगों के साथ खड़े हैं जिनका सदियों से शोषण होता रहा है.
जब पाकिस्तान में किसी के साथ अन्याय होता है तब भी हम ऐसा ही करते हैं. चाहें वो प्रवासी हों, महिलाएं हों, पश्तून हों या छात्र हों.
काले लोगों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होना भी हमारी ज़िम्मेदारी है. ये एक प्राकृतिक भावना है. हमने इस बारे में दोबारा नहीं सोचा है.
कोविड बीमारी की वजह से सभी ने मास्क पहना था. लोग एक दूसरे से दूरी बनाए हुए थे और एक दूसरे को सेनेटाइज़र भी दे रहे थे. हमने उन लोगों की बात सुनी. उनकी गवाही दर्ज की.
पाकिस्तान में सत्ता, पूंजीपतियों और सामंतियों का आधिपत्य है. हमने लोगों की बात सुनी ताकि हम समझ पाएं कि अमरीका में काले होने के क्या मायने हैं. उन्होंने उस डर के बारे में बताया जो उन्हें रोज़मर्रा का सामान ख़रीदते हुए लगता है. मैंने उन लोगों के साथ जुड़ाव महसूस किया. ये शानदार अनुभव था.
दक्षिण एशिया में आज भी उपनिवेशवाद की जड़े हैं. हमारे यहां भी नस्लवाद है. हमारे मन में आज भी रंग को लेकर हीनभावना रहती है. शादी और नौकरी तक में इसे तरजीह दी जाती है.
ये अपने अंदर झांककर देखने का मौका भी है. ये सवाल भी है क्या जब हम अपने देश में जाएंगे तो कमज़ोर लोगों के लिए आवाज़ उठा पाएंगे. अगर आप भारत में हैं तो क्या आप दलितों के लिए आवाज़ उठा रहे हैं.
अगर आप पाकिस्तान में हैं तो क्या आप बलोच लोगों के लिए आवाज़ उठा पा रहे हैं. हमें उन लोगों के साथ खड़ा होना है जो संस्थागत हिंसा झेलते रहे हैं.
शांति सिंह- टेनेंट्स यूनियन के साथ काम करती हैं, रैली में शामिल हुईं
दक्षिण एशियाई लोगों को यहां एक आदर्श अल्पसंख्यक समुदाय के तौर पर पेश किया जाता है और ये मिथक है जिसका इस्तेमाल काले लोगों, मूल निवासियों और लैटिन लोगों के ख़िलाफ़ किया जाता है.
गोरे लोग अक्सर कहते हैं कि भारतीयों को देखो वो कितना अच्छा कर रहे हैं. हम सब अच्छा नहीं कर रहे हैं.
यहां यह एक मिथक है. अन्य दक्षिण एशियाई लोग और मेरी पीढ़ी के दक्षिण एशियाई लोग अब इसे समझ रहे हैं. ऐसा नहीं है कि हमारा शोषण नहीं हो रहा है.
ऐसा नहीं है कि गोरों के वर्चस्व की भावना से हम प्रभावित नहीं है. ऐसा हो सकता है कि ये हम कुछ कम या अलग तरीके से प्रभावित करती हो. और इसलिए ही हमारे ये और भी अहम है कि हम उन लोगों के साथ खड़े हों.
मैं इस तरह के प्रदर्शनों में हिस्सा ले चुकी हूं, लेकिन कुछ नहीं बदला है. यही वजह है कि अब हम लोगों में ज़्यादा गुस्सा देख रहे हैं.
अली इलाही, प्रदर्शनों में हिस्सा लेने वाले छात्र
मैने जॉर्ज फ़्लॉयड की मौत का वीडियो और उनके साथ हुई हिंसा देखी. ये दिल तोड़ने वाला था. हम ऐसे देश से हैं जहां हम पुलिस की बर्बरता की कहानियां सुनते रहते हैं. लेकिन वहां भी पुलिस, दिन की रोशनी में, इस तरह का ज़ुल्म नहीं करती है. इस वीडियो ने मुझे बहुत प्रभावित किया है.
हम प्रदर्शन में शामिल हुए क्योंकि हम अल्पसंख्यकों और अफ्रीकी मूल के लोगों के साथ एकजुटता दिखाना चाहते हैं. ख़ासकर काले लोगों का इस देश में सदियों से शोषण होता रहा है.
कोरोना महामारी के बावजूद लोग आए. काले लोगों ने अपने अनुभव साझा किए. गोरे लोगों ने कहा कि वो ख़ामोश रहकर ये ज़ुल्म नहीं देखेंगे.
उर्दू की एक लाइन है- 'जो ख़ामोश है वो भी मुजरिम है.'
अगर पाकिस्तान में कोई ऐसा वीडियो सामने आता है तो सख़्त कार्रवाई होती है. लोगों को नौकरी से निकाल दिया जाता है. कई बार, मामला प्रधानमंत्री के स्तर तक पहुंचता है. यहां कार्रवाई धीमे हो रही है.
जब किसी अल्पसंख्यक समुदाय के साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है, फिर भले ही हम हिंदुस्तानी हों, पाकिस्तानी हों, बांग्लादेशी हों या श्रीलंकाई हों, हमें पीड़ितों के साथ खड़ा होना चाहिए.
जो लोग हिंसा कर रहे हैं, वो इस स्थिति का फ़ायदा उठाने वाले शरारती तत्व हैं जो मौका मिलते ही लूटमार कर रहे हैं.
वक़ास अहमद, दुकानदार
हम फ़ोन बेचने का व्यापार करते हैं और मैरीलैंड में हमारे कई स्टोर हैं. हम टीमोबाइल और बूस्ट मोबाइल के स्टोर चलाते हैं. हमारे बीस स्टोर हैं.
बूस्ट मोबाइल स्टोर पर लोग रात में 1.15 बजे आए. उन्होंने शीशे की खिड़कियों को पत्थर से तोड़ दिया. ये सात-आठ लोग एक वाहन से उतरे और दुकान में घुस गए. ये सब तीस सेकंड तक हुआ.
वों पांच छह हज़ार डॉलर क़ीमत के फ़ोन ले गए. उन्होंने संपत्ति को नुक़सान पहुंचाया. हमने इंश्यूरेंस ले रखा है. अब हम मरम्मत करा रहे हैं.
मेरे कई दोस्तों का बिज़नेस प्रभावित हुआ है. कुछ का कम कुछ का ज़्यादा. वो भी डरे हुए हैं. कोरोना वायरस से पहले से ही कामकाज ठप सा था.
अभी तो काम ठीक से शुरू भी नहीं हुआ था. उस आदमी की मौत हो गई है. लेकिन बिज़नेस अलग है, मानवता अलग है. जो हुआ था बहुत ग़लत हुआ.
ये ग़लत है कि इस सबके साइड इफेक्ट के तौर पर बिज़नेस प्रभावित हो रहे हैं. अधिकतर प्रदर्शन शांतिपूर्ण हैं लेकिन कुछ लोग मौके का फ़ायदा उठा रहे हैं.