चीन में गांधी का जीवन जीती एक महिला
महात्मा गांधी कभी चीन नहीं गए लेकिन 1940 के दशक में चीनी नेता छियांग खाई शेक गांधी से मिलने भारत आए.
साल 1946 में केएमटी पार्टी नेता छियांग खाई शेक और कम्युनिस्टों र्के बीच लड़ाई में कम्युनिस्ट विजयी रहे थे और छियांग खाई शेक को ताइवान भागना पड़ा था.
राष्ट्रीय गांधी म्यूज़ियम के डायरेक्टर ए अन्नामलाई के मुताबिक वो वक्त था जब जापान के हमले के ख़िलाफ़ छियांग खाई शेक एशियाई देशों के संघ बनाना चाहते थे लेकिन महात्मा गांधी अहिंसा के पक्षधर थे.
साल 1920 के आस-पास जब महात्मा गांधी का प्रभाव भारत के कोने-कोने में फैल रहा था, चीन के कई लोग प्रेरणा के लिए उनकी ओर देख रहे थे.
वो पूछ रहे थे, क्या सत्याग्रह और अहिंसा का पालन करने से उनके देश का भला होगा?
उन दिनों भारत में जहां ब्रितानी हुकूमत थी, चीन में ब्रिटेन, अमरीका, फ्रांस जैसी विदेश ताकतों का ज़ोर था. साथ ही चीन में विभिन्न गुटों में लड़ाई के कारण गृह युद्ध जैसी स्थिति थी.
महात्मा गांधी कभी चीन नहीं गए, लेकिन चीन और महात्मा गांधी विषय पर काम करने वाले साउथ चाइना नॉर्मल यूनिवर्सिटी प्रोफ़ेसर शांग छुआनयू के मुताबिक चीन में महात्मा गांधी पर करीब 800 किताबें लिखी गई हैं.
पूरे चीन में गांधी की एकमात्र मूर्ति राजधानी बीज़िंग के छाओयांग पार्क में है जहां सामने एक मानवनिर्मित तालाब है और वो मारकेज़, इग्नेसी जान पेडेरेव्स्की और ह्रिस्टो बोटेव जैसी शख़्सियतों से घिरे हैं.
चीन में आज भी ऐसे लोग हैं जो गांधी के जीवन जीने के तरीके से प्रभावित हैं.
गांधी के लेखों का अनुवाद
ऐसी ही हैं पूर्वी आनहुई प्रांत के हुआंग थिएन गांव में रह रहीं 57 साल की वू पेई.
वू ने महात्मा गांधी के लेखों का अनुवाद किया है और वो सादा जीवन जीती हैं.
चीन में जहां की एक बड़ी संख्या मांसाहारी हैं, वू पेई शाकाहारी हैं.
वो पुराने कपड़े पहनती हैं और एसी और वाशिंग मशीन का इस्तेमाल नहीं करतीं.
गांधी के विचारों को आगे बढ़ाने के लिए पिछले साल अगस्त में उन्होंने गांव में एक स्कूल खोला.
गांधी के सिद्धांतों की सीख
वू पेई कहती हैं, "मैं बच्चों को महात्मा गांधी के सिद्धांतों के बारे में सीधे तौर पर नहीं बताती बल्कि मैं उन्हें सिखाती हूँ कि वो हर जीव से प्यार करें, गांव के लिए अच्छा काम करें, कूड़ा इकट्ठा करें, अगर लोग अकेले हैं तो वो उनके घरों में उनसे मिलने जाएं."
जिस दिन हम स्कूल पहुंचे, गर्मी की छुट्टी से पहले के आखिरी दिन के अवसर पर बच्चों ने विशेष कार्यक्रम तैयार किए थे.
पत्थरों से बनी स्कूल की इमारत की ऊंची काली छत से चीनी डिज़ाइन वाली दो लाल लालटेनें लटक रही थीं.
हाथों का इस्तेमाल और धरती से जोड़ें रिश्ता
गावं के एक व्यक्ति के मुताबिक करीब 800 साल पुराने इस गांव की ऐसी इमारतें कई सौ साल पुरानी हैं.
एक बड़े से हॉल की एक दीवार पर हरे ब्लैकबोर्ड के ऊपर महान चीनी दार्शनिक कन्फूशियस की लंबी सी तस्वीर लगी थी.
लगी दीवार के साथ लकड़ी की अलमारी में चीनी भाषा में बच्चों की किताबें, रंग-बिरंगी चॉक और स्टैप्लर रखे थे.
कुर्सियों के चारों ओर छोटी मेज़ पर बच्चों की चित्रकारी, होमवर्क और क्ले-मॉडल्स रखे थे जिसे बच्चे और उनके मां-बाप उलट-पलट रहे थे.
वू पेई कहती हैं, "हम इस स्कूल में बच्चों को सिखाते हैं कि वो अपने हाथों का कैसे इस्तेमाल करें, कैसे वो धरती के साथ रिश्ता बनाएं ताकि वो खुद धरती के सीने से फ़सल उगा सकें."
प्रार्थना सभा के बाद बच्चों ने अपनी महीन आवाज़ों में गाने पेश किए, उधर मां-बाप मोबाइल पर बच्चों का वीडियो बना रहे थे.
पिछले साल दिसंबर में स्कूल में दाखिला लेने वाले नौ साल के डैन्यू की मां रुई लियान लियान अपने बेटे के प्रदर्शन से बहुत संतुष्ट थीं.
गांधी की बातों का गहरा प्रभाव
डैन्यु पहले एक आम पब्लिक स्कूल में पढ़ते थे.
लियान ने मुझे बताया, "आम पब्लिक स्कूल बच्चों की योग्यता को विकसित करने के लिए सही नहीं हैं. पहले मेरा बेटा आईफ़ोन और दूसरे इलेक्ट्रॉनिक खिलौनों से खेलता रहता था लेकिन अब ऐसा नहीं है."
फ़िज़िक्स में मास्टर्स करने वाली वू पेई का जन्म शंघाई शहर में हुआ था.
उन्होंने लंदन में दो साल वाल्डर्फ़ की पढ़ाई की. वाल्डर्फ़ एजुकेशन मतलब पढ़ाई के माध्यम से बच्चों का संपूर्ण मानसिक और कलात्मक विकास करना.
वू पेई बताती हैं, "चीन में इम्तिहान और अंकों पर बहुत ज़ोर दिया जाता है. अध्यापक इंसान के विकास पर ध्यान नहीं देते."
साल 2002 में उनके जीवन की दिशा बदली जब राजधानी बेइजिंग में उन्होंने एक भारतीय वक्ता का भाषण सुना.
वू पेई बताती हैं, "उन्होंने गांधी के आदर्शों के बारे में बताया और कहा कि गांधी कहते थे कि सच्चाई को सिर्फ़ काव्यात्मक तरीके से ही व्यक्त किया जा सकता है. इन बातों ने हम पर गहरा प्रभाव डाला."
वू पेई ने गांधी के बारे में स्कूली किताबों में पढ़ा था लेकिन उन्हें ज़्यादा जानकारी नहीं थी.
दोस्तों के कहने पर उन्होंने महात्मा गांधी से जुड़ी दो किताब का अनुवाद किया.
पहली किताब गांधी के निबंध का संग्रह था जबकि दूसरी उनकी बातों का संग्रह.
वो कहती हैं, "गांधी ने कहा था कि ये धरती लोगों की मांगे तो पूरी कर सकती है लेकिन उनका लोभ नहीं. इन बातों ने मुझ पर बहुत प्रभाव डाला."
वू का सपना गांधी के जन्मस्थान आना
लेकिन चीन में कई लोग महात्मा गांधी के सिद्धांतों से सहमत नहीं हैं.
वू पेई कहती हैं, "एक दिन जब मैंने अहिंसा और गांधी के बारे में बात करनी शुरू की तो लोगों ने मुझसे कहा कि मैं बहुत आदर्शवादी हूं और चीन में ऐसा नहीं हो सकता. चीन में गांधी के बारे में जानकारी बहुत कम है... भारत की तरह चीन में कई लोग अहिंसा पर गांधी से सहमत नहीं हैं."
वू पेई का सपना है कि वो एक दिन महात्मा गांधी के जन्मस्थान भारत आएं.
गांधी कभी चीन नहीं गए
महात्मा गांधी कभी चीन नहीं गए लेकिन चीन के लोगों से उनका संबंध बहुत पुराना था.
राष्ट्रीय गांधी म्यूज़ियम द्वारा प्रकाशित ईएस रेड्डी की किताब में ज़िक्र है कि किस तरह भारतीय और चीनी समुदायों ने दक्षिणी अफ्रीका में साथ आकर सरकार की भेदभाव वाली नीतियों का विरोध किया.
किताब में ज़िक्र है कि किस तरह महात्मा गांधी और चाइनीज़ एसोसिएशन एंड कैंटोनीज़ क्लब के प्रमुख ल्योंग छ्विन ने सहयोग किया.
स्थानीय अख़बार 'इंडियन ओपिनियन' के गुजराती सेक्शन में महात्मा गांधी ने लिखा, "जोहनसबर्ग में चीन के कई लोग रहते हैं. ये नहीं कहा जा सकता कि आर्थिक रूप से उनकी स्थिति भारतीयों से बेहतर है. ज़्यादातर मात्र कारीगर हैं. कुछ दिन पहले मुझे मौका मिला कि मैं उन्हें ध्यान से देखूं. उनकी ज़िंदगियों की तुलना अपनी ज़िंदगियों से करने पर मुझे बहुत दुख हुआ."
चीन में 1904 से 1948 के बीच छपने वाली ओरियंटल मैगज़ीन ने महात्मा गांधी की तस्वीरों के साथ कई लेख छापे.
साल 1921 में छपे एक लेख के मुताबिक, "गांधी बहुत धार्मिक तो हैं हीं लेकिन वो देशप्रेम के समर्थक भी हैं. उनके जीवन का लक्ष्य है वो भारत के नौतिक मूल्यों को पुनिर्जीवित किया जाए और भारतीयों को प्रेरित किया जाए कि वो खुद को बिना भेदभाव के एक परिवार की तरह देखे और वो सभी पश्चिमी संस्कृति जैसे औद्योगिक गुलामी, पैसे की पूजा और लड़ाकू अंदाज़ को अस्वीकार न करें. छोटे में कहा जाए तो गांधी इंसाफ़ के लिए हिंसा के इस्तेमाल के खिलाफ़ थे."
वो दिन थे जब चीन पर सोवियन यूनियन का गहरा प्रभाव था. सोवियत नेता गांधी को लेकर जैसी सोच रखते, चीन में सरकार और लोगों की मानसिकता पर उसका गहरा असर होता था.
1920 के दशक में गांधी पर नहीं था एकमत
साउथ चाइना नॉर्मल यूनिवर्सिटी प्रोफ़ेसर शांग छुआनयू कहते हैं, "1920 के दशक में लेनिन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में गांधी की भूमिका की तारीफ़ की और उन्हें एक सच्चा क्रांतिकारी बताया. लेकिन 1930 के दशक में स्टालिन ने गांधी को साम्राज्यवादियों का साथी बताया..."
प्रोफ़ेसर शांग ने चीन और गांधी संबंधों पर कई लेख लिखे हैं और इसे लेकर उन्होंने भारत की यात्राएं भी की हैं.
प्रोफ़ेसर शांग के मुताबिक 1920 के दशक में जहां लोगों ने गांधी को एक 'संत', 'भारत का टॉल्स्टॉय', 'भारत का राजा' बताया, 1930 के दशक में कई वामपंथी बुद्धिजीवियों ने महात्मा गांधी को भारतीय राष्ट्रवादी संग्राम में दक्षिपंथी समूह का या बड़े ज़मींदारों और व्यापारियों का प्रतिनिधि बताया.
गांधी के अहिंसा के आदर्श पर चीन में विचार बंटे थे. कुछ ने कहा कि खादी आंदोलन से लोगों को इकट्ठा करने में मदद मिलेगी लेकिन उनके आलोचकों ने गांधी को 'आधुनिकीकरण' का विरोधी माना.
द कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गांधी
महात्मा गांधी कभी चीन नहीं गए लेकिन 1940 के दशक में चीनी नेता छियांग खाई शेक गांधी से मिलने भारत आए.
साल 1946 में केएमटी पार्टी नेता छियांग खाई शेक और कम्युनिस्टों र्के बीच लड़ाई में कम्युनिस्ट विजयी रहे थे और छियांग खाई शेक को ताइवान भागना पड़ा था.
राष्ट्रीय गांधी म्यूज़ियम के डायरेक्टर ए अन्नामलाई के मुताबिक वो वक्त था जब जापान के हमले के ख़िलाफ़ छियांग खाई शेक एशियाई देशों के संघ बनाना चाहते थे लेकिन महात्मा गांधी अहिंसा के पक्षधर थे.
साल 1931 में जापान ने चीन पर हमला कर मंचूरिया पर कब्ज़ा कर लिया था. साल 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध के अंत तक जब जापान ने हार मानी तब तक लाखों चीनी नागरिक मारे जा चुके थे.
14 जून 1942 को छियांग खाई शेक को लिखे एक पत्र में महात्मा गांधी ने लिखा, "जल्दी ही जापानी हमले के ख़िलाफ़ आपका पांच साल का युद्ध पूरा हो जाएगा जिसने चीन में लोगों के जीवन में दुख भर दिए हैं. मुझे उस दिन का इंतज़ार है जब एक स्वतंत्र भारत और एक स्वतंत्र चीन एशिया और पूरी दुनिया की अच्छाई के लिए दोस्ती और भाईचारे में एक दूसरे के साथी होंगे."
लेकिन 'द कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गांधी' में छपे साक्षात्कार में महात्मा गांधी कहते हैं, "अगर चीन के लोग मेरे सोच की अहिंसा अपनाते तो बरबादी के लिए काम आने वाली जापान की आधुनिकतम मशीनों का कोई इस्तेमाल नहीं होता."
जापान के ख़िलाफ़ अहिंसा अपनाने की बात पर चीन के कई लोग सहमत नहीं और इसे लेकर आपको चीन के सोशल मीडिया पर लेख या कमेंट्स मिल जाएंगे.
उधर साल 1948 में ओरियंटल मैगज़ीन में गांधी की मृत्यु में लिखा गया, "उनकी मौत की ख़बर ने हमारे देश की सरकार और लोग बहुत दुखी और सदमे में हैं."
उसी साल कैंटोनीज़ ओपेरा मास्टर लियाउ शियाह्वे ने 'जब गांधी शीषी से मिले' नाम का 'मास्टरपीस' ओपेरा तैयार किया.
इस काल्पनिक कहानी में गांधी सपने में चीन की यात्रा पर शीषी नाम की महिला से मिलते हैं. शीषी करीब 2000 साल पुराने प्राचीन चीन की चार सुंदरियों में से एक थीं.
चीन में बढ़ी गांधी पर जागरूकता
ग्वांगज़ो में महात्मा गांधी की किताबों का अनुवाद करने वाले छात्र सिगफ़्रीड लियांग बताते हैं, "इस ओपेरा को भुला दिया गया था लेकिन 1980 के दशक में ये ओपेरा कुछ कैंटोनीज़ ओपेर रिसर्चर की नज़र में आया."
साउथ चाइना नॉर्मल युनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में काफ़ी देर ढूंढने के बाद उन्होंने एक रिसर्च पेपर ढूंढ निकाला.
छात्रों से भरे और आधुनिक सुविधाओं से लैंस इस एअरकंडीशंड लाइब्रेरी में वो हमसे मिले और बताया, "इस ओपेरा में लियाउ शियाह्वे ने उस वक्त की कई सामाजिक बुराइयों जैसे भ्रष्टाचार, ग़रीबी पर भी कटाक्ष किया. ओपेरा को देखने भारतीय वाणिज्यदूतावास से भी प्रतिनिधि आए और उन्हें ये ओपेरा बेहद पसंद आया."
महात्मा गांधी की मौत पर छियांग खाई शेक ने चीनी भाषा में एक शोक संदेश भेजा जिसे राष्ट्रीय गांधी म्यूज़ियम में फ़्रेम करके रखा गया है.
संदेश में लिखा था, परोपकार करना संत के काम जैसा है.
प्रोफ़ेसर शांग छुआनयू के मुताबिक पिछले सालों में चीन में महात्मा गांधी की शख्सियत और उनकी सोच के बारे में जागरूकता बढ़ी है.
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