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9/11 के 18 साल: 'आतंक के ख़िलाफ़' फ़ेल रहा अमरीका?: नज़रिया

18 साल पहले 11 सितंबर के दिन न्यू यॉर्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला हुआ था जिसके बाद दुनिया की राजनीति बदल गई. अमरीका ने बिना वक़्त गंवाए अफ़ग़ानिस्तान में चरमपंथ के ख़िलाफ़ लड़ाई का मोर्चा खोल दिया और तालिबान को सत्ता से बेदख़ल कर दिया. मगर 18 साल बाद अमरीका उसी तालिबान से बात कर रहा था और समझौते के क़रीब पहुँच चुका था 

By BBC News हिन्दी
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REUTERS

18 साल पहले 11 सितंबर के दिन न्यू यॉर्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला हुआ था जिसके बाद दुनिया की राजनीति बदल गई. अमरीका ने बिना वक़्त गंवाए अफ़ग़ानिस्तान में चरमपंथ के ख़िलाफ़ लड़ाई का मोर्चा खोल दिया और तालिबान को सत्ता से बेदख़ल कर दिया.

मगर 18 साल बाद अमरीका उसी तालिबान से बात कर रहा था, और समझौते के क़रीब पहुँच चुका था जब अचानक से राष्ट्रपति ट्रंप ने मुलाक़ात रद्द कर दी.

किस मोड़ पर खड़ी है अभी अमरीका की विदेश नीति, ये समझने के लिए बीबीसी संवाददाता दिलनवाज़ पाशा ने अमरीका की डेलावेयर यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान से बात की.

पढ़िए मुक़्तदर ख़ान का नज़रिया

2017 में ट्रंप प्रशासन ने अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा योजना जारी की थी. उसमें दिखता है कि अमरीका की विदेश नीति आतंक के ख़िलाफ़ वैश्विक लड़ाई से हटकर पुरानी नीति पर लौट आई है जिसमें उन्होंने चार अंतरराष्ट्रीय ख़तरों की पहचान की है. पूरी दुनिया के हिसाब से चीन और रूस का ख़तरा, और ख़ुद अमरीका के लिए उत्तर कोरिया और ईरान के परमाणु कार्यक्रमों का ख़तरा.

तो अब अमरीका की विदेश नीति और उसका बजट इन ख़तरों को ध्यान में रखकर बनाया जा रहा है और जो 'आतंक के ख़िलाफ़' उनकी लड़ाई थी उससे वो पीछे हटने की कोशिश कर रहे हैं.

JASON SCOTT/TEXTFILES

पिछले एक साल से दिख रहा है कि अमरीका सीरिया, इराक़ और ख़ास तौर पर अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेना हटाने की कोशिश कर रहा है क्योंकि उसे लगता है कि अब उनसे उतना बड़ा ख़तरा नहीं रहा, ख़ास तौर से इस्लामिक स्टेट की ताक़त ख़त्म होने के बाद.

और इस वजह से अमरीका जिन देशों को आतंक के विरुद्ध लड़ाई के लिए जो आर्थिक सहायता देता था, उसमें भी कटौती कर रहा है.

यानी कहा जा सकता है कि अमरीका की आतंक के ख़िलाफ़ लड़ाई एक तरह से ख़त्म होने की ओर बढ़ रही है.

REUTERS

ट्रंप के दौर में कम हमले

वैसे एक बात है कि राष्ट्रपति ट्रंप ने अपनी तरफ़ से कोई नई जंग नहीं शुरू की. ओबामा ने भी कोई नई जंग नहीं शुरू की थी मगर उन्होंने पुरानी जंग को और आक्रामक बना दिया था. उनके समय ही ड्रोन्स का इस्तेमाल बढ़ा और आम लोग निशाना बने.

तो एक तरह से ट्रंप ट्विटर और बयानों से अत्यधिक आक्रामक लगते ज़रूर हैं मगर उनके समय विदेश नीति वैसी आक्रामक नहीं हुई है.

एक सैन्य अभ्यास के दौरान ट्रंप
Reuters
एक सैन्य अभ्यास के दौरान ट्रंप

लेकिन ये ज़रूर है कि ट्रंप ने ओबामा और बुश के समय जो आक्रामक नीति थी उसे जारी रखा, ख़ास तौर से इस्लामिक स्टेट को ख़त्म करने के मक़सद से जारी नीति को.

यहाँ ध्यान देने की बात है कि अमरीकी विदेश मंत्रालय 1990 से अंतरराष्ट्रीय चरमपंथी घटनाओं के बारे में एक सालाना रिपोर्ट जारी करता है और उसमें अगर देखें तो 2000-2001 के साल में दुनिया भर में औसतन 100-150 चरमपंथी हमले हुआ करते थे.

लेकिन अमरीका और ब्रिटेन के इराक़ पर हमले के बाद चरमपंथी हमलों की संख्या 2004 में 70,000 तक पहुँच गई. इनमें से ज़्यादातर हमले इराक़ में ही हो रहे थे.

AFP/GETTY IMAGES

अमरीका की वजह से बढ़ा चरमपंथ

तो एक तरह से 9/11 के बाद अमरीका ने जो क़दम उठाए उसने चरमपंथ को ख़त्म करने के बदले चरमपंथ को और मज़बूत कर दिया. ख़ासतौर से मध्यपूर्व में, इराक़ में, सीरिया में और अफ़ग़ानिस्तान में.

जब तक सोवियत संघ अफ़ग़ानिस्तान में था, कभी आत्मघाती हमला नहीं हुआ. सद्दाम हुसैन ने 20 साल तक इराक़ में ज़ुल्म किया, कभी आत्मघाती हमला नहीं हुआ. अमरीका जब दोनों मुल्क़ों में पहुँचता है, आत्मघाती हमले शुरू हो जाते हैं.

तो ये जो चरमपंथ को मज़बूत करने में अमरीका की एक भूमिका है जिसे अभी तक अमरीका के नीति-निर्माता नहीं मानते हैं. इस वजह से उनकी नीतियों में लगाए गए अनुमानों में हमेशा ग़लती होती है.

यमन में मलबों के बीच एक बच्चा
EPA
यमन में मलबों के बीच एक बच्चा

जिहाद के लिए ज़मीन तैयार

अल-क़ायदा और इस्लामिक स्टेट के समय जो मसले परेशानियों की जड़ थे, वे अब भी क़ायम हैं. मुस्लिम देशों में ना सुरक्षा है, ना लोकतंत्र है, ना आर्थिक विकास है. सोशल मीडिया की वजह से इन देशों की ज़िंदगी और दूसरे देशों की ज़िंदगी का फ़र्क सबको नज़र आता है.

तो इससे जो असंतोष, ग़ुस्सा और नफ़रत पैदा हो रही है वो अब भी बनी हुई है.

म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों का मसला हो, चीन में वीगर मुसलमानों का मसला हो और कश्मीर को लेकर जो कुछ लिखा जा रहा है, उससे अंतरराष्ट्रीय तौर पर मुसलमानों को लग रहा है कि उन पर अत्याचार हो रह है और कोई उनकी मदद के लिए नहीं आ रहा.

इससे उपजा ग़ुस्सा और असंतोष जिहादी मानसिकता को हवा देता है. लोग जिन कारणों से जिहादी बनने को प्रेरित होते थे वो कारण कम नहीं हुए हैं.

ये ज़रूर है कि जिहादियों से लड़ने वाली संस्थाओं और मुल्क़ों की क़ाबिलियत बढ़ गई है. उनके पास जानकारियाँ बढ़ गई हैं जिससे वो ख़तरे को काबू ज़रूर कर पा रहे हैं, मगर ख़तरे को ख़त्म नहीं कर पा रहे.

BBC Hindi
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English summary
18 Years of 9/11: America Failing 'Against Terror' ?: View
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