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यशवंत मनोहर: वो कवि जिन्होंने सरस्वती की तस्वीर के कारण पुरस्कार नहीं लिया

कवि यशवंत मनोहर ने मंच पर मौजूद सरस्वती की तस्वीर का विरोध करते हुए पुरस्कार स्वीकार करने से इनकार कर दिया.

By BBC News हिन्दी
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यशवंत मनोहर
Pravin Mudholkar/BBC
यशवंत मनोहर

जाने-माने कवि और विचारक डॉ. यशवंत मनोहर ने विदर्भ साहित्य संघ द्वारा दिए जाने वाले 'जीवनव्रती' पुरस्कार को लेने से इनकार कर दिया है.

उन्होंने मंच पर मौजूद सरस्वती की तस्वीर का विरोध करते हुए पुरस्कार स्वीकार करने से इनकार कर दिया.

विदर्भ साहित्य संघ की समिति ने यशवंत मनोहर को लाइफ़ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार 'जीवनव्रती' देने का फ़ैसला किया था. कार्यक्रम का निमंत्रण उन्हें एक महीने पहले भेजा गया था.

'मूल्यों के ख़िलाफ़ नहीं जा सकता'

यशवंत मनोहर ने पुरस्कार लेने से इनकार करते हुए कहा, "मैं अपने मूल्यों को कम करके इस पुरस्कार को स्वीकार नहीं कर सकता."

विदर्भ साहित्य संघ के अध्यक्ष मनोहर म्हैसलकर ने कहा कि वे डॉ. यशवंत मनोहर के सिद्धांतों का सम्मान करते हैं, लेकिन उन्हें भी अपनी परंपराओं का सम्मान करना चाहिए.

सरस्वती
Getty Images
सरस्वती

मीडिया से बात करते हुए यशवंत मनोहर ने कहा, "मैं धर्मनिरपेक्षता का पालन करता हूं, और मुझे इस बात का आभास था कि एक लेखक के रूप में विदर्भ साहित्य संघ को मेरी स्थिति के बारे में पता होगा."

"मैंने उनसे इस बारे में पूछा था कि मंच पर क्या होगा. उन्होंने मुझे बताया कि सरस्वती की तस्वीर होगी, और मैं अपने मूल्यों को कम करके एक पुरस्कार स्वीकार नहीं कर सकता, इसलिए मैंने विनम्रतापूर्वक इसे अस्वीकार कर दिया. "

"हम सरस्वती के बजाय सावित्रीबाई फुले या भारत के संविधान की तस्वीरें क्यों नहीं रख सकते हैं? एक साहित्यिक कार्यक्रम में, हम पीएल देशपांडे, कुसुमाग्रज जैसे साहित्यकारों की तस्वीरें क्यों नहीं लगा सकते."

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बीबीसी मराठी से बात करते हुए उन्होंने कहा, "यह विदर्भ साहित्य संघ के ख़िलाफ़ या किसी व्यक्ति के ख़िलाफ़ नहीं है. यह मूल्यों और सिस्टम के बारे में है. मैं भारत और महाराष्ट्र में प्रबुद्धता का प्रतिनिधि हूं."

"इसलिए, यह मेरे अपने सिद्धांतों के ख़िलाफ़ होगा यदि मैं एक ऐसे मंच पर पुरस्कार स्वीकार करता हूं जहां सरस्वती की छवि रखी जाती है."

"मैंने अपने पत्र में यह स्पष्ट कर दिया है कि अगर मैंने उन मूल्यों के ख़िलाफ़ काम किया, जो मैंने अपने पूरे जीवन में संजोए हैं, तो यह ख़ुद को कम आंकने जैसा होगा."

"मैं भारतीय प्रबुद्धता और परिवर्तन के लिए आंदोलन का यात्री हूं. मैं आपके लिए नहीं बदलने वाला हूं, आपको मेरे लिए बदलना चाहिए. इसका मतलब आपको आत्मज्ञान और परिवर्तन के लिए बदलना चाहिए. हम सभी को सबके हित में बदलना चाहिए. मैंने विदर्भ साहित्य संघ से अनुरोध किया था, लेकिन उन्होंने इसे गंभीरता से नहीं लिया. इसलिए मैंने पुरस्कार से इनकार करने का फ़ैसला किया."

यशवंत मनोहर
YASHWANTMANOHAR.COM
यशवंत मनोहर

'विदर्भ साहित्य संघ नहीं बदलेगा अपनी परंपरा'

विदर्भ साहित्य संघ के अध्यक्ष, मनोहर म्हैसलकर ने बीबीसी मराठी से बात की और स्पष्ट किया कि यशवंत मनोहर के विरोध के बावजूद वो अपनी परंपरा को नहीं बदलेंगे.

उन्होंने कहा, "एक संगठन में कुछ रीति-रिवाजों का पालन किया जाता है. हम मकर संक्रांति को एक त्योहार मानते हैं और इसे हमारे स्थापना दिवस के रूप में मनाते हैं. हर बड़े परिवार के कुछ रीति-रिवाज होते हैं. मंच पर सरस्वती की तस्वीर रखना हमारी प्रथा है. कवि अनिल, राम शेवलकर और डॉ वी.बी कोल्टे जैसे हमारे सभी अध्यक्षों के कार्यकाल में ऐसा हुआ है. उनमें से किसी ने भी मंच से सरस्वती की तस्वीर हटाने के लिए एक शर्त नहीं रखी."

मनोहर म्हैसलकर
Pravin Mudholkar/BBC
मनोहर म्हैसलकर

उन्होंने कहा, "जब उनसे पुरस्कार लेने के लिए अनुरोध किया गया था, तब उन्हें अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए थी. वह छह साल तक हमारे कार्यकारी बोर्ड में थे. उन्हें यह पता था. उन्होंने विदर्भ साहित्य संघ की यात्रा में योगदान दिया है. वह हमारे आजीवन सदस्य हैं."

बीबीसी मराठी ने कुछ मराठी साहित्यकारों से बात की और इस मुद्दे पर उनकी प्रतिक्रिया जानने की कोशिश की.

प्रसिद्ध कवि डॉ. प्रज्ञा दया पवार ने बीबीसी से कहा, "मैं यशवंत मनोहर के फ़ैसले का सम्मान करती हूं. एक व्यक्ति के रूप में उन्हें क्या करना चाहिए, यह वो तय कर सकते हैं. हम लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं. उनके लेखन और उनके काम के लिए मेरे मन में सम्मान है. यशवंत मनोहर के फ़ैसले पर जो भी राजनीति हो रही है, मैं उससे सहमत नहीं हूं "

"लेकिन मुझे हमेशा लगता है कि अगर हम एक परिवर्तनकारी समाज बनाना चाहते हैं और अगर हम इसका विस्तार करना चाहते हैं, तो हमें अपने दुश्मन के बारे में पता करते रहना चाहिए"

उन्होंने कहा, "फ़िलहाल हमें सरस्वती के अमूर्त प्रतीक के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि भयानक फ़ासीवाद के वास्तविक और समकालीन संस्करण के ख़िलाफ़ लड़ने की ज़रूरत है, और यह लड़ाई हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए."

प्रज्ञा दया पवार
Facebook/Pradnya Daya Pawar
प्रज्ञा दया पवार

बीबीसी मराठी ने उस्मानाबाद में आयोजित ऑल इंडिया मराठी लिटरेरी मीट के अध्यक्ष फ़ादर फ्रांसिस डेब्रिटो से संपर्क किया, लेकिन उन्होंने इस मुद्दे पर बात करने से इनकार कर दिया. उन्होंने केवल इतना कहा, "हर व्यक्ति अपने विचार व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन अभिव्यक्ति संविधान की सीमाओं के भीतर होनी चाहिए."

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लेकिन लेखक अनवर राजन इसे सही नहीं मानते. वो कहते हैं, "पुरस्कार स्वीकार करने के लिए सहमत होने से पहले विदर्भ साहित्य संघ में कौन-कौन से चित्र लगाए जाते हैं और इसे कौन से व्यक्ति संगठन चलाते हैं, यह जाँच लेना चाहिए था. इसे प्राप्त करने के लिए सहमति देने के बाद पुरस्कार लेने से इनकार करना अपमानजनक है."

"साहित्यकारों की स्वीकृति के बिना किसी भी पुरस्कार की घोषणा नहीं की जाती है. मैंने कई पुरस्कार समितियों में काम किया. यदि कोई व्यक्ति किसी विशेष पुरस्कार को लेने से इनकार करता है, तो उसके नाम की घोषिणा नहीं की जाती."

अनवर राजन
Facebook/Anvar Rajan
अनवर राजन

"इसलिए, पुरस्कार स्वीकार करने के लिए सहमति देने से पहले सोचना बेहतर है. यदि कोई सुझाव हैं, तो उन्हें सूचित किया जाना चाहिए. लेकिन, सहमति के बाद पुरस्कार लेने से इनकार करना सही नहीं है."

'संस्कृति संबंधी राजनीति के बारे में पुनर्विचार की ज़रूरत'

बीबीसी ने मराठी साहित्यिक दुनिया के कुछ नए चेहरों से भी बात की. 'सिंगल मिंगल' उपन्यास के लेखक और 'आपला आई-कार्ड' के सह-लेखक श्रीरंजन आवटे कहते हैं कि हमें संस्कृति से संबंधित राजनीति के बारे में पुनर्विचार करने की ज़रूरत है.

श्रीरंजन आवटे कहते हैं, अगर हम प्रतीकों का बतंगड़ बनाएंगे, तो प्रमुख मुद्दे से भटक जाएंगे. सीमा रेखा काफ़ी पतली और सापेक्ष है.

"प्रतीकों को सिर्फ़ पहचान तक सीमित नहीं किया जा सकता है और हमें ये समझना होगा कि हमें प्रतीकों पर बतंगड़ खड़ा करके प्रमुख मुद्दे के महत्व को कम नहीं करना चाहिए. ये एक बैलेंसिंग एक्ट है."

श्रीरंजन आवटे
Facebook/Shriranjan Awate
श्रीरंजन आवटे

आवटे कहते हैं, "हमें अड़ियल और अति शुद्धतावादी नैतिक रुख़ अपनाकर ख़ुद को समाज के बड़े तबके से दूर नहीं कर लेना चाहिए, और हमें उन लोगों का साथ भी नहीं देना चाहिए जो 'समरसता' का पालन करते हैं (सद्भाव; राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से स्थापित समरसता मंच नाम के संगठन के संदर्भ में). दोनों छोरों पर जाने से परहेज़ करते हुए कड़ा रुख़ अपनाना जोखिम भरा है. जो लोग सांस्कृतिक राजनीति में अपने नंबर बढ़ाना चाहते हैं, उन्हें समग्र समझ होनी चाहिए. जिन लोगों का ऐसा कोई उद्देश्य नहीं है वे एक अलग रास्ते पर चले जाएंगे."

श्रीरंजन आवटे कहते हैं, "बाबासाहेब ने हिंदू धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म को स्वीकारा. ये शोषण के प्रतीकों को नकार कर एक नए सांस्कृतिक विकल्प को व्यक्त करने का एक दृढ़ मौलिक प्रयास था. लेकिन, आज, जब सांस्कृतिक राजनीति का केंद्रीय स्थान दक्षिणपंथ की ओर झुका हुआ है, तो हमें सांस्कृतिक राजनीति पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है."

सोशल मीडिया पर चर्चा

सोशल मीडिया पर ये मुद्दा चर्चा में है. दो फ़ेसबुक पोस्ट विशेष ध्यान खींच रही हैं.

एक पोस्ट वरिष्ठ पत्रकार गणेश कनाटे की है. इसके मुताबिक़, "ये विदर्भ साहित्य संघ का प्रतीक चिह्न है. इसमें स्पष्ट लिखा है - विदर्भ विषय: सारस्वती जन्मभू:.. ये प्रतीक चिह्न पर 1923 से है. मनोहर सर सारी ज़िंदगी नागपुर में रहे हैं और अब भी वो वहीं रहते हैं. ये विश्वास करना मुश्किल है कि उन्होंने प्राचीन काव्यों से आचार्य राजशेखर द्वारा लिखे गए इन शब्दों को कभी भी प्रतीक चिह्न पर नहीं देखा या पढ़ा है. क्या उन्हें ये तब याद नहीं आया जब वो अवार्ड लेने के लिए अपनी सहमति दे रहे थे या उन्हें ये अवार्ड समारोह के दिन ही पता चला?"

"विदर्भ साहित्य संघ ने मनोहर सर को लाइफ़ टाइम अचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित करना चाहा. ये बेहतर होता अगर उन्होंने पुरस्कार स्वीकार करते समय सरस्वती की तस्वीर को माला पहनाने से इनकार कर दिया होता और उसी समय अपनी धर्मनिरपेक्ष स्थिति को दृढ़ता से रखा होता."

अन्य फ़ेसबुक पोस्ट लघुकथाओं की एक लोकप्रिय पुस्तक 'दोन शतकांच्या सांध्यावरच्या नोंदी' के लेखक बालाजी सुतार की है.

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उन्होंने लिखा, "प्रतीकों को स्वीकार/अस्वीकार करना एक महत्वपूर्ण क़दम है. प्रतीक बनाने के पीछे स्पष्ट/निहित स्वार्थ हैं और ऐसे प्रतिकों को मिटाने के पीछे भी ऐसे हित होते हैं. कई धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक मान्यताएं हैं जो विशेष प्रतीकों के पीछे बलों के रूप में काम करती हैं. ये कहना भोलापन होगा कि ऐसी कोई ताक़त नहीं है."

"आसान शब्दों में, प्रतीकों को बनाने/मिटाने का काम एक ख़ास एजेंडे को आगे ले जाने के लिए किया जाता है. कोई भी स्थिति किसी विशेष सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और जातिगत संरचना में हमारी जगह पर निर्भर होती है. अगर मेरी, आपकी और यशवंत मनोहर की जगह अलग-अलग है तो ये काफ़ी स्वाभाविक है कि हमारी स्थिति अलग होगी."

"आपकी पार्टी, धर्म और जाति आपके लिए जवाब देगी और तब आपको महसूस होगा कि आपकी स्थिति इस बात पर निर्भर नहीं है कि आप कहां खड़े हैं, बल्कि इस बात पर निर्भर है कि आप कहां पैदा हुए हैं."

"हमारे विश्वासों, विचारों, छिपे हुए धार्मिक और जातिवादी मनोग्रंथियों की वजह से बने तर्क सार्वभौमिक सत्य नहीं हैं. ये दुनिया, समाज और लोग एक जैसे नहीं हैं. दुनिया दूसरे पक्ष के लिए जगह होनी चाहिए."

कई लोगों ने इस तथ्य पर भी संतोष व्यक्त किया है कि मराठी साहित्य जगत केवल किसी बात के लिए या उसके ख़िलाफ़ एक स्टैंड लेने के बजाय इस मुद्दे पर चर्चा कर रहा है.

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English summary
Yashwant Manohar: The poet who did not take the award because of Saraswati's picture
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