विश्व जल दिवस: ना हमें शर्म आती है और ना हमारे रहनुमाओं को
22 मार्च को दुनिया विश्व जल दिवस मनाती है। देश के ऐसे कई हिस्से हैं जहां बाढ़ तो खूब आती है लेकिन पीने को पानी नहीं होता। पढ़ें इसी विषय पर विश्लेषण।
पानी रे पानी तेरा रंग कैसा, जिसमें मिला दो लगे जैसा। मुकेश कुमार, लता मंगेशकर ने गाया है। संगीत लक्ष्मीकांत प्यारे लाल का दिया हुआ। बोल संतोष आनंद के और फिल्म रोटी, कपड़ा और मकान। अरे! आप कहीं भटक तो नहीं गए। मैं आपको बिनाका गीत माला वाले अमीन सयानी की याद नहीं दिला रहा बल्कि आज 22 मार्च को विश्व जल दिवस है, उसकी याद दिला रहा हूं। पानी से जुड़ा इससे ज्यादा अच्छा और थीम बेस गाना याद नहीं आ रहा था, सो इसी का जिक्र किया।
खैर, अब आते हैं, मुद्दे पर। आप सिर्फ कुछ सेकेंड्स के लिए सोचिए कि अगर पानी ना हो, तो आपके कितने सारे काम रुक जाएंगे। जिस ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट (GDP) का दंभ दुनिया भर की सरकारें भरती हैं, वो सबसे पहले धाराशायी होगा। उसके बाद तो जो होगा वो होगा ही।
अब भी है उतना ही पानी लेकिन
यह बात तो स्पष्ट है कि GDP के नाम पर बेतहाशा आर्थिक विकास, संसाधनों का अनुपयुक्त दोहन, औद्योगीकरण और जनसंख्या विस्फोट से पानी का प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। इन सबके चलते पानी की खपत भी बढ़ रही है। हालांकि एक बात यह भी सच है कि जितना पानी आज से 2,000 साल पहले था, उतना ही अब भी है लेकिन उस वक्त की आबादी आज की कुल आबादी का सिर्फ 3 फीसदी ही थी।
सब भुला दिया जाता है
मैं दुनिया भर की बात नहीं करने जा रहा। मैं सिर्फ भारत की ही बात करुंगा। ये वो देश है जहां पानी का राजनीतिकरण हो जाता है। ये वो देश है जहां दो राज्यों के लिए आपस में सिर्फ पानी के बंटवारे के लिए सिर फुटौव्वल करते हैं। गर्मी आते ही देश के दिल्ली, मुंबई सरीखे इलाकों में पानी का संकट शुरु हो जाता है। तमाम नगरपालिकाओं और महानगरपालिकाओं के चुनाव में पानी मुख्य मुद्दा होता है लेकिन रूठे हुए को मनाकर सरकार बनाने के बाद सब भूला दिया जाता है।
ये होगी जरूरत
अब बात आंकड़ों की करते हैं। सेंट्रल वाटर कमीशन बेसिन प्लानिंग डारेक्टोरेट, भारत सरकार की ओर से 1999 में जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार देश में घरेलू उपयोग के लिए जहां साल 2000 में 42 बिलियन क्यूबिक मीटर की जरूरत थी, वो साल 2025 में बढ़कर 73 बिलियन क्यूबिक मीटर और फिर साल 2050 में जरूरत 102 बिलियन क्यूबिक मीटर हो जाएगी।
बढ़ती ही रहेगी जरूरत
इसी तरह सिंचाई, उद्योग, उर्जा समेत अन्य को जोड़कर सालाना जरूरत को ध्यान में रखा जाए तो साल 2000 में जहां 634 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी की जरूरत थी, वो साल 2025 में बढ़कर 1092 बिलियन क्यूबिक मीटर हो जाएगी और फिर साल 2050 में जरूरत 1447 बिलियन क्यूबिक मीटर हो जाएगी।
बनाई गई है जलनीति
यहां आपको बताना जरूरी हो जाता है कि हमारे देश में राष्ट्रीय जल नीति - 2012 बनाई गई। इससे पहले राष्ट्रीय जल नीति - 1987 भी बनाई गई थी। दोनों में लगभग समान बातें कही गई हैं। अब ये बाते किसके, कितनी समझ में आई, ये सर्वे का मुद्दा है। एक बार फिर से आंकड़ों की ओर चलते हैं।
जब आती है बाढ़
अगर हम देश के जमीनी क्षेत्रफल में से मात्र 5 फीसदी क्षेत्रफल में ही गिरने वाले बारिश के पानी को इकट्ठा कर सकें तो एक बिलियन लोगों को 100 लीटर पानी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन मिल सकता है। हमारे देश में एक और अजीब बात है। अब इसे संयोग कहें या दुर्भाग्य। देश के तमाम हिस्सों में हर साल बाढ़ आती है। नदियां अपने उफान पर होती हैं और इन्हीं इलाकों में सूखा पड़ता है।
काश की जलनीति का ये हाल होता
वो चाहे मध्य प्रदेश का मालवा हो या फिर उत्तर प्रदेश का पूर्वांचल। यूपी में ही बुंदेलखंड भी है, वहां की तो बात करना फिलहाल राष्ट्रीय जल की तमाम नीतियों का अपमान करने सरीखा होगा। इन नीतियों में जो कुछ भी लिखा या बताया गया है अगर उसका 50 फीसदी हिस्सा भी लागू हो जाए तो फिर यहां की समस्या ही खत्म हो जाए।
क्या ये बताने की जरूरत है?
यहां ये सब बताने की जरूरत तो बिल्कुल महसूस नहीं होती कि हमारी बहुत सारी नदियां प्रदूषित हो गई हैं। वो चाहे हाल ही में अदालत की ओर से जीवित मनुष्य का दर्जा प्राप्त नदी गंगा हो या फिर मध्य प्रदेश की बेतवा। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में असि की हालत खराब है।
कहीं ये ना छूट जाए
इसी असि के नाम पर अस्सी घाट बनाया गया है। वरुणा, कुआनो, मनोरमा सरीखी नदियों का नाम तो स्थानीय लोग जानते ही होंगे। वैसे भी पानी में प्रदूषण की बात क्या करना? बेंगलुरु की झीलों में आग तो ईश्वरीय अनुकंपा से लगती है। भले वैज्ञानिकों का मानना है कि ये सब प्रदूषण की वजह से हुआ है।
खैर, आज ये जरूरी है विश्व जल दिवस मना लिया जाए। कहीं कोई स्टेटस, डीपी या पानी के लिए तरसते किसी बच्चे की तस्वीर सोशल मीडिया पर साझा करने से ना छूट जाए। इसका विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए। तमाम दिवसों की यह भी अपनी एक सच्चाई है।
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