भारत-चीन युद्ध के कारण कैसे दो फाड़ हुई थी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी
भारत पर चीनी हमले का एक असर ये हुआ कि कम्युनिस्ट पार्टी का एक वर्ग कट्टरपन से हट कर राष्ट्रवाद की ओर अग्रसर हुआ जबकि दूसरे वर्ग ने चीन की सलाह पर नई पार्टी बना ली.
यूँ तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन 26 दिसंबर, 1925 को कानपुर में हुआ था लेकिन इस पार्टी की नींव 17 अक्तूबर, 1920 को उज़बेकिस्तान के ताशकंद शहर में रखी गई थी जो उस समय सोवियत संघ का हिस्सा था.
इस पार्टी के उदय में बहुत बड़ी भूमिका कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की रही थी. शायद यही वजह थी कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में कम्युनिस्टों की भूमिका पर कई सवाल उठे थे.
साल 1942 में महात्मा गाँधी ने जहाँ एक तरफ़ भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया तो दूसरी तरफ़ सोवियत संघ ने अपील की कि दूसरे विश्व युद्ध में भारतीय कम्युनिस्टों को ब्रिटिश सरकार की मदद करनी चाहिए. इन दो विकल्पों में से कम्युनिस्टों ने दूसरा विकल्प चुना.
नतीजा ये हुआ कि वह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से अलग-थलग पड़ गए. पचास और साठ के दशक में जिस घटना ने पूरी दुनिया में कम्युनिस्ट विचारधारा को प्रभावित किया वो था सोवियत चीन संबंधों का अचानक खराब हो जाना.
जब सोवियत संघ ने भारत की तरफ़ दोस्ती का हाथ बढ़ाया तो उसने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अपील की कि वो नेहरू की विदेश नीति का समर्थन करें, हालांकि पार्टी के कुछ वरिष्ठ सदस्य कांग्रेस की नीतियों के सख़्त ख़िलाफ़ थे.
जिन लोगों को सोवियत संघ की ये अपील पसंद नहीं आई और जो नेहरू के धुरविरोधी थे, उन्होंने मार्गदर्शन के लिए चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ़ देखना शुरू कर दिया.
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मोहित सेन को चीन भेजा
लेकिन इससे बहुत पहले साल 1950 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने उभरते हुए नेता मोहित सेन को चीन में रहने के लिए भेजा.
बाद में मोहित सेन ने अपनी आत्मकथा 'अ ट्रैवलर एंड द रोड' में लिखा, "पीएलए के एक सम्मेलन में हमने पहली बार चेयरमेन माओ को देखा. वहाँ उन्होंने कोई भाषण तो नहीं दिया लेकिन ऐसा कोई भाषण नहीं था जिसमें उनका ज़िक्र नहीं होता था और जब भी उनका नाम लिया जाता था लोग तालियाँ बजा कर उसका स्वागत करते थे."
"चीनी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा आयोजित स्वागत समारोह में हमने उन्हें फिर देखा. हर प्रतिनिधिमंडल को उनसे मिलवाया गया. जब मेरी बारी आई तो उन्होंने मुस्कराते हुए मुझसे हाथ मिलाया और चीनी भाषा में कहा, 'इंदू रेनमिन हंग हाओ' जिसका मतलब था 'भारतीय लोग बहुत अच्छे' होते हैं."
"उसी सम्मेलन में हमें चीनी नेताओं लिऊ शाओ क्वी और चू एन लाई से भी मिलने का मौका मिला. डेंग ज़ियाओ पिंग भी वहाँ रहे होंगे लेकिन तब तक वो इतने महत्वपूर्ण नहीं बने थे कि उन्हें हमसे मिलवाया जाता."
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नक्शों से हुई विवाद की शुरुआत
मोहित सेन चीन में तीन सालों तक रहे. भारत चीन युद्ध से करीब चार साल पहले उस समय दोनों देशो के संबंधों में कड़वाहट आनी शुरू हुई जब चीन ने अपने नक्शों में उत्तरपश्चिम और उत्तरपूर्व के बड़े भारतीय भूभाग को अपना बताना शुरू किया.
तब भारत के रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन ने कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं से संपर्क कर उनसे अनुरोध किया कि वो चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं को समझाएं कि इससे दोनों देशों के संबंध खराब हो रहे हैं.
उन्होंने इस बारे में कम्युनिस्टों के हितैषी फ़िरोज़ गांधी और प्रोफ़ेसर केएन राज से भी बात की.
बिद्युत चक्रवर्ती अपनी किताब 'कम्युनिज़्म इन इंडिया' में लिखते हैं, "कम्युनिस्टों के नेतृत्व ने नक्शों के बारे में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं से बात की, लेकिन इसका कोई ख़ास असर नहीं हुआ. कुछ दिनों बाद चीन सरकार ने भारत सरकार को सूचित किया कि उनके नक्शों में दिखाई गई ज़मीन हमेशा से चीनियों की रही है और उसे ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने उनसे हड़प लिया था."
"चीन ने 1914 में बनाई गई मैकमोहन लाइन को न तो कभी माना है और न ही मानेगा. चीन के इस फ़ैसले से कम्युनिस्टों समेत भारत में चीन के सभी मित्रों को बहुत धक्का पहुंचा लेकिन चीन अपनी ज़िद पर अड़ा रहा."
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नेहरू की नीतियों पर हमला
नेहरू ने इस पूरे मामले को तूल न देने का फैसला किया. उनका रुख़ था कि भारत और चीन के बीच कुछ ग़लतफ़हमियाँ हो गईं हैं जिन्हें जल्द ही दूर कर लिया जाएगा. इस पर कम्युनिस्टों को छोड़ कर पूरे विपक्ष ने नेहरू को आड़े हाथों लिया.
साल 1959 में चीनी नेतृत्व की तरफ़ से दूसरा आश्चर्यजनक कदम ये उठाया गया कि उन्होंने नेहरू पर सार्वजनिक रूप से हमला बोला.
चीनी अख़बार 'पीपुल्स डेली' में नेहरू की नीतियों पर हमला करते हुए संपादकीय लिखे गए और भारतीय कम्युनिस्ट नेताओं को बताया गया कि चेयरमेन माओ ने इन संपादकियों को अनुमोदित किया है. इन संपादकियों में लिखा गया कि "नेहरू प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ लोगों और ज़मींदारों का प्रतिनिधित्व करते हैं और साम्राज्यवादी ताकतों से जोड़तोड़ कर रहे हैं."
ये अब तक के चीनी रुख़ के बिल्कुल विपरीत था. साल 1957 में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को लिखे गए पत्र में यहाँ तक कहा गया था कि "हम ये नहीं समझ पा रहे कि आप कांग्रेस सरकार के विपक्ष में क्यों बैठे हुए हैं जबकि वो तमाम प्रगतिवादी नीतियाँ अपनाए हुए है."
इससे पहले 1956 में हुई आठवीं कांग्रेस में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने विश्व शांति और साम्राज्यवाद का विरोध करने के लिए भारत से सामरिक समझौता करने का फ़ैसला किया था. इस कांग्रेस में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ़ से ईएमएस नम्बूदरीपाद और पी सुंदरैया ने भाग लिया था.
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भूपेश गुप्त और अजय घोष पहले रूस और फिर चीन गए
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों में बदलाव से परेशान हो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने दो बड़े नेताओं भूपेश गुप्त और अजय घोष को मॉस्को भेजा था ताकि वो इस बारे में ख्रुश्चेव, सुसलोव और दूसरे सोवियत नेताओं से बात करें.
रूसियों ने उन्हें सलाह दी कि वो इस बारे में चीनियों से सीधे बात करें. तब भूपेश गुप्त और अजय घोष चीन गए थे लेकिन वो चीनी नेताओं की सोच में बदलाव लाने में नाकामयाब रहे.
चीनियों ने उन्हें तर्क दिया, "हम भारतीय अधिपत्य वाली ज़मीन में गड़े अपने पुरखों की कब्रों की सुरक्षा करने के लिए कृतसंकल्प हैं. हमारे पुरखों की हड्डियाँ भारत या उसके लोगों की दोस्ती से कहीं ज़्यादा कीमती हैं."
लेकिन जब इन दोनों नेताओं ने चेयरमेन माओ से मुलाकात की तो उन्हें ये आभास हुआ कि बात अभी उतनी नहीं बिगड़ी है.
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19 भारतीय सैनिकों की मौत
चीन से लौटने के बाद अजय घोष ने 'न्यू एज' अख़बार को एक इंटरव्यू दिया जिसमें उन्होंने बताया कि "चेयरमेन माओ ने हमारी बातों को बहुत धैर्य से सुना और इस बात से सहमत हुए कि भारत चीन संबंधों के बारे में चिंता करना स्वाभाविक है."
"लेकिन इन मतभेदों को आपसी समझबूझ से सुलझा लिया जाना चाहिए. जब तक याँगसीकियाँग और गंगा का पानी बहता रहेगा, भारत चीन दोस्ती जारी रहेगी."
लेकिन जिस शुक्रवार को ये इंटरव्यू प्रकाशित हुआ उसी दिन ख़बर आई कि कोंगका पास के पास चीनी सैनिकों ने घात लगाकर हमला किया जिसमें भारत के 19 सैनिकों मारे गए.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं ने अपने चीनी समकक्षों से इसका स्पष्टीकरण माँगा लेकिन वहाँ से इसकी कोई सफ़ाई नहीं दी गई. सीपीआई के नेतृत्व ने अपील की कि इस ख़ूनख़राबे पर चीनियों को दुख प्रकट करना चाहिए.
लेकिन भारत में चीनी दूतावास के अधिकारियों ने उन्हें सूचित किया कि "आक्रामक और प्रतिक्रियावादी सेना के सैनिकों की मौत पर कोई दुख प्रकट नहीं किया जाएगा."
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पार्टी में चीन को लेकर गहरे मतभेद
इस बीच भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में भारत चीन संबंधों को लेकर गहरे मतभेद उभरने शुरू हो गए थे. श्रीपद अमृत डांगे और एसजी सरदेसाई ने ज़्यादातर कम्युनिस्ट नेताओं द्वारा चीन की सार्वजनिक रूप से आलोचना न किए जाने के रुख़ का विरोध किया.
लेकिन सुंदरैया के नेतृत्व में पार्टी के एक प्रभावशाली वर्ग की नज़र में इस मामले में चीन की कोई ग़लती नहीं थी. सुंदरैया ने नक्शों और पुराने कागज़ातों के आधार पर ये सिद्ध करने की कोशिश की कि चीन के दावों में सच्चाई है.
उन्होंने ज़ोर दे कर कहा कि "चीनी कम्युनिस्ट कभी भी आक्रामक रुख़ नहीं अपनाएंगे जबकि भारत की बुर्जुआ सरकार साम्राज्यवादियों का समर्थन लेने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है. हमारा किसी भी हालत में नेहरू की प्रतिक्रियावादी सरकार के पीछे खड़े होने का सवाल नहीं उठता. सीपीआई ने हमेशा उनका विरोध और उन्हें सत्ता से हटाने का प्रयास किया है."
इस मुहिम में उनको बीटी रणदिवे, एम बासवपुनैया, प्रमोद दासगुप्ता और हरकिशन सिंह सुरजीत का समर्थन मिला. अजय घोष ने सुंदरैया की दलीलों का विरोध किया और राजेश्वर राव, भूपेश गुप्त, एमएन गोविंदन नायर और अच्युत मेनन उनके समर्थन में खड़े हो गए.
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अमृत डांगे खुलेआम चीनियों के विरोध में उतरे
भारत पर चीन के हमले के तुरंत बाद ईएमएस नंबूदरीपाद ने एक संवाददाता सम्मेलन बुलाया. श्रीपद अमृत डांगे को, जो उस समय दिल्ली में रह रहे थे, इस बारे में कोई सूचना नहीं दी गई.
मोहित सेन अपनी आत्मकथा 'अ ट्रैवलर एंड द रोड' में लिखते हैं, "संवाददाता सम्मेलन में पत्रकारों ने ईएमएस से पूछा आप चीनी हमले के बारे में क्या सोचते हैं? उन्होंने जवाब दिया कि चीनी उस क्षेत्र में घुसे हैं जिसे वो अपना समझते हैं. भारतीय भी उस ज़मीन की हिफ़ाज़त करने में लगे है जो उनकी नज़रों में उनकी है."
"नम्बूदरीपाद जवाब दे ही रहे थे कि वहाँ डांगे ने प्रवेश किया और व्यंग्यात्मक शैली में ईएमएस से पूछा, इस ज़मीन के बारे में आपकी खुद की राय क्या है? इससे पहले की ईएमएस कोई जवाब देते, डांगे ने कहा 'चीनियों ने न सिर्फ़ भारत पर हमला किया है, बल्कि उसकी ज़मीन पर कब्ज़ा किया है. कम्युनिस्ट देश की रक्षा करने के नेहरू की अपील और चीनियों को उचित जवाब देने का समर्थन करते हैं. उनके इस वक्तव्य से कम्युनिस्टों के गलियारों में सनसनी फैल गई."
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सोवियत कम्युनिस्ट चीन के विरोध में उतरे
डांगे यहाँ पर ही नहीं रुके. उन्होंने मॉस्को और दुनिया के दूसरे देशों में जाकर सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी और दुनिया की दूसरी कम्युनिस्ट पार्टियों से बात कर चीन के नेतृत्व की घोर आलोचना की और उनसे भारत के समर्थन में खड़े होने का अनुरोध किया.
चीन ने इसके जवाब में सभी 'सच्चे कम्युनिस्टों' से कहा कि वो नेहरू की सरकार का न सिर्फ़ विरोध करें बल्कि उसको हटवाने में भी मदद करें. इसके बाद कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक हुई जिसमें डांगे द्वारा उठाए गए कदम का समर्थन किया गया.
लेकिन कुछ नेताओं ने जिसमें सुंदरैया, प्रमोद दासगुप्ता और रणदिवे शामिल थे, उस प्रस्ताव का विरोध किया. इनमें से एक समूह तटस्थ था जो चाहता था कि पार्टी न तो चीनी कम्युनिस्टों का समर्थन करे और न ही उनकी निंदा करे.
इनको भूपेश गुप्त और नम्बूदरीपाद का समर्थन प्राप्त था. गोपाल बनर्जी ने डांगे की जीवनी में लिखा, "डांगे की स्थिति उस समय और मज़बूत हो गई जब सोवियत समाचार एजेंसी तास में छपे संपादकीय में चीनियों की घोर आलोचना के साथ साथ नेहरू की तारीफ़ की गई. साथ ही भारतीय इलाके से चीन की सेना के हटाने की माँग की गई."
"ख्रुश्चेव ने चीनी नेताओं माओ और चू एन लाई से संपर्क कर कहा कि अगर चीनी सैनिक भारतीय क्षेत्र से नहीं हटे तो वो चीन को तेल की आपूर्ति रोक देंगे. सोवियत धमकी की वजह से ही चीन ने एकतरफ़ा युद्धविराम की घोषणा कर दी."
चीन की सलाह पर पार्टी में विभाजन
डाँगे के रुख से असहमति रखने वाले कुछ नेताओं ने बाद में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया. वो अपने इस विचार पर कायम रहे कि चीन ने भारत पर हमला कर कोई गलती नहीं की है.
चीनी हमले का एक असर ये हुआ कि कम्युनिस्ट पार्टी का एक वर्ग कट्टरपन से हट कर राष्ट्रवाद की ओर अग्रसर हुआ जबकि दूसरे वर्ग ने न तो कट्टर विचारधारा का त्याग किया बल्कि पार्टी में 'बुर्जुआ राष्ट्रवाद' के प्रतिनिधियों का सख़्त विरोध करना जारी रखा.
कम्युनिस्ट पार्टी के एक बड़े नेता हरेकृष्ण कोनार चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं से मिलने चीन गए. वहाँ चीनियों ने उन्हें सलाह दी कि पार्टी में विभाजन हो जाना चाहिए. उन्होंने माओ को उद्धत करते हुए कहा, "एक को हमेशा दो हो जाना चाहिए. दो कभी एक नहीं हो सकता."
साल 1964 में पार्टी में हुए विभाजन के बाद कई लोगों ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी बना ली. पश्चिम बंगाल और केरल के अधिकतर नेता उनके साथ गए. आंध्र प्रदेश में करीब आधे लोग सीपीएम में चले गए.
दोनों पक्षों में कुछ नेता जैसे भूपेश गुप्त और नम्बूदरीपाद विभाजन नहीं चाहते थे. वैचारिक रूप से नम्बूदरीपाद विभाजन के खिलाफ़ थे लेकिन डांगे से उनका वैमनस्य उन्हें दूसरी पार्टी में ले गया.
एके गोपालन की विचारधारा राष्ट्रवादी थी लेकिन इसके बावजूद उन्होंने वहीं पार्टी चुनी जो उनके नेता नम्बूदरीपाद ने.
उधर, डेंग ज़ियाओ पिंग के नेतृत्व में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने माओ द्वारा लिए गए कई फ़ैसलों को पलटा लेकिन भारत के साथ टकराव के बारे में उसका आधिकारिक रुख़ वही रहा जो माओ के ज़माने में था कि 'भारत को सबक सिखाया जाना था.'
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