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अखिलेश की 'साइकिल' के बगैर अब कैसे बढ़ेगा मायावती का 'हाथी'?

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नई दिल्ली- सोचने वाली बात है कि जब उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में सपा-बसपा और आरएलडी (SP-BSP-RLD) जैसी तीन पार्टियों ने महागठबंधन (Alliance) बनाकर चुनाव लड़ा, तब तो उन्हें लोकसभा की 80 में से सिर्फ 15 सीटें ही मिलीं, तो मायावती (Mayawati) उनसे अलग होकर क्या कर लेंगी? लेकिन, बसपा (BSP) सुप्रीमो ने अगर ये फैसला लिया है, तो इसके पीछे उनकी कोई न कोई सोच जरूर होगी। वैसे एक चीज तो अभी से साफ है कि मायावती (Mayawati) को भी अपने फैसले पर पूरा भरोसा नहीं है। इसलिए, वो टेम्परोरी ब्रेक-अप और परमानेंट ब्रेक-अप जैसी बातें बोल रही हैं। वो भविष्य के लिए कुछ पत्ते अभी भी छिपा कर रख रही हैं।

उपचुनाव में अपनी ताकत टटोलना चाहती हैं

उपचुनाव में अपनी ताकत टटोलना चाहती हैं

बीएसपी (BSP) के लिए उपचुनाव (Bypolls) लड़ने का फैसला थोड़ा अनोखा लगता है। क्योंकि, आमतौर पर यह पार्टी उपचुनाव (Bypolls) से दूर रहती आई है। 2018 में जब यूपी में गोरखपुर, कैराना और फूलपुर में हुए उपचुनाव ने देशभर में बीजेपी विरोधियों को अपने मन-मुताबिक नरेटिव सेट करने का मौका दिया था, तब भी तीनों सीटों पर बसपा ने अपना उम्मीदवार नहीं दिया था। लेकिन, अब मायावती (Mayawati) प्रेस कांफ्रेंस में ऐलान कर चुकी हैं कि वह यूपी (UP) में खाली हुई विधानसभा की 11 सीटों पर अपने उम्मीदवारों को उतारेंगी। बसपा (BSP) की राजनीति को समझने वालों के लिए यह बहनजी की रणनीति में एक नया बदलवा लग सकता है। शायद इस उपचुनाव (Bypolls) के बहाने बीएसपी (BSP) उत्तर प्रदेश (UP) की बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों में अपने असली जनाधार का आकलन करना चाहती हैं। शायद वो ये देखना चाहती हैं कि उनका कोर दलित वोटर पहले की तरह ही अभी भी उनके साथ है या नहीं? क्योंकि, गठबंधन के तहत चुनाव में उसका सही अंदाजा लगाना थोड़ा मुश्किल है। ऊपर से यूपी में इसबार बीजेपी का जितना वोट शेयर बढ़ा है, वह भी उन्हें बहुत ज्यादा परेशान कर रहा है। मसलन, 2014 में भाजपा को यहां सिर्फ 42.63% वोट मिले थे, जो कि इसबार बढ़कर 49.56% हो गया है। शायद माया जानना चाहती हैं कि बीजेपी ने उनके कोर वोट बैंक में तो सेंध नहीं लगा दी है?

माया के मन में चल क्या रहा है?

माया के मन में चल क्या रहा है?

यूपी में 2014 के मुकाबले बसपा (BSP) का वोट शेयर 2019 में लगभग स्थिर रहा है। पिछली बार उसे 19.6% वोट मिले थे, जो इसबार 19.3% है। लेकिन, इसबार बीएसपी (BSP) 80 में से सिर्फ 38 सीटों पर ही लड़ी थी। लेकिन, फिर भी बीएसपी (BSP) को 2014 के मुकाबले 10 सीटों पर इसबार सफलता मिली है, जो कि उसकी उम्मीदों से काफी कम है। मायावती (Mayawati) को सपा-आरएलडी (SP-RLD) से गठबंधन के भरोसे कम से कम 20 सीटों पर जीत की उम्मीद थी। अब उन्हें लगता है कि जिन 10 सीटों पर जीत मिली है, उसमें महागठबंधन का कोई रोल नहीं, बल्कि उनके परंपरागत दलित वोटरों का उनके प्रति समर्पित बने रहने के कारण ही यह संभव हुआ है। वैसे हकीकत यह है कि 2014 में 2019 से थोड़ा ज्यादा वोट पाकर भी बसपा (BSP) को एक भी सीट नहीं मिली थी। 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में वह अकेले 403 सीटों पर लड़ी थी और 22.23% वोट शेयर के साथ केवल 19 सीटें ही जीत सकी थी। इसलिए, मौजूदा परिस्थितियों में वह अकेले अपने दम पर अपना परफॉर्मेंस बेहतर कर पाएगी, इसकी गुंजाइश दिखने का कहीं से कोई कारण नजर नहीं आ रहा है।

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इसलिए परमानेंट ब्रेक-अप का जोखिम नहीं ले रहीं

इसलिए परमानेंट ब्रेक-अप का जोखिम नहीं ले रहीं

जो आशंकाएं और कयास बाकी लोग लगा रहे हैं, वो सारी बातें बीएसपी (BSP) अध्यक्ष के मन में भी चल रही होगी। इसलिए उन्होंने अखिलेश को फिलहाल ब्रेक-अप का नोटिस भर दिया है। तीन साल बाद 2022 में जब यूपी विधानसभा (UP Assembly) के लिए चुनाव होंगे, तबतक के लिए उन्होंने अपना विकल्प खोल रखा है। यही नहीं, 2022 और 2019 के बीच में 2020 भी आने वाला है। जब उत्तर प्रदेश से राज्यसभा में एंट्री की गुंजाइश बनेगी। बीएसपी सुप्रीमो अभी किसी भी सदन की सदस्य नहीं हैं। पिछले साल उन्होंने दलितों के उत्पीड़न के बहाने अपना विरोध दर्ज कराते हुए राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया था। अगर, तब वो फिर से राज्यसभा (Rajyasabha) में जाना चाहेंगी, तो उन्हें फिर से समाजवादी पार्टी (SP) और आरएलडी (RLD) के अलावा कांग्रेस का भी मुंह ताकना पड़ेगा। इसलिए, उन्होंने अभी अपने सारे पत्ते नहीं खोले हैं और अपने सियासी बबुआ को सुधरने का एक मौका देने की बात कह रही हैं। अलबत्ता, ये बात अब समाजवादी पार्टी (SP) और अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) पर निर्भर करेगी कि वह बुआ के इस नए सियासी हथकंडे को वे किस रूप में लेते हैं। क्योंकि, जब 2014 और 2019 में वो बगैर बसपा (BSP) के चुनाव लड़े थे, तब भी उनका परफॉर्मेंस बहनजी की पार्टी से कहीं ज्यादा अच्छा हुआ था।

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English summary
Without Akhilesh's 'bicycle', Mayawati's 'elephant' will now be able to go alone?
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