केजरीवाल की मुफ़्त मेट्रो नीति से बदलेगी महिलाओं की ज़िंदगियां?
दिल्ली का एक वर्ग जहां इस निर्णय को महिलाओं के हित में एक अच्छा कदम बताते हुए इसका स्वागत कर रहा है, वहीं दूसरा वर्ग इसे मुफ़्तख़ोरी को बढ़ावा देने वाला अरविंद केजरीवाल सरकार का एक चुनावी स्टंट बता रहा है. इस फ़ैसले को दिल्ली के माहौल की रोशनी में देखना ज़रूरी है. इस निर्णय को समझने के लिए ज़रूरी है दिल्ली की सामाजिक बुनावट को समझना.
दिल्ली में महिलाओं के लिए मेट्रो और बस यात्रा मुफ़्त किए जाने के दिल्ली सरकार के निर्णय के बाद से ही सोशल मीडिया से लेकर शहर की सड़कों तक पर इस मुद्दे को लेकर तीखी बहस छिड़ी हुई है.
दिल्ली का एक वर्ग जहां इस निर्णय को महिलाओं के हित में एक अच्छा कदम बताते हुए इसका स्वागत कर रहा है, वहीं दूसरा वर्ग इसे मुफ़्तख़ोरी को बढ़ावा देने वाला अरविंद केजरीवाल सरकार का एक चुनावी स्टंट बता रहा है.
इस फ़ैसले को दिल्ली के माहौल की रोशनी में देखना ज़रूरी है. इस निर्णय को समझने के लिए ज़रूरी है दिल्ली की सामाजिक बुनावट को समझना.
देश का दिल 'दिल्ली'
देश के दिल 'दिल्ली' की सबसे ख़ास बात यह है कि यह किसी एक की नहीं. यह आज़ादी के बाद शहर के करोल बाग़, राजौरी गार्डन और मालवीय नगर जैसे इलाक़ों में आकर बसे तत्कालीन शरणार्थियों की भी उतनी ही है, जितनी कि उन अनुमानित 33 प्रतिशत प्रवासियों की, जो एक बेहतर ज़िंदगी का सपना लेकर दिल्ली आते हैं.
दिल्ली बँटवारे के वक़्त भारत में ही रहने का चुनाव करने वाले जामा मस्जिद-दरीबां कलां के बाशिंदों की भी उतनी ही है जितनी साठ के दशक में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान से विस्थापित होकर चितरंजन पार्क में बसे बंगालियों की.
उच्च शिक्षा, बेहतर नौकरी या सिर्फ़ मज़दूरी की तलाश में हर दिन सैकड़ों की तादाद में दिल्ली का रुख करने वाली 'माइग्रेंट' जनसंख्या को भी यहां सस्ती बस्तियों में पनाह मिल जाती है.
#फ़्रीमेट्रोफ़ॉरविमेन
मीडिया से बातचीत में आम आदमी पार्टी की सरकार से साफ़ कहा है कि महिलाओं को मेट्रो तथा बसों में मुफ़्त यात्रा उपलब्ध करवाने की उनकी इस नई नीति का टार्गेट ग्रुप यहां रहने वाले 'सबसे अमीर' लोग नहीं हैं. न ही दिल्ली में फैली पुरानी नौकरशाही, समृद्ध व्यापारी वर्ग या दिल्ली का विशाल अपर मिडल क्लास. इस नीति का लक्ष्य समाज के निचले तबके से आने वाली उन महिलाओं को लाभ पहुंचाना है जिन्हें हर रोज़ काम पर जाने के लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करना पड़ता है.
साथ ही, वे सक्षम महिलाएं जिनके पास मेट्रो या बस में अपने टिकट ख़ुद ख़रीदने का सामर्थ्य है, सरकार उन्हें अपने पैसे ख़ुद भरने के लिए प्रोत्साहित भी करती है ताकि इस सब्सिडी का सही फ़ायदा ज़रूरतमंद महिलाओं तक पहुंच सके.
दिल्ली में रहने वाली जनसंख्या की विविधता को देखते हुए यह कहना ग़लत नहीं होगा की राज्य सरकार के इस नए जन कल्याणकारी कदम से शहर की हज़ारों ज़रूरतमंद महिलाओं को सीधा फ़ायदा पहुंचेगा.
वर्कफ़ोर्स में महिलाओं की गिरती भागीदारी
यहां यह बताना भी ज़रूरी है कि ताज़ा आकंडों के अनुसार कामकाजी भारतीय वर्कफ़ोर्स में महिलाओं की राष्ट्रीय हिस्सेदारी 2005 के 36.7 प्रतिशत से घटकर 2018 में मात्र 26 प्रतिशत रह गया है. दिल्ली जैसे महानगर में यह आँकड़ा आज मात्र 11 प्रतिशत पर टिका हुआ है.
इस लिहाज़ से देखें तो #फ़्रीमेट्रोफ़ॉरविमेन की नीति दिल्ली में महिलाओं के काम के दायरे को बढ़ाने में मदद करेगी. मिसाल के तौर पर, नौकरी के लिए मुफ़्त मेट्रो की वजह से नोएडा में रहने वाली एक कामक़ाज़ी महिला बेहतर विकल्प की तलाश में गुड़गाँव तक जाने में भी सहूलियत होगी.
काम का दायरा बढ़ाने के साथ-साथ मुफ़्त पब्लिक ट्रांसपोर्ट महिलाओं को घरों से बाहर निकलकर काम ढूँढने में भी मददगार होगा.
साथ ही, ऐसे समाज में जहां लड़कियों की शिक्षा और करियर में किसी भी तरह के 'निवेश' को परंपरागत तौर पर 'फ़िज़ूल' माना जाता है, वहां मुफ़्त मेट्रो की वजह से लड़कियां ऊँची शिक्षा और नौकरी के लिए नेशनल कैपिटल रीज़न के अलग-अलग कोनों में जा सकेंगी.
आप सरकार के सामने चुनौतियां
केजरीवाल के आलोचकों का कहना है कि 2020 में होने वाले राज्य चुनावों के लिए रणनीतिक तौर पर आम आदमी पार्टी की राज्य सरकार यह लोकलुभावन कदम उठा रही है.
इस नई नीति के सामने कई चुनौतियां भी हैं. पहली चुनौती है इस नीति के लिए जारी किए गए बजट की स्थिरता. यूं तो आप सरकार ने मीडिया में बयान देते हुए कहा है कि उनके पास ट्रांसपोर्ट के ऊपर ही ख़र्च किए जाने वाले बजट में मौजूद 'सरप्लस बजट' है जिसे वह इस नई नीति के पालन में इस्तेमाल करेंगे लेकिन यह निवेश कितना स्थाई होगा, यह देखने वाली बात है.
दूसरी चुनौती ये है दिल्ली के ट्रांसपोर्ट नेटवर्क को आख़िरी नागरिक तक के लिए सुलभ बनाना, क्योंकि अगर मुफ़्त ट्रांसपोर्ट होने के बाद भी महिलाओं को सुबह काम पर जाने के लिए बस पकड़ने घर से चार किलोमीटर का सफ़र पैदल/रिक्शा के ज़रिए तय करना पड़े तो उनकी सुरक्षा का प्रश्न जस का तस बना रहेगा.
2012 के दिसम्बर गैंग रेप जैसे क्रूर दुर्भाग्यशाली घटना की साक्षी रही दिल्ली से ज़्यादा सुरक्षित-सुलभ और सस्ते पब्लिक ट्रांसपोर्ट की क़ीमत कौन समझेगा?