योगी सरकार की 'ठोंको नीति' से इंसाफ़ मिलेगा या अपराध बढ़ेगा?
बिना किसी न्यायालय में मुक़दमा चलाए किसी अभियुक्त को सीधे 'गोली मार देने' जैसी प्रवृत्ति पर रोक लगाने की कई लोग मांग कर रहे हैं.
कानपुर के बिकरू गाँव में आठ पुलिसकर्मियों की हत्या के बाद मुख्य अभियुक्त विकास दुबे और उनके पाँच कथित सहयोगियों की संदिग्ध मुठभेड़ में हुई मौत ने एनकाउंटर के तरीक़े और औचित्य पर सवाल उठा दिए हैं.
राज्य सरकार ने बिकरू कांड और उसके बाद हुए एनकाउंटर की जांच के लिए न्यायिक आयोग का गठन कर दिया है लेकिन सरकार में एनकाउंटर्स को नीति बना लेने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने की मांग एक बार फिर तेज़ हो गई है.
बिकरू गाँव में हत्या के प्रयास के एक मामले में अभियुक्त विकास दुबे को गिरफ़्तार करने गई एक पुलिस टीम पर कुछ लोगों ने हमला बोल दिया, जिसमें सीओ समेत आठ पुलिसकर्मी मारे गए. इस घटना का मुख्य अभियुक्त विकास दुबे को माना गया और उनकी तलाश में क़रीब एक हफ़्ते तक पुलिस ने कई राज्यों में हाथ-पैर मारे लेकिन उनका पता नहीं लगा सकी.
इस दौरान पुलिस ने विकास दुबे का साथ देने के आरोप में कई लोगों को गिरफ़्तार किया और पाँच लोगों को कथित तौर पर 'भागने की कोशिश और पुलिस पर हमला करने' के आरोप में मार दिया.
विकास दुबे को उज्जैन के महाकाल मंदिर से मध्य प्रदेश पुलिस ने गिरफ़्तार किया लेकिन अगले दिन सुबह इसी तरीक़े से उन पर भी 'पुलिस ने आत्मरक्षा में गोली चलाने की बात कही और विकास दुबे की मौत हो गई.
इन सभी छह मुठभेड़ों का संयोग एक जैसा था और सभी के मारे जाने की कहानी भी लगभग एक जैसी ही है. विकास दुबे की मौत के बाद मुठभेड़ के इन तरीक़ों की ज़बर्दस्त आलोचना शुरू हुई और बताया जा रहा है कि उसी का नतीजा है कि दो दिन बाद सरकार ने मुठभेड़ की घटना की न्यायिक जांच कराने का फ़ैसला लिया.
अपराध पर 'ज़ीरो टॉलरेंस'
उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में बीजेपी सरकार जब से बनी है तब से अपराध के मामले में सरकार ज़ीरो टॉलरेंस का दावा करती रही है. यह अलग बात है कि इन सबके बावजूद हर तरह के अपराध लगातार हो रहे हैं.
विकास दुबे और उनके सहयोगियों ने जिस दिन कथित तौर पर आठ पुलिसकर्मियों की हत्या की थी उसी दिन प्रयागराज में एक ही परिवार के चार लोगों की निर्दयतापूर्वक हत्या कर दी गई थी और इस तरह की कई घटनाएं इसी शहर में पिछले कुछ समय से क़रीब छह बार हो चुकी हैं.
इसके अलावा भी अपराध के मामले में यूपी में कोई कमी नहीं आ रही है. राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ विधानसभा तक में इस बात को दोहरा चुके हैं कि 'अपराधी या तो सुधर जाएं, नहीं तो ठोंक दिए जाएंगे.' इन सबके बावजूद अपराध हो रहे हैं.
पिछले तीन साल के दौरान राज्य में एनकाउंटर की क़रीब तीन हज़ार घटनाएं हो चुकी हैं जिनमें अब तक 119 लोगों की जान जा चुकी है.
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट भी हस्तक्षेप कर चुका है और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग राज्य सरकार को तीन बार नोटिस दे चुका है लेकिन राज्य सरकार ने साफ़तौर पर बता दिया कि कोई भी एकाउंटर फ़र्जी नहीं हुआ है.
त्वरित न्याय की दलील कहां तक ठीक?
यूपी में लगातार बढ़ती इस प्रवृत्ति पर सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जैसी संस्थाओं के अलावा कई अन्य संगठनों, क़ानूनी जानकारों और अन्य लोगों की ओर से भी चिंता जताई जा रही है.
विकास दुबे मामले की जांच के लिए भी सुप्रीम कोर्ट में कुछ याचिकाएं दाख़िल की गई हैं और बिना किसी न्यायालय में मुक़दमा चलाए किसी अभियुक्त को सीधे 'गोली मार देने' जैसी प्रवृत्ति पर रोक लगाने की मांग की गई है.
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता प्रशांत भूषण कहते हैं, "क्या पुलिस को बिना क़ानूनी प्रक्रिया के किसी अभियुक्त को मारने का अधिकार दिया जा सकता है. यह स्थिति हमें कहां ले जाएगी, इसकी आप कल्पना कर सकते हैं."
"कल को कोई मुख्यमंत्री बनेगा और जिससे उसे दुश्मनी निकालनी होगी, उसके ऊपर कोई मुक़दमा दर्ज कराके उसका एनकाउंटर करा देगा. विकास दुबे आतंकवादी था और उसे मौत मिलनी ही चाहिए थी लेकिन सच्चाई यह है कि पुलिस ने उसका मुंह बंद करने के लिए उसे मार दिया."
वरिष्ठ पत्रकार सुभाष मिश्र कहते हैं कि हैदराबाद में बलात्कार के अभियुक्तों को मार देने या फिर विकास दुबे के सहयोगियों को मारने के पीछे एक तर्क यह भी दिया जाता है कि ऐसा जनभावना के तहत किया गया होगा.
वो कहते हैं, "जनभावना के नाम पर क़ानून और संविधान की तिलांजलि तो नहीं दी जा सकती है. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या हुई, इंदिरा गांधी की हत्या हुई, राजीव गांधी की हत्या हुई, कसाब को लोगों ने अपनी आँखों से देखा था कि वो निर्दोष लोगों को मार रहा है, फिर भी ऐसा मामलों में भी क़ानूनी प्रक्रिया का पूरा पालन किया गया और उन्हें अपनी बात रखने का मौक़ा दिया गया. जनभावना तो तब भी रही होगी कि इन अपराधियों को मार दिया जाए लेकिन ऐसा नहीं हुआ."
सुभाष मिश्र कहते हैं कि जनभावना के नाम पर पुलिस या सरकार को मनमानी करने का अधिकार क़तई नहीं मिलना चाहिए, अन्यथा पुलिस भी अपराधियों के एक गैंग की तरह बन जाएगी जो कभी सरकार के इशारे पर तो कभी ख़ुद भी फ़र्ज़ी एनकाउंटर में निर्दोष लोगों को निशाना बनाने लगेगी.
यूपी के रिटायर्ड आईपीएस एधिकारी वीएन राय भी इस तरह के एनकाउंटर्स को पुलिस पर धब्बा बताते हैं और कहते हैं कि इससे जनता पर पुलिस का विश्वास कमज़ोर होगा.
लेकिन यूपी के डीजीपी रह चुके रिटायर्ड आईपीएस एके जैन कहते हैं कि गैंग बनाकर अपराध करने वाले लोगों के साथ थोड़ी सख़्ती करनी ही पड़ती है. जैन कहते हैं कि ऐसा करने से अपराधियों में ख़ौफ़ तो होता ही है, अपराध में कमी भी आती है और पुलिस का मनोबल भी बढ़ता है.
बीबीसी से बातचीत में एके जैन कहते हैं, "कुख्यात लोगों को मारने से पुलिस का मनोबल बढ़ता है और आम जनता का भी मनोबल बढ़ता है. अपराधी को ख़त्म करने के लिए साम-दाम-दंड-भेद हर तरह की नीति अपनानी पड़ती है. मैंने ख़ुद कई दुर्दांत डाकुओं को ख़त्म करने के लिए चलाए गए ऑपरेशन्स का नेतृत्व किया और सफलता भी मिली. उससे आम जनता में जो प्रसन्नता थी, वो देखने लायक़ थी."
एके जैन कहते हैं कि सवाल तो उठते रहते हैं लेकिन कभी-कभी इस तरह के क़दम उठाने पड़ते हैं. उनका दावा है कि फ़र्ज़ी मुठभेड़ में निर्दोष को मारने वाले पुलिसकर्मी कभी बच नहीं सकते, अदालत में उन्हें सज़ा मिलकर रहेगी. हालांकि कुछ अन्य पुलिस अधिकारी ऐसे एनकाउंटर्स के पक्ष में नहीं हैं.
वीएन राय कहते हैं कि एनकाउंटर्स जहां ज़रूरी हैं या जहां पुलिस वालों के सामने सुरक्षा का संकट है, वहां जायज़ ठहराया जा सकता है लेकिन यूपी में पिछले दो-तीन सालों में जिस तरह के एनकाउंटर्स हुए हैं और उन पर सवाल उठे हैं, वैसे एनकाउंटर्स 'क़ानून के राज' का मखौल उड़ाते हैं. वीएन राय इसके लिए पुलिस सुधार की ज़रूरत पर भी बल देते हैं.
एनकाउंटर्स के माध्यम से कथित अपराधियों को मारने का भारत में एक लंबा इतिहास रहा है. देश में कई ऐसे एनकाउंटर्स रहे जिन पर सवाल उठे, लंबे समय तक अदालतों में उनकी सुनवाई हुई और कुछ मामलों में एनकाउंटर्स को अंजाम देने वालों को सज़ा भी हुई.
पश्चिम बंगाल, पंजाब, कश्मीर और कुछ अन्य जगहों पर सशस्त्र अलगाववादी आंदोलनों और नक्सलवाद से लड़ाई के क्रम में न्यायिक प्रणाली को दरकिनार करते हुए कई एनकाउंटर्स हुए थे.
इनमें भी तमाम एनकाउंटर फ़र्जी बताए गए और फिर उनका ट्रायल भी हुआ था जिसमें कुछ मामलों में पुलिसकर्मियों को सज़ा भी हुई है. बावजूद इसके एनकाउंटर्स जारी हैं.