क्या दिग्विजय के खिलाफ 'हिंदुत्व' का चेहरा उतारने का बीजेपी का दांव फेल हो सकता है?
नई दिल्ली- भोपाल से बीजेपी उम्मीदवार साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर (Sadhvi Pragya Thakur) का चुनाव प्रचार, जेल में उन्हें मिली कथित प्रताड़ना और 'भगवा आतंकवाद' जैसे शब्द गढ़ने वालों को सजा दिलाने के आसपास ही घूमता नजर आता है। वो 2008 के मालेगांव धमाकों की आरोपी हैं, जिसमें 6 लोगों की मौत हो गई थी और सौ से ज्यादा जख्मी हुए थे। अलबत्ता, वो अपने ऊपर लगे सभी आरोपों को 'हिंदुओं को बदनाम करने की बड़ी साजिश' बता कर खारिज करती हैं। अब पॉलिटिकल पंडितों का मानना है कि उन्हें चुनाव में उतारना एक तरह से बीजेपी के हिंदुत्व के एजेंडे पर वापस लौटने जैसा है, जो इस चुनाव में राष्ट्रवाद और विकास के मुद्दे के साथ उतरी थी। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या वो हिंदुत्व का नया चेहरा बन पाएंगी?
प्रज्ञा का प्रयास
हिंदुस्तान टाइम्स की एक खबर के मुताबिक भोपाल में बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता ने नाम नहीं बताने की शर्त पर जो कुछ कहा उसका लब्बोलुआब ये है कि पार्टी अब राष्ट्रवाद के मसले को भी 49 साल की साध्वी (Sadhvi Pragya Thakur) के जरिए साधना चाहती है। उनके शब्दों में, "यह वोट की जंग नहीं है, यह देश-विरोधी भावना के खिलाफ लड़ाई है...." यानी प्रज्ञा पार्टी की इस लाइन में भी पूरी तरह से फिट बैठती हैं। बीजेपी उम्मीदवार की जो शारीरिक स्थिति है और उन्हें कहीं जाने-आने के लिए दो या उससे ज्यादा लोगों का सहारा लेना पड़ता है, उससे उनकी ये रणनीति और मजबूत होती है। साध्वी बताती भी हैं कि उन्होंने जेल में 9 वर्ष कैसे बिताए और लोग उनकी स्थिति को उन्हें दी गई कठोर यातनाओं से आसानी से जोड़ भी सकते हैं। जाहिर है कि वो अपने साथ हिरासत में हुए जिन वाक्यातों का जिक्र करती हैं और उसे कथित रूप से 'भगवा आतंकवाद' की साजिश से भी जोड़ती हैं। इसलिए उनके निशाने पर आसानी से उनके विरोध में खड़े कांग्रेस उम्मीदवार दिग्विजय सिंह आ जाते हैं। सीहोर की एक सभा में उन्होंने कहा, "दिग्विजय सिंह ने मुझे प्रताड़ित किया, वो सूत्रधार हैं...." गौरतलब है कि बाटला हाउस एनकाउंटर से लेकर मालेगांव धमाकों के बाद दिग्विजय सिंह ने अपनी जो छवि बनाई है, उसके चलते प्रज्ञा ठाकुर खास विचारधारा के लोगों के बीच अपनी बात आसानी से पहुंचा सकती हैं।
संघ का साथ
जानकारों की राय में दिग्विजय से मुकाबले के लिए प्रज्ञा (Sadhvi Pragya Thakur)बीजेपी से ज्यादा आरएसएस (RSS) की पसंद हैं। दिग्विजय सिंह ने अपने बयानों और आलोचनाओं से खुद को आरएसएस (RSS) की विचारधारा का कट्टर विरोधी बनाया है। ऐसे में संघ के नेताओं के सामने उन्हें चुनौती देने के लिए प्रज्ञा बेहतर विकल्प थीं। अभी मध्य प्रदेश में काम कर रहे आरएसएस (RSS) के एक कार्यकर्ता ने बताया कि, " देश को अस्थिर करने की कोशिश की जा रही है। जब बाहर के दुश्मन हमारे जवानों पर हमला कर रहे हैं, हमारे विश्वविद्यालयों में और दूसरे माध्यमों से विध्वंसक शक्तियां काम कर रही हैं, सिर्फ बीजेपी के पास ही इसे रोकने का इरादा है।" शायद आरएसएस (RSS) को उम्मीद है कि राष्ट्रवाद (nationalism) और हिंदुत्व (Hindutva) का जो नरेटिव भोपाल में सेट हो रहा है, वह देश के उन हिस्सों में भी असर डालेगा, जहां अगले दौर में चुनाव होने वाले हैं। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी एक इंटरव्यू में प्रज्ञा की उम्मीदवारी का समर्थन कर चुके हैं और उनके बचाव में ये भी दलील दे चुके हैं कि गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए उन्हें भी कई तरह के केस में फंसाने की कोशिश की गई थी।
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आंतरिक विरोध से भी इनकार नहीं
ये बातें भी सामने आ रही हैं कि साध्वी की उम्मीदवारी को लेकर पार्टी के भीतर भी अंतरविरोध है। खबरें तो यहां तक हैं कि कॉर्पोरेटर्स और विधायकों को उनके पक्ष में प्रचार करने की सख्त हिदायत देनी पड़ी है। हालांकि, पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तो पहले ही दिन से उनके साथ दिखाई पड़े थे। उमा भारती भी उनके पक्ष में उतर चुकी हैं। फिर भी जानकारों का मानना है कि उनकी उम्मीदवारी को लेकर आम कार्यकर्ताओं में एक असहजता की स्थिति है। क्योंकि, उन्हें पार्टी में शामिल कराकर अचानक उनकी उम्मीदवारी घोषित कर दी गई। लेकिन, जिस तरह से आरएसएस, मोदी और अमित शाह उनके साथ हैं, उसके कारण शायद विरोध उभर नहीं पाया है।
प्रज्ञा की उम्मीदवारी पर क्या सोचते हैं भोपाल के लोग?
भोपाल में करीब 20% मुस्लिम जनसंख्या है, जो उनकी उम्मीदवारी से सहज नहीं हैं। हालांकि, भोपाल के युवाओं और खासकर छात्रों में मोदी के नाम पर बीजेपी के पक्ष में उत्साह बरकरार है। कुछ छात्रों में प्रज्ञा ठाकुर (Sadhvi Pragya Thakur)के दावों को लेकर असमंजस की स्थिति है। वहीं कुछ हेमंत करकरे को लेकर दिए गए उनके विवादित बयान से पूरी तरह से असहमत हैं। ऐसी स्थिति में भोपाल में राजनीतिक की बारीक समझ रखने वालों की राय है कि अगर भाजपा को हिंदुत्व का एजेंडा ही चलाना था, तो उमा भारती ज्यादा बेहतर हो सकती थीं। ऐसे में उन्हें पीड़ित हिंदुत्व के चेहरे के तौर पर पेश करने का बीजेपी और संघ का एजेंडा कितना कारगर साबित होता है, यह देखने वाली बात होगी।