Ayodhya Case:क्या मध्यस्थता से सुलझ जाएगा रामजन्मभूमि विवाद ?
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बेंगलुरु।अयोध्या में रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद अगर मध्यस्थता से सुलझ जाता हैं तो इससे अच्छा कुछ और हो ही नहीं सकता। करोड़ों लोगों की धार्मिक भावना से जुड़ा यह वर्षों पुराना केस आपसी बातचीत से सुलझता हैं तो यह सामाजिक एकता की यादगार ऐतिहासिक मिसाल बन जाएगा। लेकिन सवाल ये हैं कि क्या ये इतना आसान होगा ?
बता दें सुप्रीम कोर्ट में इस केस की सुनवाई चल रही हैं इसी बीच इस मामले में रोचक मोड़ ले लिया है। कोर्ट में लगभग 3 हफ्ते की सुनवाई के बाद अब हिन्दू और मुस्लिम पक्ष ( निर्वाणी अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड) एक बार फिर से कोर्ट के बाहर इस मुद्दे को सुलझाना चाहते हैं। इसके लिए दोनों पक्षों ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित मध्यस्थता पैनल को पत्र लिखा हैं।
इसके बाद लोगों में फिर से एक नयी उम्मीद जागी है। इस मामले के विशेषज्ञ मानते हैं कि ऐसा कोई विवाद नहीं जिसे बातचीत से न सुलझाया जा सके। इसके लिए पक्के संकल्प और मजबूत इच्छाशक्ति कीआवश्यकता है। अयोध्या मामले में बातचीत के अब तक कई प्रयास हुए लेकिन हर बार उसमें समय ही खराब हुआ कोई सार्थक परिणाम निकल कर नहीं आया।
अब तक कई बार कोशिश हुई कि बातचीत के जरिये अयोध्या मामले को सुलझा लिया जाए, पर कुछ सियासतदार और मजहबी संगठन नहीं चाहते हैं कि इस मसले का हल बातचीत के जरिये निकले। वर्षों से राजनीतिक दल इस मुद्छे पर चुनावी रोटियां जरुर सेंकते हैं लेकिन मतलब साफ है कि उनकी नियति मामले को उलझाए रखने की ही है। मध्यस्थ केवल दोनों पक्षों में केवल बातचीत करवा सकते हैं किंतु वे जबरन किसी को तैयार नहीं कर सकते।
गौरतलब है कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी से लेकर विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंदशेखर, पीवी नरसिम्हा राव और अटलबिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में दोनों पक्ष के बीच बातचीत हुई लेकिन परिणाम निराशाजनक ही रहा। पूर्व प्रधामंत्री चंद्रशेखर के समय में दोनों पक्षों के बीच बातचीत के बहुत गंभीर प्रयास हुए और पी वीनर सिम्हा काल तक यह जाराी रहा लेकि नतीजा निष्फल ही रहा।
अटलबिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री कार्यालय में ही एक अयोध्या प्रकोष्ठ गठित कर बातचीत को वैधानिक रूप दिया। कांची काममोटि पीठ के तत्कालीन शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती सहित अनेक साधु सतों को लगाया गया। सरकार के प्रतिनिधियों ने अनेक प्रमुख मुस्लिम नेताओं से संपर्क कर उसमें शामिल किया, बाबरी मस्जिद के पैरोकारों से भी संवाद किया गया।
परिणाम कुछ नहीं निकला। इस पृष्ठभूमि को देखते हुए हम उत्साहित नहीं हो सकते। हालांकि उच्चतम न्यायालय के ढांचे में बातचीत पहली बार हो रही है। इस नाते इसका महत्व बढ़ जाता है। इसमें दो लोग कानून के जानकार और अनुभवी हैं।
यह पहली बार नहीं है इस मामले में मध्यस्थता हो रही हैं मार्च माह में उच्चतम न्यायालय ने सुनवाई शुरु करने से पहले सेवानिवृत न्यायाधीश की अध्यक्षता में तीन सदस्सीय मध्यस्थ पैनल गठित किया था। इस पैनल के द्वारा कई माह तक अनेको बार मध्यस्थता कार्रवाई चली लेकिन इस मामले में मध्यस्थता से कोई नतीजा नहीं निकल सका। कुछ पक्षों ने मध्यस्थता पर सहमति नहीं जताई ।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा विभिन्न समूहों के साथ परामर्श करने और विवाद के समाधान पर चर्चा के लिए नियुक्त तीन-सदस्यीय पैनल ने सर्वसम्मति पर पहुंचने के लिए अपनी पूरी कोशिश की, लेकिन कुछ पक्षों में मध्यस्थता के लिए सहमत नहीं बन सकी। इसके बाद 6 अगस्त से मुख्य न्यायधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता में पांच जजों की संविधानपीठ ने मामले की रोजाना सुनवाई शुरु की।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा विभिन्न समूहों के साथ परामर्श करने और विवाद के समाधान पर चर्चा के लिए नियुक्त तीन-सदस्यीय पैनल ने सर्वसम्मति पर पहुंचने के लिए अपनी पूरी कोशिश की, लेकिन कुछ पक्षों में मध्यस्थता के लिए सहमत नहीं बन सकी।
श्रीराम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद का मध्यस्थता के माध्यम से सर्वमान्य समाधान खोजने का सुझाव उच्चतम न्यायालय ने मार्च, 2017 में भी दिया था। तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर, न्यायमूर्ति धनंजय वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने 21 मार्च, 2017 को कहा था कि सभी पक्षकारों को नए सिरे से अयोध्या मंदिर विवाद का सर्वमान्य हल खोजने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि यह बहुत संवेदनशील मामला है।
पीठ ने कहा था कि न्यायालय के आदेश को मानने के लिए संबंधित पक्ष बाध्य होंगे, लेकिन ऐसे संवेदनेशील मुद्दों का सबसे अच्छा हल बातचीत से निकल सकता है। न्यायमूर्ति खेहर ने तो यहां तक कहा था कि अगर पक्षकार चाहते हैं कि मैं इस मामले में मध्यस्थता करूं तो मैं तैयार हूं। उन्होंने यह भी कहा कि अगर पक्षकार यह चाहते हैं कि कोई दूसरा वर्तमान न्यायाधीश इस मामले में प्रधान मध्यस्थ बने तो वह उसे उपलब्ध कराने के लिए तैयार हैं।
लेकिन न्यायालय की टिप्पणी के तुरंत बाद बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के संयोजक जफरयाब जिलानी ने कह दिया कि बातचीत व्यर्थ है। इससे कुछ नहीं होने वाला। गौरतलब हैं कि जिलानी मामले में सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील भी हैं। बाद में सुन्नी वक्फ बोर्ड, बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी आदि ने स्पष्ट शब्दों में बयान दिया कि वे अब बातचीत करना नहीं चाहते, केवल न्यायालय का फैसला मानेंगे।
9 जनवरी, 2018 को ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने हैदराबाद बैठक में बाकायदा प्रस्ताव पारित किया कि बाबरी मस्जिद मामले में वह किसी तरह की बातचीत में शामिल नहीं होगा। बोर्ड के एक प्रमुख और सम्मानित सदस्य ने बैठक के पहले यह प्रस्ताव दिया था कि इसके समाधान के लिए हमें उस स्थल को हिंदुओं को सौंप देना चाहिए। बोर्ड ने उनके प्रस्ताव को केवल खारिज ही नहीं किया, उनके खिलाफ कार्रवाई भी की।
पर्सनल लॉ बोर्ड में वे लोग हैं जो बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी और सुन्नी वक्फ बोर्ड में भी हैं। ध्यान रखिए बोर्ड का यह कोई नया रुख नहीं है। 1990 से उसका यही रुख रहा है। श्रीश्री रविशंकर की बातचीत की पहल में जो आए उनका इन लोगों ने विरोध किया, उस बातचीत का उपहास भी उड़ाया।
अगर हम पीछे लौटें तो इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 30 सितंबर, 2010 को अपना फैसला सुनाने के पहले भी कहा था कि आप लोग आपस में मिलकर किसी नतीजे पर पहुंचने की कोशिश करें। अगर कोई समझौता हो जाता है तो उसे लेकर आएं। न्यायालय का कहना था कि फैसला लिखने में समय लगेगा। इस बीच यदि आप लोगों के बीच आपसी सहमति हो जाए तो हम उसे स्वीकार करेंगे, लेकिन कोई तैयार नहीं हुआ।
लंबा
खिंचता
जा
रहा
मामला
2011 से इस मामले को किसी न किसी बहाने लंबा खींचने का प्रयास चल रहा हैं। पिछले दिनों देशवासियों में एक उम्मीद जागी थी कि यह मामला सुप्रीम कोर्ट में लगातार कार्रवाई के बाद सुलझ जाएगा। लेकिन वर्ष 2011 से यह केस किसी न किसी बहाने लंबा खिंचता जा रहा है।
पहले अनुवाद के नाम पर लटकाया गया। उत्तर प्रदेश सरकार ने सारे संबंधित दस्तावेजों का अनुवाद कराकर उच्चतम न्यायालय में जमा करा दिया। तब यह कहा गया कि सारे दस्तावेजों का अनुवाद नहीं किया गया। । हालांकि न्यायालय ने कह दिया है कि इसके लिए अब वे कार्रवाई नहीं रोकेंगे। फिर मस्जिद नमाज और इस्लाम का अनिवार्य अंग है या नहीं इससे संबंधित 1994 के फैसले पर पुनर्विचार की मांग हुई। उसमें समय लगा।
सुप्रीम कोर्ट में 2011लंबित है मामला
गौरतलब है कि साल 2010 से यह मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित पड़ा है। साल 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राम जन्मभूमि को तीन बराबर हिस्सों में बांटने का आदेश दिया था। कोर्ट ने इस दौरान एक हिस्सा भगवान रामलला विराजमान, दूसरा निर्मोही अखाड़ा व तीसरा हिस्सा सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड को देने का आदेश था।
इस फैसले को हिन्दू मुस्लिम सभी पक्षों ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। सुप्रीम कोर्ट में ये अपीलें 2010 से लंबित हैं और कोर्ट के आदेश से फिलहाल अयोध्या में यथास्थिति कायम है। बता दें कि सुप्रीम कोर्ट में कुल 14 अपीलें, तीन रिट पीटिशन और एक अन्य याचिका लंबित है। सुनवाई की शुरुआत मूल वाद संख्या 3 और 5 में हुई।मूल वाद संख्या 3 निर्मोही आखाड़ा और मूल वाद शुरूआत मूल वाद संख्या 3 और 5 से हुई। मूल वाद संख्या 3 निर्मोही अखाड़ा और मूल वाद संख्या पांच भगवान रामलला विराजमान का मुकदमा है।
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