क्या राम-रहीम कभी जेल से बाहर आ पाएंगे?
हरियाणा सरकार द्वारा जारी की गई विभिन्न हिदायतों के अनुसार यदि आज गणना करें तो डेरा प्रमुख को जेल में लगभग 32 साल की वास्तविक सज़ा काटनी पड़ सकती है.
ये आकलन 10 साल सज़ा वाले दो मामलों में करीब 9-9 साल की सज़ा व हत्या के मामले में कम से कम 14 साल के आधार पर है.
पत्रकार रामचन्द्र छत्रपति की हत्या के मामले में पंचकूला की सीबीआई अदालत ने डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख और तीन अन्य को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई है.
इस आदेश के बाद कई सवाल उठते हैं जैसे डेरा प्रमुख को मिली आजीवन कारावास की सज़ा के मायने क्या हैं? यानी हत्या की साजिश रचने वाले डेरा प्रमुख को कितना समय जेल में बिताना पड़ेगा?
इसके अलावा डेरा प्रमुख को पहले दो मामलों में हुई सज़ा के बाद आजीवन कारावास की सज़ा शुरू होगी. इसका मतलब क्या है?
कोर्ट ने पत्रकार रामचंद्र पर क्या कहा?
छत्रपति की हत्या के मुकदमे में डेरा प्रमुख को सज़ा सुनाने वाले जज ने पत्रकार व पत्रकारिता के बारे में कहा, "सिरसा के पत्रकार रामचंद्र छत्रपति ने अपनी जान देकर पत्रकारिता पर लोगों का भरोसा कायम रखा. कहते हैं ना कि कलम की मार तलवार की मार से भी ज़्यादा तेज होती है."
"पत्रकारिता एक गंभीर काम है, जो सच्चाई को रिपोर्ट करने की इच्छा को सुलगाता है. किसी भी ईमानदार और समर्पित पत्रकार के लिए सच को रिपोर्ट करना बेहद मुश्किल काम है. खास तौर पर किसी ऐसे असरदार व्यक्ति के ख़िलाफ़ लिखना और भी कठिन हो जाता है जिसे राजनीतिक संरक्षण हासिल हो. मौजूदा मामले में भी यही हुआ."
कोर्ट का कहना था "एक ईमानदार पत्रकार ने प्रभावशाली डेरा प्रमुख और उसकी गतिविधियों के बारे में लिखा और जान दे दी. डेमोक्रेसी के पिलर को इस तरह मिटाने की इजाज़त नहीं दी जा सकती. पत्रकारिता की नौकरी में चकाचौंध तो है, लेकिन कोई बड़ा इनाम पाने की गुंजाइश नहीं है. पारंपरिक अंदाज़ में इसे समाज के प्रति सेवा का सच्चा भाव भी कहा जा सकता है."
"ये भी देखने में आया है कि पत्रकार को कई बार कहा जाता है कि वो प्रभाव में आकर काम करे वरना अपने लिये सज़ा चुन ले. जो प्रभाव में नहीं आते उन्हें इसके नतीजे भुगतने पड़ते हैं, जो कभी-कभी जान से भी हाथ धोकर चुकाने पड़ते हैं."
"ये अच्छाई और बुराई के बीच की लड़ाई है. इस मामले में भी यही हुआ है कि एक ईमानदार पत्रकार ने प्रभावशाली डेरा प्रमुख और उसकी गतिविधियों के बारे में लिखा और जान दे दी."
अलग-अलग चलेगी सज़ा
सीआरपीसी की धारा 427 में पहले से किसी अन्य अपराध की सज़ा काट रहे अपराधी को अलग केस में दोषी घोषित होने पर सुनाई जाने वाले सज़ा के संबंध में प्रावधान किया गया है.
इस धारा के क्लॉज़ (1) के अनुसार यदि सज़ा सुनाने वाली अदालत यह निर्देश जारी न करे कि बाद में सुनाई गई सज़ा पहले से चल रही सज़ा के साथ-साथ चलेगी तो किसी अपराध में पहले से कारावास की सज़ा काट रहे व्यक्ति को नए केस में दोषी घोषित किये जाने के बाद कारावास या आजीवन कारावास की सज़ा दिए जाने पर बाद में सुनाई गई सज़ा पहले से चल रही सज़ा के पूरी होने के बाद ही शुरू होगी.
कितने सालों की सज़ा?
धारा 427 (2) के अनुसार यदि अपराधी पहले ही आजीवन कारावास की सज़ा काट रहा है व बाद में अन्य मामले में दोषी ठहराए जाने पर भी आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई जाती है तो दोनों मामलों की सज़ा साथ-साथ चलेगी.
इसका अर्थ है कि जब कोई अपराधी किसी मामले में सज़ा (आजीवन कारावास नहीं) काट रहा है और उसे किसी अन्य मामले में भी आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई जाती है तो दूसरे मामले की सज़ा स्वाभाविक तौर पर पर पहली सजा पूरी होने के बाद शुरू होगी.
लेकिन, सज़ा सुनाने वाली अदालत के निर्देश देने पर दोनों सजाएं समानांतर/साथ-साथ भी चल सकती हैं.
मगर इसके लिए अदालत को दोनों मामलों की परिस्थितियों पर विचार करना आवश्यक है.
किस मामले में सज़ा साथ-साथ या समानांतर चलने के लिए निर्देश जारी करना है इसको लेकर सुनिश्चित पैमाना नहीं तय किया गया है.
जज के विवेक पर निर्भर
2017 में अनिल कुमार बनाम पंजाब सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि इसके लिए मज़बूत न्यायिक सिद्धान्त का होना ज़रूरी है.
सज़ा सुनाते हुए मामले के तथ्यों व प्रकृति के साथ उसकी गम्भीरता पर गौर करते हुए अदालत न्यायिक आधार पर ही ऐसा निर्देश दे सकती है.
इसी क़ानूनी प्रक्रिया का पालन करते हुए अपराधी की दलील सुनने के बाद सीबीआई की विशेष अदालत ने फैसले में कहा कि छत्रपति हत्या मामले में डेरा प्रमुख को दी गई आजीवन कारावास की सज़ा पहले हुई सज़ा के साथ-साथ चले इसका कोई कारण/आधार नहीं बनता.
लेकिन, एक सवाल ये भी है कि आजीवन कारावास की सज़ा होने पर डेरा प्रमुख को कब तक जेल की सलाखों के पीछे रहना पड़ेगा?
आजीवन कारावास की सज़ा होने पर सज़ा की अवधि को लेकर भी अलग-अलग राय सामने आती हैं.
एक राय है कि दोषी को जीवन के अंत तक सज़ा काटनी पड़ती है. दूसरी राय है कि 14 साल की सज़ा ही काटनी पड़ती है.
अब यही बहस डेरा प्रमुख को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाए जाने पर भी शुरू हो गई है.
आजीवन सज़ा का मतलब
आजीवन कारावास की सज़ा का अर्थ यह नहीं है कि यह सज़ा 20 साल (सज़ा के दौरान ली गई माफी की अवधि को शामिल करते हुए) या 14 साल की वास्तविक सज़ा पूरी होने पर स्वत: ही समाप्त हो जाएगी.
सीआरपीसी की धारा 433 के प्रावधान के तहत सरकार को अधिकार है कि आजीवन कारावास को परिवर्तित कर अधिक से अधिक 14 साल की सज़ा में बदल दे.
मगर इस प्रावधान के अनुसार भी कोई सज़ायाफ्ता व्यक्ति समय पूर्व रिहाई बतौर अधिकार नहीं मांग सकता. यह पूर्णतया किसी सरकार का अधिकार है कि सज़ायाफ्ता को समय पूर्व रिहाई दे या न दे.
बेशक इस अधिकार का इस्तेमाल सरकार भी न्यायिक आधार पर ही कर सकती है. मगर विभिन्न सरकारों ने जेल सुधार सम्बन्धी बनाई गई समितियों की सिफारिशों को स्वीकार किया है.
इसके आधार पर सज़ायाफ्ता को जेल से समय पूर्व रिहाई के संबंध में दिशा-निर्देश तय किये गये हैं.
राज्यों ने किए हैं परिवर्तन
किसी अपराधी को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाए जाने का अर्थ यह कतई नहीं हो सकता कि उसे जिंदा रहने तक पूरा समय जेल में ही काटना होगा.
सभी राज्यों ने धारा 433 के तहत नियम बनाये हैं कि अपराधी की सहमति के बिना भी आजीवन कारावास को परिवर्तित कर अधिक से अधिक 14 साल व जुर्माने में बदला जा सकता है.
सरकार को इन नियमों के तहत सज़ा की अवधि परिवर्तित करने की दरखास्त को स्वीकार या अस्वीकार करते हुए ठोस न्यायिक आधार पर परखना होगा.
डेरा प्रमुख को पहले से ही बलात्कार के दो मुकदमों में 10-10 साल की सज़ा सुनाई गई है. इसके बाद छत्रपति हत्या के मामले में आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई है. यह तीनों सज़ा समानांतर नहीं चलेंगी बल्कि एक के बाद दूसरी और तीसरी सज़ा शुरू होगी.
हरियाणा सरकार द्वारा जारी की गई विभिन्न हिदायतों के अनुसार यदि आज गणना करें तो डेरा प्रमुख को जेल में लगभग 32 साल की वास्तविक सज़ा काटनी पड़ सकती है.
ये आकलन 10 साल सज़ा वाले दो मामलों में करीब 9-9 साल की सज़ा व हत्या के मामले में कम से कम 14 साल के आधार पर है.
मगर आजीवन कारावास की सज़ा को 14 साल में बदल दिया जाए यह अपराधी का कानूनी अधिकार नहीं है. इसलिए सज़ा की अवधि और कुछ साल बढ़ भी सकती है.