क्या बिहार विधानसभा चुनाव से पहले ही हवा हो जाएंगी RLSP,HAM और VIP जैसी जातीय पार्टियां
नई दिल्ली- इसबार बिहार विधानसभा चुनाव से पहले प्रदेश का राजनीतिक समीकरण पूरी तरह से उलटा-पुलटा नजर आ रहा है। ना ही 2015 के विधानसभा वाली स्थिति है और ना ही 2019 के लोकसभा वाली। जो पार्टियां कल कहीं थीं, आज कहीं और हैं। खासकर जाति आधारित राजनीति के दम पर ही खड़ी पार्टियों के बारे में तो और भी कुछ समझ नहीं आ रहा। वो चुनाव से पहले हर तरह से तोल-मोल में लगे हैं, जैसे उन्हें यकीन है कि उनके पॉकेट में फलां-फलां जातियों के वोट पड़े हुए हैं। लेकिन, हो सकता है कि इस तरह की सोच रखने वाली कुछ पार्टियों को इसबार चुनाव शुरू होने से पहले ही जोर का झटका लग जाए। हम ऐसा इसलिए कह रहे हैं, क्योंकि बीते कुछ दिनों में ऐसी परिस्थितियां पैदा हुई हैं।
राजद में ऐसे दलों को लेकर चल रहा है मंथन
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा के जीतन राम मांझी के एपिसोड ने महागठबंधन के सोचने की दिशा बदल दी है। महागठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी आरजेडी में यह सोच बढ़ी है कि जाति-आधारित ये छोटी पार्टियां उनके असली हित को नुकसान पहुंचा सकती हैं। पार्टी का सोचना है कि इन छोटी पार्टियों से सीटों पर किचकिच से ज्यादा फायदेमंद तो ये है कि परंपरागत गठबंधन की पार्टियों यानी राजद, कांग्रेस और वामपंथी दलों को ही मजबूत करके इकट्ठे चुनाव मैदान में उतरा जाए। जानकारी के मुताबिक आरजेडी ने इस विचार पर अंतिम मुहर के लिए अपना प्रस्ताव कांग्रेस आलाकमान के पास दिल्ली भेज भी दिया है। राजद नेताओं में एक आम भावना ये पैदा हो रही है कि ये तथाकथित जातीय नेता (उपेंद्र कुशवाहा, जीतन राम मांझी और मुकेश सहनी या दूसरी छोटी पार्टियां) लोकसभा चुनाव में अपना वोट ट्रांसफर करवा पाने में पूरी तरह से नाकाम रहे हैं, जबकि उन्हें जरूरत से ज्यादा भाव दिया गया।
मंझधार में मांझी
उधर महागठबंधन में ज्यादा भाव नहीं मिलने पर बीते दिनों हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा के जीतन राम मांझी फिर से अपने पुराने सियासी खेवनहार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के पास पहुंचे थे। वैसे तो वह सार्वजनिक रूप से बिहार की कुल 243 सीटों में से करीब 30 सीटों तक पर लड़ने का दावा करते रहे हैं, लेकिन सूत्रों के मुताबिक उन्हें उम्मीद थी कि जेडीयू के मुखिया उन्हें कम से कम 12 सीटों का भरोसा तो जरूर दे देंगे। लेकिन, कहते हैं कि नीतीश ने उन्हें करीब आधी सीटों पर ही लड़ने के लिए मन बनाने को कह दिया। मांझी को उम्मीद थी कि चिराग पासवान जिस तरह से नीतीश सरकार को घेर रहे हैं, उससे एनडीए में उनको चांस मिल सकता है। लेकिन, ना तो महागठबंधन और ना ही भाजपा की ओर से ऐसे कोई संकेत मिले हैं, जिससे यह माना जाए कि रामविलास पासवान की पार्टी को लेकर एनडीए में किसी तरह की कोई आशंका है। ऐसे में लगता है कि मांझी के पास फिलहाल मायूसी के अलावा कुछ नहीं बचा है। अकेले दम पर चुनाव लड़ने की सोचें तो यह सौदा इतना भी आसान नहीं रहने वाला, नहीं तो उन्हें जितनी सीटें नीतीश देंगे उनके पास उसपर राजी होने के अलावा कोई उपाय नजर नहीं आ रहा होगा।
चुनाव से पहले हवा होना का खतरा!
अब जरा नजर डालते हैं कि बिहार की इन छोटी और जाति-आधारित और व्यक्ति विशेष के नाम पर चल रही इन पार्टियों की स्थिति ऐसी क्यों बन चुकी है, जो कोई भी इन्हें ज्यादा भाव देने के मूड में नहीं हैं। 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की जेडीयू भाजपा विरोधी महागठबंधन का हिस्सा थी। लेकिन, जीतन राम मांझी की 'हम' और पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा एनडीए के साथ चुनाव लड़ी। भाजपा ने एलजेपी को 42 सीटें देने के बाद कुशवाहा की आरएलएसपी को 23 और मांझी की 'हम' को 21 सीटें चुनाव लड़ने को दिया। लेकिन, कुशवाहा की पार्टी सिर्फ 2 सीटें जीत पाई और एनडीए के साथ रहने पर उसे 27.50 फीसदी वोट मिले। जबकि, हम सिर्फ 1 ही सीट जीती और उसे 26.90 फीसदी वोट मिले थे। 2019 के लोकसभा चुनाव में ये दोनों दल महागठबंधन के खेमे में चले गए। मुकेश सहनी की नई-नवेली विकासशील इंसान पार्टी-वीआईपी भी एनडीए विरोधी खेमे में शामिल हुई। आरएलएसपी- 5 (वोट-3.66%) ,वीआईपी- 4 (वोट- 0.9277%) और एचएएम- 3 (वोट- 1.3431%) सीटों पर लड़ी और मोदी की दूसरी लहर में हवा हो गईं। यही वजह है कि अब बड़ी पार्टियां इनको बहुत ज्यादा भाव देने के लिए तैयार नहीं दिख रही हैं।
समझौता करें या बचेंगे कम विकल्प
बिहार विधानसभा चुनाव के लिए तारीखों का ऐलान होना बाकी है। ऐसे में जिन दलों का ऊपर जिक्र किया है उनके पास विकल्प बहुत कम बच गए हैं। उन्हें या तो बड़े दलों की ओर से तालमेल में मिली सीटों को ही प्रसाद समझकर ग्रहण करना होगा या फिर कोई दूसरा रास्ता तलाशना पड़ सकता है। ऐसे में ये पार्टियां या तो मजबूरी में अकेले ही चुनाव मैदान में उतरकर दूसरे दलों की बाजी पलटने के खेल में लग जाएं या फिर पप्पू यादव की जन अधिकार पार्टी या फिर असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन जैसी पार्टियों के साथ मिलकर चुनाव को त्रिकोणीय बनाने का प्रयास करें।
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