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पश्चिम बंगाल: क्या 41% महिला उम्मीदवार कुछ बदलाव ला पाएंगी?

देश में चुनावी माहौल है और एक राजनीतिक पार्टी ने इसे बेहतर करने के लिए 41 फ़ीसदी टिकट महिलाओं को दिया है. पश्चिम बंगाल की इस यात्रा में मैंने ये जानने की कोशिश की कि क्या इससे कुछ बदलाव आएगा.

By गीता पांडे
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पश्चिम बंगाल क्या 41% महिला उम्मीदवार कुछ बदलाव ला पाएंगी?
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पश्चिम बंगाल क्या 41% महिला उम्मीदवार कुछ बदलाव ला पाएंगी?

भारत में 90 करोड़ मतदाता हैं और उनमें से आधी संख्या महिलाओं की है. बावजूद इसके क़ानून बनाने वाले निकायों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत कम है.

देश में चुनावी माहौल है और एक राजनीतिक पार्टी ने इसे बेहतर करने के लिए 41 फ़ीसदी टिकट महिलाओं को दिया है.

पश्चिम बंगाल की इस यात्रा में मैंने ये जानने की कोशिश की कि क्या इससे कुछ बदलाव आएगा.


सुबह की तेज़ धूप में, चमकीले पीले और नारंगी फूलों से सजी एक खुली जीप पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाक़े के एक गांव से दूसरे गांव जा रही है. रंगीन साड़ी पहने महिलाएं और पुरुष दौड़ते हुए जीप के पास आते हैं और महुआ मोइत्रा को बधाई देते हैं.

वे उन पर चमकीले नारंगी गेंदे की पंखुड़ियों की बौछार करते हैं, उनके गले में माला डालते हैं और कई लोग उनसे हाथ मिलाने जाते हैं. महुआ मोइत्रा भी उनका अभिवादन करती हैं और हाथ जोड़कर कहती हैं, "मुझे अपना आशीर्वाद दें."

जवान लड़के और लड़कियां अपने स्मार्टफोन से उनकी तस्वीर लेते हैं और कुछ सेल्फी भी लेने की कोशिश करते हैं. चुनाव प्रचार अभियान के दौरान कुछ लोग उन्हें नारियल पानी और मिठाई भी देते हैं.

महुआ मोइत्रा कृष्णानगर लोकसभा सीट से राज्य की सत्ताधारी पार्टी तृणमूल कांग्रेस की उम्मीदवार हैं.

पश्चिम बंगलाः क्या 41% महिला उम्मीदवार कुछ बदलाव ला पाएंगी?
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पश्चिम बंगलाः क्या 41% महिला उम्मीदवार कुछ बदलाव ला पाएंगी?

महिलाओं के प्रतिनिधित्व का मुद्दा

एक गांव में चुनाव प्रचार के दौरान एक कार्यकर्ता महुआ मोइत्रा के पास आता है और उन्हें बताता है कि एक बुज़ुर्ग बहुत बीमार हैं और वो उनसे मिलने घर के बाहर नहीं आ सकते. महुआ फिर ख़ुद उनके पास जाती हैं और मुलाक़ात करती हैं.

उनकी जीप के पीछे दर्जनों बाइक सवार नारे लगा रहे हैं, "तृणमूल कांग्रेस ज़िंदाबाद, ममता बनर्जी ज़िंदाबाद."

नारे लगाते और रंग-बिरंगे जुलूस के आगे एक छोटा ट्रक है, जिस पर लाउडस्पीकर लगे हैं, उससे बार-बार महुआ मोइत्रा को वोट देने की अपील की जा रही है.

भारत में चुनावी सरगर्मियां तेज़ हो गई हैं. नेता अपने क्षेत्र में चक्कर लगा रहे हैं. रैलियां कर रहे हैं.

इस दौरान मैंने देशभर की यात्रा की और जानने की कोशिश की कि चुनावों के शोर में क्या वास्तविक मुद्दों पर बात हो रही है, जो करोड़ों लोगों की ज़िंदगियां प्रभावित करते हैं.

इन मुद्दों में से एक मुद्दा है महिलाओं के प्रतिनिधित्व का.

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संसद में 11 फ़ीसदी महिलाएं

भारतीय संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व महज़ 11 फ़ीसदी है. वहीं राज्यों में यह आंकड़ा 09 फ़ीसदी का है.

इंटर पार्लियामेंट्री यूनियन की इस साल जारी 193 देशों की सूची में भारत महिला प्रतिनिधित्व के मामले में 149वें स्थान पर है.

इस मामले में पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान कहीं बेहतर स्थिति में हैं.

देश की संसद और विधानसभाओं में 33 फ़ीसदी सीटों पर महिलाओं को आरक्षण देने से जुड़ा बिल 1996 से लटका हुआ है.

यही वजह है कि पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस ने राज्य की 41 फ़ीसदी सीटों पर महिलाओं को चुनावी मैदान में उतारा है. पार्टी के इस फ़ैसले की चर्चा चारों ओर हो रही है.

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लंदन की नौकरी छोड़ आईं थीं मोइत्रा

ममता बनर्जी ने कांग्रेस से अलग होकर 1998 में तृणमूल कांग्रेस की स्थापना की थी. साल 2012 में टाइम मैग्ज़ीन ने उनका नाम दुनिया की 100 प्रभावशाली लोगों की सूची में शामिल किया था.

बीबीसी बंगाली के सुभाज्योति घोष बताते हैं कि तृणमूल कांग्रेस ने विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े महिलाओं उम्मीदवारों को चुनावी मैदान में उतारा है. इनमें फ़िल्म अभिनेत्रियां, डॉक्टर, थियेटर कलाकार, आदिवासी कार्यकर्ता और हाल ही में मारे गए एक राजनेता की पत्नी शामिल हैं.

पार्टी की प्रवक्ता और विधायक महुआ मोइत्रा का नाम भी इस सूची में शामिल है. राज्य में 42 लोकसभा सीटें हैं और पार्टी ने 17 सीटों पर महिला उम्मीदवारों को मौक़ा दिया है.

लंदन में अच्छी ख़ासी सैलेरी वाली नौकरी छोड़ने के बाद वो 2009 में भारत लौटीं और भारतीय राजनीति में भाग्य आज़माने का फ़ैसला किया.

उनके इस फ़ैसले पर परिवार वालों ने एतराज़ जताया. उन्होंने मुझे बताया कि उनके मां-बाप ने इसे "पागलपन" क़रार दिया था. पार्टी के कुछ कार्यकर्ता को भी संदेह था कि "वो तो मेमसाहेब हैं और राजनीति में नहीं चल पाएंगी."

लेकिन वो राजनीति में चलीं और साल 2016 के विधानसभा चुनावों में करीमपुर सीट से जीत भी दर्ज कीं. इस सीट पर 1972 से लेफ्ट पार्टियों का क़ब्ज़ा रहा था. अब महुला मोइत्रा की नज़र राष्ट्रीय राजनीति पर है.

वो अपने रैलियों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमला बोलती हैं. अपने भाषणों में वो कश्मीर के मुद्दे और पाकिस्तान के ख़िलाफ़ एयर स्ट्राइक पर सवाल खड़े करती हैं.

"यह कहने की क्या बात है कि आपने पाकिस्तान के उन सभी आतंकवादियों को मार डाला? यह महत्वपूर्ण नहीं है कि आपने पाकिस्तान में घुस कर मारा या कितनों को मारा, महत्वपूर्ण यह है कि आप हमारे सैनिकों को बचाने में सफल नहीं रहे."

वो केंद्र सरकार की विफलताओं को गिनाती हैं. वो नौकरी के मुद्दे पर सरकार को घेरती हैं. इतना ही नहीं वो भारतीय जनता पार्टी पर हिंदू-मुस्लिम में फूट डालने के आरोप लगाती हैं.

उनके इन भाषणों को सुनकर समर्थक तालियां बजाते हैं.

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महुला मोइत्रा कहती हैं कि इससे पहले का चुनाव सरकार बदलने के लिए था, लेकिन इस बार का चुनाव संविधान की रक्षा के लिए है. यह कोई साधारण चुनाव नहीं है.

चुनावी मैदान में उनके ख़िलाफ़ भाजपा ने भारतीय फुटबॉल टीम के पूर्व खिलाड़ी कल्याण चौबे को उतारा है.

तृणमूल कांग्रेस के संस्थापकों में शामिल डॉ. काकोली घोष दस्तीदार कहती हैं कि यह पार्टी के एजेंडे में लंबे वक़्त से रहा है और किसी भी समाज का उत्थान तब तक नहीं हो सकता है जब तक महिलाओं का उत्थान न हो.

वो बताती हैं कि पिछले लोकसभा चुनावों में पार्टी ने 33 फीसदी सीटों पर महिलाओं को उम्मीदवार बनाया था. उनके 34 सांसदों में से 12 सांसद महिलाएं हैं.

वो कहती हैं कि ममता बनर्जी का मानना है कि महिलाओं के हितों से जुड़े क़ानून तभी बन पाएंगे, जब ज्यादा से ज्यादा महिलाएं सत्ता में होंगी.

डॉ. दस्तीदार के चुनावी क्षेत्र बरसात के कुम्हारा काशीपुर गांव में आयोजित एक सभा में महिलाओं को पहली पंक्ति में बिठाया गया है.

हालांकि उनकी राय इस बारे में अलग-अलग है कि संसद में अधिक महिलाओं के होने से वास्तव में दूसरी महिलाओं का भला होगा.

अध्ययन से पता चला है कि जिन क्षेत्रों की प्रतिनिधि महिलाएं हैं, वहां आर्थिक विकास ज़्यादा हुए हैं क्योंकि वो पुरुषों की तुलना में जल आपूर्ति, बिजली, सड़क और स्वास्थ्य सुविधाओं जैसे मुद्दों के लिए अधिक चिंतित होती हैं.

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बदलाव आएगा?

कोलकाता के सिटी कॉलेज की प्रोफ़ेसर शाश्वती घोष कहती हैं कि भारत की राजनीति पुरुष प्रधान हैं और अधिक महिला प्रतिनिधियों को चुने जाने की ज़रूरत है.

क़ानून बनाने वाले निकायों में अधिक महिलाओं का होना ज़रूरी है क्योंकि मुझे लगता है कि एक निश्चित संख्या के बाद आप मज़बूत स्थिति में पहुंच जाएंगे और इससे बदलाव आएगा. मुझे नहीं पता कि 33 फ़ीसदी संख्या बहुत बदलाव लाएगा, 25 फ़ीसदी भी बेहतर कर सकती हैं."

हालांकि आलोचक सवाल उठाते हैं कि क्या सेलिब्रिटी बदलाव लाने के लिए सही उम्मीदवार हैं?

प्रोफेसर घोष कहती हैं कि अभिनेत्री और मशहूर हस्तियां जीत के लिए चुनावी मैदान में उतारे जाते हैं और यही वजह है कि सभी पार्टियां ऐसा करती हैं.

वो मानती हैं कि भारतीय राजनीति में ममता बनर्जी का एक अलग ओहदा है और वो कई महिलाओं को राजनीति में आने के लिए प्रेरित करती हैं.

कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में कहा है कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आती है तो वो महिलाओं को आरक्षण देगी. कुछ ऐसा ही वादा भाजपा ने भी पिछले चुनावों के दौरान किया था, पर इस दिशा में बहुत कुछ नहीं हो पाया.

महिलाओं को 41 फीसदी सीटें आवंटित करके ममता बनर्जी ने दिखाया है कि अधिक महिलाओं को चुनने के लिए आरक्षण की ज़रूरत नहीं होती है.

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English summary
Will 41% female candidates be able to make some changes in West Bengal
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