कश्मीरी लड़कियों से शादी की दबी ख़्वाहिश क्यों: नज़रिया
संवाद और सूचना का तंत्र और जाल हो तो ऐसा हो, वरना न हो. सोमवार 5 अगस्त को राज्यसभा में कश्मीर पर चर्चा अभी शुरू ही हुई थी कि एक ख़ास तरह का मैसेज घूमने लगा.
'मेरे कुंवारे दोस्तों करो तैयारी अब कश्मीर में हो सकती हैं ससुराल तुम्हारी' और कुछ तो तारीख़ भी बताने लगे '15 अगस्त के बाद कश्मीर में हो सकती है ससुराल तुम्हारी.'
संवाद और सूचना का तंत्र और जाल हो तो ऐसा हो, वरना न हो. सोमवार 5 अगस्त को राज्यसभा में कश्मीर पर चर्चा अभी शुरू ही हुई थी कि एक ख़ास तरह का मैसेज घूमने लगा.
'मेरे कुंवारे दोस्तों करो तैयारी अब कश्मीर में हो सकती हैं ससुराल तुम्हारी' और कुछ तो तारीख़ भी बताने लगे '15 अगस्त के बाद कश्मीर में हो सकती है ससुराल तुम्हारी.'
किसी को अपने अनब्याहे होने पर ख़ुशी हो रही थी, 'अच्छा किया अभी तक शादी नहीं किया था अब तो लगता है कश्मीर में ससुराल होगा.' तो किसी अनब्याहे ने ईश्वर को याद किया, 'आज ईश्वर की लीला समझ में आ गई/ उसने मेरी शादी क्यों नही होने दी/ वो जो करता है हमेशा अच्छे के लिए ही करता है/ कश्मीर में ससुराल.'
कोई तो इतना ख़ुश हुआ कि जयघोष करने लगा, 'जम्मू कश्मीर में हमारा भी ससुराल होगा/ चलो हिंदुस्तानियों जम्मू-कश्मीर में बारात लेकर चलते हैं/ कौन-कौन चल रहा है मेरे साथ/ जय श्री राम.' तब तक एक भाई को जोश आ गया, 'कश्मीरी लड़कियों करो तैयारी, आ रहे हैं भगवाधारी.'
कश्मीरी प्लॉट के मायने क्या?
ऐसे संदेशों के साथ कई लड़कियों की ग्रुप तस्वीरें थी तो हिस्सा भी लगने लगा, 'राइट वाली मेरी.' तो कोई कहने लगा, 'ये नीले घेरे वाला कश्मीरी प्लॉट मेरा है/ बाक़ी आप अपना देख लो.' तो कोई टपका, 'ये बीच वाला कश्मीरी प्लॉट मेरा है बाक़ी अपना ख़ुद देख लो.' (वैसे, अगर लड़कियों की ग्रुप फोटो के साथ यह कमेंट हो तो कश्मीरी प्लॉट का मायने क्या हुआ?)
एक दो तो कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की बेटी के लिए लड़के तलाश रहे हैं तो किसी ने अपने मित्र के लिए जेएनयू की स्टूडेंट लीडर रहीं शेहला राशिद का नाम सुझाया है. इनकी तस्वीर साझा की है. एक भाई ने तो इनाम का एलान कर दिया,' जो हिन्दू भाई एक कश्मीरी लड़की के साथ शादी करेगा उसे मैं 50 हज़ार नग़द दूंगा.'
ख़ैर! इन सबके बीच किसी को अफ़सोस भी है, 'काश शादी के लिए दो तीन साल रुका होता/ वरना आज ससुराल कश्मीर होता.'
पिछले दो-तीन दिनों में व्हाट्सएप, फेसबुक, ट्विटर, टिक-टॉक, ऐसे संदेशों से भरे पड़े हैं. मगर इन संदेशों के साथ क्या कुछ और मायने गुँथा है? क्या ये संदेश कुछ और कहने की भी कोशिश कर रहे हैं?
एक-दो बात और ग़ौर करने की है. इन सब संदेशों के वाक्य की बुनावट बता रही है कि यह सब मर्द, मर्दों से कह रहे हैं. इन संदेशों में कश्मीरी लड़कियों से शादी की लालसा तो है. साथ ही वहाँ ज़मीन ख़रीदने, बस जाने की ख़्वाहिश भी है.
स्त्री युद्ध जीतने का इनाम है क्या!
इतिहास हमें बताता है कि क़बीलाई दौर और मध्यकाल के सामंतवादी ज़माने में साम्राज्य विस्तार के लिए जंग होती थी. विजेता हारे हुए इलाक़े की ज़मीन और सम्पत्तियों पर क़ब्ज़ा कर लेते थे. बहुत से हमलावर, महिलाओं को भी जीती हुई सम्पत्तियों में मानते थे. इसलिए वे महिलाओं को अपने क़ब्ज़े में ले लेते थे. मर्दाना सोच वाला समाज, ज़माने से महिलाओं को किसी समाज, समूह, जाति, सम्प्रदाय, देश की इज़्ज़त के रूप में देखता रहा है. इसीलिए देशों के बीच युद्ध हो या जातीय या साम्प्रदायिक हिंसा, जीतने के लिए एक जंग स्त्रियों की देह पर भी लड़ी जाती रही है. यह हमारे समय में भी हुआ है और हो रहा है.
हम तो हमेशा से यही जानते रहे और किताबों में भी पढ़ाया जाता रहा है कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है. हमारी बात का सिरा कश्मीर से शुरू होकर कन्याकुमारी पर ख़त्म होता रहा है. फिर 5-6 तारीख़ के दौरान ऐसा क्या हुआ कि कुछ लोगों को लगने लगा कि कश्मीर अब जाकर हमारा है? अब जाकर जीत मिली है? वे विजेता हैं? अपने ही इलाक़े पर विजेता? अपने ही लोगों पर विजेता?
जिस तरह पुराने ज़माने के विजेताओं को ज़र-ज़मीन पर क़ब्जे की फ़िक्र रहती थी, वैसे ही सभी मोटरी-गठरी उठाये, जम्मू-कश्मीर-लद्दाख़ में सम्पत्ति अर्जित करने की ख्वाहिश ज़ाहिर करने लगे. सोशल मीडिया पर पसरे संदेश, मीम, बातें तो यहीं बता रही हैं. तो क्या हमें वहाँ के लोग नहीं, जम्मू-कश्मीर की सम्पत्ति की चाहत है? ऐसी ही चाहत वाले सम्पत्ति में स्त्री को भी शामिल करते हैं. क्योंकि इनमें से ज्यादातर अपने घर-समाज की स्त्रियों को सम्पत्ति की ही तरह देखने के आदी रहे हैं.
कहने वाले कह सकते हैं कि इन मैसेज को इतनी गंभीरता से लेने की ज़रूरत नहीं है. बात तो सही है. अगर इक्का दुक्का होतीं तो शायद हल्की-फुल्की चर्चा ही होती. मगर ऐसे संदेशों की तो बाढ़ है. यक़ीन न हो तो किसी भी जगह सर्च कर लें. हालाँकि, इनकी जड़ें तलाशनी हो तो इधर-उधर भी नज़र डालनी पड़ेगी.
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दबी ख़्वाहिश की वजह?
देखिए, लड़कियों को जीतने की यह कैसी ज़बरदस्त ख़्वाहिश है. एक ख़बर के मुताबिक़, साध्वी प्राची बागपत के बड़ौत में कहती हैं, 'जो अविवाहित युवक हैं, उनके लिए बड़ी ख़ुशख़बरी है. डल झील पर 15 अगस्त के बाद में प्लॉट ख़रीदिए रजिस्ट्री तुम्हारे नाम होगी. ससुराल भी तुम्हारी कश्मीर में हो जायेगी. हमारा सपना पूरा हो गया.'
खतौली, मुज़फ्फ़रनगर के भाजपा विधायक विक्रम सिंह सैनी ने इस बात को और विस्तार दिया, 'पार्टी के कार्यकर्ता उत्साहित हैं क्योंकि वो कश्मीर की गोरी लड़कियों से शादी कर पाएंगे. ... उनकी शादी वहीं करवा देंगे, कोई दिक्क़त नहीं है. और जो मुस्लिम कार्यकर्ता हैं यहां पर, उनको ख़ुशी मनानी चाहिए... शादी वहां करना, कश्मीरी गोरी लड़की से. ...मैं कश्मीर में घर बनाना चाहता हूं. वहां हर चीज़ ख़ूबसूरत है- जगह, पुरुष और महिलाएं. सब-कुछ.'
वैसे, जहाँ तक जानकारी है उसके मुताबिक़ ग़ैर-कश्मीरी लड़के-लड़कियों को कश्मीरी लड़के या लड़की से शादी करने पर कोई पाबंदी नहीं रही है. इसके कई नामी उदाहरण भी हैं और आम भी. हाँ, ऐसा ज़रूर था कि अपने राज्य से बाहर शादी करने वाली कश्मीरी लड़की की संतानों को विरासत में हिस्सा नहीं मिलता था. कुछ लोगों ने तो इस झूठ पर भी विश्वास दिलाने की भरपूर कोशिश की कि पाकिस्तानी से शादी करने पर ऐसा नहीं था.
इसलिए यह कुछ सिरफिरों के दिमाग़ की उपज नहीं है. इनकी संख्या और यह बातें किन-किन के दिमाग़ में हैं बता रहा है कि असल में यह हमारे अंदर दबी ख़्वाहिश है. क्या इस ख़्वाहिश को पँख मिलने की सबसे मज़बूत वजह वहाँ की बड़ी आबादी का एक ख़ास धर्म है? क्या इसलिए न सिर्फ़ ज़र-ज़मीन चाहिए बल्कि लड़कियाँ भी चाहिए?
ध्यान रहे, यह ख़्वाहिश सिर्फ़ ग़ैर-कश्मीरी लड़कों ने ज़ाहिर की है. अगर इस ख़्वाहिश का 'सौंदर्य' ही पैमाना है तो वहाँ के लड़कों पर भी यह लागू होता है. तो क्या ग़ैर-कश्मीरी लड़कियाँ भी कश्मीरी लड़कों को अपने ख़्वाबों के राजकुमार की शक्ल में देख रही हैं?
इन बातों से उपजे सवाल
यह कैसे भूला जा सकता है कि जिस पार्टी के नेता युवाओं की शादी वहाँ कराने ले जा रहे हैं उसी पार्टी के उनके साथी की बेटी अपनी मर्ज़ी से शादी करती है तो उसे जान-बचाने के लिए यहाँ-वहाँ भागना पड़ता है?
यह उत्साही मर्द उसी समाज के हैं न जहाँ मनमर्ज़ी से शादी करने वालों को पेड़ पर टाँग दिया जाता है और जो जाति के बाहर शादी करने की हिम्मत नहीं करते? वैलेंटाइन डे हो या फिर आम दिन मोहब्बत करने वालों की डंडों से ख़ैरियत लेते हैं?
ये मर्द, सम्पत्ति और विवाह की कश्मीर जैसी ही ख़्वाहिश का इज़हार हिमाचल या उत्तराखण्ड के लिए क्यों नहीं करते? दिखने में तो इन तीनों इलाक़ों की लड़कियों में बहुत फ़र्क़ नहीं है? रहने के लिए तीनों का मौसम भी एक जैसा है.
क्या वहाँ की लड़कियाँ अब इतनी बेबस, लाचार, मजबूर, बेआवाज़ हैं कि कोई भी कहीं से जाकर, उनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उन्हें 'अपना' बना सकता है? तब ही तो सबसे बारात लेकर जाने का आह्वान है.
क्या यह भी 'लव-जिहाद' नाम के खाँचे में आयेगा?
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मर्दाना राष्ट्रवाद
दरअसल यह मर्दाना राष्ट्रवाद का विचार है. जहाँ स्त्रियों के ज़रिए सम्मान और अपमान तय होता है. इसीलिए जब एक साहेब को ऐसा न करने के लिए किसी ने कहा तो उनका जवाब था, 'जैसे को तैसा जवाब नहीं दोगे तो आपका ज़िंदा रहना और मरना एक समान है. कश्मीर में स्थायी शांति चाहते हैं तो वहाँ की लड़कियों से शादी करना और उनसे बच्चे पैदा करना गुनाह नहीं है और यही शांति का उत्तम मार्ग है.'
वैसे कहा भी जाता है कि रिश्ते रोटी और बेटी के संबंध से मज़बूत होते हैं. तो इसका मतलब तो यही हुआ न कि हम सब अब न सिर्फ़ कश्मीरी बेटी को अपनायेंगे बल्कि अपनी बेटियों को भी कश्मीर जाने से नहीं रोकेंगे? वैसे सोच कर देखिए कि पूरे भारत में अंतरजातीय, अंतर प्रांतीय, अंतर धार्मिक शादियाँ होने लगें तो वाक़ई शांति का उत्तम मार्ग मिल जायेगा. क्यों?
और हाँ, इस बीच कुछ गीत भी आ गये हैं और यह यूट्यूब, फेसबुक, व्हाट्सएप पर साझा भी हो रहे हैं. एक भोजपुरी गीत बना है, 'अब हम जाइब कश्मीर/ जाके कश्मीर में लइबे दो कट्ठा ज़मीन/ उमें चलइबै धान कूटे के मशीन.'
मगर एक हरियाणवी गीत काफ़ी सुना- देखा जा रहा है. इसके कई रूप मौजूद हैं. वह हरियाणवी गीत कहता है, 'पहली बार किसी सरकार ने कुँवारे की फ़रियाद सुनी है/ अरे कश्मीर में हरियाणा के ताक़तवार जवानों की बहुत ज़रूरत है. अब बिहार को छोड़, कश्मीर से बहू लानी है.'
हालाँकि, यह उस समाज से निकला गीत है, जहाँ लड़कियाँ अनचाही हैं. मनमर्ज़ी से शादी करने पर हत्या तक हो जाती हैं. लड़कियाँ मिलती नहीं तो बिहार या कहीं और जाकर पैसा देकर लड़कों को शादी करनी पड़ती है. तो यह कहता है कि हम बिहार नहीं कश्मीर जायेंगे. वहाँ से बहू लायेंगे. मगर अपनी बेटियों को ज़िंदा नहीं रहने देंगे.
तो कश्मीर के बारे में इसीलिए इतनी फ़िक्र हो रही थी. कश्मीर चाहिए और उसके साथ कश्मीरी लड़कियाँ चाहिए. कश्मीर की ज़मीन, जायदाद चाहिए. कहीं इसे ही तो मुहावरे में हमारे पुरखे ज़र-जोरू और ज़मीन का संघर्ष तो नहीं कहते थे?
और हाँ, अगर ज़मीन लेना ही विकास है तो इसे समझने के लिए कहीं दूर जाने की ज़रूरत नहीं है. क़ुदरती ख़ज़ाने से भरपूर उत्तराखण्ड, हिमाचल, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा में इस विकास का चेहरा हम देख सकते हैं.
हाँ की प्राकृतिक सम्पदा और मूल बाशिंदों की हालत में हम तरक़्क़ी तलाश सकते हैं. तो क्या तरक़्क़ी का यह रास्ता प्रकृति विरोधी और स्त्री विरोधी है? क्या इसलिए प्रकृति यानी जल-जंगल-ज़मीन और स्त्री पर 'क़ब्ज़ा' करने के लिए 'कश्मीर में ससुराल' बनाने की ललक जागी है?