ब्लॉग: जस्टिस हेगड़े क्यों बोले...'वर्ना भारत को भगवान बचाए'
रिज़र्व बैंक, चुनाव आयोग और अब सुप्रीम कोर्ट, लोकतांत्रिक संस्थानों की गिरती साख पर राजेश प्रियदर्शी का ब्लॉग.
नॉर्वे, ऑस्ट्रेलिया, डेनमार्क, स्विट्ज़रलैंड और नीदरलैंड्स रहने के लिए सबसे अच्छे देशों में गिने जाते हैं, ये सभी भारत की तरह संसदीय लोकतंत्र हैं.
अब इन देशों के महान नेताओं के नाम बताइए? परेशान मत होइए, आपका सामान्य ज्ञान कमज़ोर नहीं है, इन देशों के नेताओं के नाम शायद ही किसी को याद हों.
ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है कि महान देशों को महान नेता नहीं, संस्थाएँ चलाती हैं, नेता आते-जाते रहते हैं लेकिन संस्थाएँ ज़िम्मेदारी और गंभीरता से अपना काम करती रहती हैं जिससे एक ऐसा लोकतंत्र बनता है जिसमें नागरिक सुखी, स्वस्थ, शिक्षित और सुरक्षित रहते हैं.
नैतिकता और राजनीतिक दांव पेंच का उलझाव
बिहार की राजनीति और नीतीश की नैतिकता का डीएनए
न्यायपालिका में खींचतान
इसके लिए ज़रूरी है कि संस्थानों की नैतिक सत्ता बनी रहे और कोई भी व्यक्ति नेता, अधिकारी या फिर जज संस्था से बड़ा न हो.
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में कोई ऐसी संस्था नहीं बची है जिसकी साख साबुत हो. हर तरफ़ से हैरान-परेशान लोग न्याय की उम्मीद में अदालत का दरवाज़ा खटखटाते हैं लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट भी एक बड़े इम्तहान से गुज़र रहा है.
जजों की नियुक्ति के तौर-तरीकों को लेकर मौजूदा सरकार और न्यायपालिका में खींचतान तो शुरू से चल रही है, लेकिन वह विश्वसनीयता का संकट नहीं था, इस बार संकट कितना गहरा है इसे सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज संतोष हेगड़े की इस टिप्पणी से समझा जा सकता है.
उन्होंने लिखा है, 'अगर न्यायपालिका ने खुद को नहीं संभाला तो भगवान ही भारत को बचा सकता है.'
हो सकती है अवमानना
सुप्रीम कोर्ट में इस बात पर हंगामा है कि क्या देश के मुख्य न्यायाधीश को भ्रष्टाचार के उस केस की सुनवाई करनी चाहिए जिसमें वे ख़ुद एक पक्ष हो सकते हैं?
इस पूरे मामले का क़ानूनी पक्ष अपनी जगह है, लेकिन अब यह सवाल सुप्रीम कोर्ट की नैतिक सत्ता का है. किसी जज की मंशा पर सवाल उठाने की क़ानूनन मनाही है, आपके ख़िलाफ़ अवमानना की कार्रवाई हो सकती है, ये ठीक भी है.
लेकिन जज भी इसी समाज से आते हैं, वे कोई देवदूत नहीं हैं, न्यायपालिका और सेना में भ्रष्टाचार की ज़बानी चर्चा बहुत होती है लेकिन बाक़ी क्षेत्रों के मुक़ाबले कम ही मामले सामने आते हैं, मगर न्यायपालिका भी बेदाग़ नहीं है. सुप्रीम कोर्ट में जिस मामले को लेकर विवाद खड़ा हुआ है उसमें तो ओडिशा हाइकोर्ट के एक रिटायर्ड जज की गिरफ़्तारी भी हुई है.
सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस रह चुके केजी बालाकृष्णन पर उनके एक साथी जज ने कई गंभीर आरोप लगाए थे, उनके परिवार के सदस्यों की आय से अधिक संपत्ति के मामले में भी जाँच भी हुई थी. जस्टिस रामास्वामी, जस्टिस सौमित्र सेन, जस्टिस दिनाकरन और जस्टिस नागार्जुन रेड्डी के नाम गूगल करके आप अधिक जानकारी हासिल कर सकते हैं, ये सभी हाइकोर्ट के जज रह चुके हैं.
सवालिया निशान
राजस्थान हाइकोर्ट के जज रहे महेश चंद्र शर्मा तो कुछ ही महीने पहले मोरों की सेक्स लाइफ़ के बारे में ज्ञान बाँटकर अंतरराष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर चुके हैं.
इससे पहले कोलकाता हाइकोर्ट के जस्टिस कर्णन के मामले में भी शीर्ष न्यायपालिका के लिए शर्मनाक और हास्यास्पद स्थिति पैदा हो गई थी जब हाइकोर्ट के जज और सुप्रीम कोर्ट के जज एक दूसरे के ख़िलाफ़ आदेश पारित कर रहे थे.
इन सबके बावजूद, घपले, घोटाले, भ्रष्टाचार और अपराध से जूझते देश में आज भी कोई नहीं कहता कि 'इस न्याय व्यवस्था में मेरा विश्वास नहीं है', यह अदालतों की न्यायिक ही नहीं, नैतिक सत्ता है, लोगों का भरोसा है. लेकिन अब सवालिया निशान लग रहे हैं जो लोकतंत्र के लिए गहरी चिंता की बात है.
सुप्रीम कोर्ट में सोमवार को हुई बहस में जस्टिस अरूण मिश्रा ने कहा कि "सुप्रीम कोर्ट को नुक़सान पहुँचा है", जबकि एटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा कि "इस ज़ख्म को भरने में बहुत वक़्त लगेगा."
चुनाव आयोग
अभी कुछ ही सप्ताह पहले गुजरात में विधानसभा चुनाव की तारीख़ तय करने में हुई देरी को लेकर मुख्य चुनाव आयुक्त अचल कुमार जोती की नीयत पर सवाल उठे, पूरा मामला जिस तरह चला उससे मुख्य चुनाव आयुक्त बेदाग बाहर नहीं निकल सके.
इससे पहले ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी के आरोपों के मामले में चुनाव आयोग संदेहों को पूरी तरह दूर नहीं कर सका है. चुनाव आयोग से भरोसा उठने का मतलब होगा पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया से भरोसा उठना. सोचिए, ये कितनी ख़तरनाक बात है.
एक और स्वायत्त संस्था रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया ने नोटबंदी के दौरान ख़ासी शर्मिंदगी झेली, बार-बार फ़ैसले बदले गए, गवर्नर उर्जित पटेल की सीढ़ियाँ फलाँग कर मीडिया से बचने की कोशिश हमेशा के लिए जनस्मृति में दर्ज हो गई.
संस्थाओं की स्वायत्तता
रिज़र्व बैंक सरकार से स्वतंत्र संस्था के तौर पर जानी जाती थी जिसका काम देश की मौद्रिक नीति और बैंकिंग व्यवस्था का संचालन-नियंत्रण करना है, नोटबंदी वक़्त एक बार भी उसकी अथॉरिटी के दर्शन नहीं हुए. स्याही लगाने से लेकर नोट जमा करने की सीमा तक, नियम इतने बार बदले कि फ़ैसले लेने वालों की विश्वसनीयता पर सवाल उठने लगे.
वैसे तो बीसियों संस्थाएँ हैं जिनकी चर्चा इस सिलसिले में की जा सकती है, मानवाधिकार आयोग से लेकर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग तक.
भारत में ज़्यादातर स्वायत्त संस्थाओं की नींव पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने रखी थीं, इन संस्थाओं की स्वतंत्रता का हनन इंदिरा गांधी के कार्यकाल में बड़े पैमाने पर हुआ और अब इस वक़्त उनमें से ज्यादातर पहले से भी दयनीय हालत में दिख रही हैं.
सरकारों के मज़बूत होने से लोकतंत्र मज़बूत नहीं होता, सरकार पर नियंत्रण रखने वाली संस्थाओं की कमज़ोरी से लोकतंत्र ज़रूर कमज़ोर होता है. सबसे बड़े लोकतंत्र को अगर बेहतर लोकतंत्र बनना है तो सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग जैसे संस्थानों की साख बचानी ही होगी.