महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव: शिवसेना की फर्स्ट फैमिली ने अभी क्यों तोड़ी ठाकरे परिवार की परंपरा? जानिए
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नई दिल्ली- करीब सात दशक पुरानी शिवसेना देश की एकमात्र ऐसी क्षेत्रीय पार्टी है, जिसने अबतक अपनी फर्स्ट फैमिली को सत्ता और चुनावी राजनीति से बहुत ही दूर रखा था। लेकिन, बाला ठाकरे के पोते आदित्य ठाकरे के नामांकन के साथ ही यह परंपरा इतिहास में तब्दील हो चुकी है। 29 वर्षीय आदित्य ठाकरे अपने परिवार के पहले ऐसे सदस्य बन गए हैं, जिन्होंने चुनावी राजनीति में कदम रखा है। शिवसेना ने दशकों की परंपरा को एकदिन में नहीं तोड़ा है। इसकी नींव बहुत पहले ही पड़ चुकी थी और जिसका शिलान्यास किसी और ने नहीं शायद खुद बालासाहेब ठाकरे कर दिया था। इसके पीछे जितने भी कारण हैं हम उनपर यहां एक-एक करके विस्तार से चर्चा करेंगे। साथ ही इसबात पर गौर करेंगे की अभी तक ठाकरे परिवार कैसे सत्ता और पार्टी की कमान अपने हाथों में रखता आया था?
बाल ठाकरे की क्या नीति थी?
बाल ठाकरे ने 1966 में शिवसेना बनाई लेकिन न तो उन्होंने कभी चुनाव लड़ा और न ही उनके परिवार के किसी सदस्य ने किस्मत आजमाया। बाल ठाकरे की नीति शुरू से स्पष्ट थी कि भले ही उनकी पार्टी पूरी तरह से उनपर ही निर्भर क्यों न हो और वही पार्टी के स्टार कैंपेनर हों, लेकिन न तो वो खुद कभी चुनाव लड़ेंगे और न ही किसी संवैधानिक पद को ही स्वीकार करेंगे। वे अक्सर रैलियों में जाहिर करते थे कि उन्हें सत्ता का कोई मोह नहीं है। जब 1995-99 में शिवसेना-बीजेपी गठबंधन महाराष्ट्र में सत्ता में आया तो उन्होंने कहना शुरू किया कि रिमोट उनके हाथों में है, जिसका इस्तेमाल वे जनता के हित के लिए करते हैं। अलबत्ता इसके लिए उन्हें इन आलोचनाओं का भी शिकार होना पड़ा कि वे सत्ता का सुख तो लेना चाहते हैं, लेकिन जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते। लेकिन, उनके पोते के नामंकन के साथ ही उनकी ही बनाई नीति भी बदल दी गई है।
बाल ठाकरे की राह पर ही चले उद्धव और राज
जब 2012 में बाल ठाकरे गुजर गए तो शिवसेना की कमान उनके बेटे उद्धव ठाकरे ने संभाल ली। लेकिन, उन्होंने भी खुद को चुनावी राजनीति से दूर ही रखा। हालांकि, 2004 और 2009 में ऐसे भी मौके आए जब कहा गया कि अगर शिवसेना को जीत मिल जाती तो उद्धव के खुद मंत्रालय में जाने की इच्छा थी। एक समय बाल ठाकरे के दाहिने हाथ रहे उनके भतीजे राज ठाकरे ने भी उनसे अलग होकर महाराष्ट्र नवनिर्वाण सेना बनाई, लेकिन बावजूद इसके उन्होंने भी अभी तक खुद को चुनावी राजनीति से दूर ही रखा है। अलबत्ता, पिछले चुनाव के दौरान ऐसी अटकलें लगाई गई थीं कि वो भी चुनावी समर में उतरना चाहते हैं, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। यहां इस बात का जिक्र कर देना जरूरी है कि वे शिवसेना से अलग हैं, लेकिन उन्होंने फैसला किया है कि मुंबई की वर्ली विधानसभा में उनकी पार्टी भतीजे आदित्य के विरोधी में प्रत्याशी नहीं उतारेगी। यानि, गुरु चाचा की परंपरा तोड़ने के फैसले में उनकी भी असहमति नहीं है।
इस समय परिवार की परंपरा तोड़ने की वजह ?
शिवसेना की लीडरशिप को कहीं न कहीं ऐसा लग रहा है कि बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों में परिवार की परंपरा पर कायम रहना भविष्य में पार्टी को बड़ा नुकसान पहुंचा सकता है। पार्टी को उम्मीद है कि जनता के बीच से सीधे चुनाव जीतने से आदित्य की नेतृत्व क्षमता सुनिश्चित हो जाएगी। यही नहीं शिवसेना प्रमुख को कहीं न कहीं इस बात का अहसास हो रहा है कि अब रिमोट कंट्रोल की जगह सरकार चलाने की वजह से खुद ही सरकार में रहने का समय आ गया है और पार्टी में किसी विश्वासघात से बचने के लिए यह बहुत जरूरी है। क्योंकि, बाल ठाकरे ने रिमोट कंट्रोल से सरकारें चलाकर देख लीं, उद्धव भी कुछ हद तक वैसा कर पाने में सफल रह गए, लेकिन अब राजनीति की सूरत तेजी से बदलती जा रही है। शिवसेना के अंदर के लोगों की सोच है कि अब पार्टी या परिवार के प्रति निष्ठा के दिन लद चुके हैं। अगर किसी नेता को कहीं दूसरी जगह बेहतर भविष्य दिखेगा तो वह पार्टी छोड़ने में जरा भी देर नहीं करेंगे। 2014 के बाद से इस तरह की घटनाओं में काफी तेजी आई है। इसलिए पार्टी नेतृत्व इस निर्णय पर पहुंचा है कि सत्ता में रहना ज्यादा सही है, बल्कि रिमोट कंट्रोल से सरकार चलाने के।
बाल ठाकरे भी खा चुके थे धोखा
इस फैसले तक पहुंचने में शायद शिवसेना नेतृत्व को नारायण राणे और छगन भुजबल के एपिसोड ने भी काफी प्रभावित किया है। पार्टी सूत्रों के मुताबिक कहीं न कहीं उद्धव को महसूस हो रहा है कि जब उनके पिता ने इन दोनों नेताओं पर इतना भरोसा किया, उन्हें सत्ता की चाबी दी, लेकिन उन्होंने मौका आने पर बाल ठाकरे का साथ छोड़ने में भी एकबार नहीं सोचा। यहां तक कि मनोहर जोशी को उन्होंने मुख्यमंत्री की कुर्सी तक दी थी, लेकिन कई बार उन्हें शक हुआ कि वे भी कुछ बातें उनसे छिपा जाते हैं। ऐसे में उद्धव का इरादा और मजबूत हुआ कि जब बाल ठाकरे को ऐसी हालातों से गुजरना पड़ा तो आने वाले वर्षों में स्थिति और खराब हो सकती है।
आदित्य को पहले से मिल रही थी ट्रेनिंग
जानकारी के मुताबिक आदित्य को चुनावी राजनीति में लाने का फैसला शिवसेना सुप्रीमो उद्धव ठाकरे और उनकी पत्नी रश्मि ठाकरे ने काफी सोच-समझकर किया है। क्योंकि, उद्धव के फैसलों में उनकी पत्नी की राय भी काफी मायने रखती है और वो पार्टी की गतिविधियों में काफी सक्रिय भी देखी जाती हैं। उन्हें यकीन है कि आज अगर आदित्य चुनावी मैदान में उतरे हैं तो एक दिन वह राज्य के मुख्यमंत्री भी बनेंगे। भविष्य में शिवसैनिकों को एकजुट रखने के लिए यह एक ग्लू का काम कर सकता है और इसकी वजह से उनका मनोबल बढ़ने की भी संभावना है। इसलिए, ठाकरे दंपति ने अपने बेटे की राजनीतिक करियर को संवारने की योजना बहुत पहले से बनानी शुरू कर दी थी। वे लगभग 10 वर्षों से पार्टी की गतिविधियों में दिलचस्पी लेते रहे हैं। उनके लिए ही पार्टी में यूथ विंग का गठन किया गया और उसके अध्यक्ष के रूप में उनके नाम की घोषणा किसी और ने नहीं खुद बालासाहेब ठाकरे ने ही की थी।
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