क्यों पश्चिम बंगाल में BJP के लिए ममता बनर्जी को हराना है बड़ी चुनौती, आंकड़ों से समझिए
नई दिल्ली- बिहार में सत्ता में वापसी के बाद भाजपा के हौसले इतने बुलंद हैं कि उसने पश्चिम बंगाल में 200 से ज्यादा सीटें जीतने का लक्ष्य तय कर लिया है। इस बात में कोई शक नहीं कि करीब 6 दशकों तक जनसंघ के संस्थापक डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी की धरती पर राजनीति में बेगाने रहे जनसंघ और भाजपा 2014 की मोदी लहर के बाद से एक प्रभावी सियासी शक्ति के तौर पर स्थापित हुई है। 2019 के लोकसभा चुनाव में उसके प्रदर्शन ने उनके हौसले को और ज्यादा उड़ान दी है। लेकिन, इतनी प्रगति के बावजूद इस राज्य में ममता बनर्जी को टक्कर देकर विधानसभा चुनावों में भगवा लहराना उसके लिए शायद बहुत ही ज्यादा चुनौतीपूर्ण साबित होने वाला है। यह आंकलन किसी धारणा के आधार पर नहीं, चुनावी आंकड़ों के विश्लेषण के आधार पर किया जा रहा है।
पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनावों से खुद को एक बड़ी राजनीतिक शक्ति के तौर पर पेश करना शुरू किया है। लेकिन, 2021 के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी को सत्ता से हटाकर उसपर काबिज होना उसके लिए शायद इतना आसान भी नहीं है। क्योंकि, इस दौरान भले ही बीजेपी ने अपनी ताकत बढ़ाई है, लेकिन हर चुनावों में ममता की अगुवाई वाली तृणमूल कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतर ही हुआ है। इसको समझने के लिए बीते एक दशक में वहां हुए चुनावों का विश्लेषण करना जरूरी है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने बंगाल में काफी बेहतरीन प्रदर्शन किया है। उसको 40.64% वोट मिले और उसने 18 सीटें जीत लीं। इस हिसाब से ममता की टीएमसी को कुल 42 सीटों में से उससे सिर्फ 4 सीटें ज्यादा यानि 22 सीटें मिलीं और महज 3% ज्यादा यानि 43.69% वोट मिले। अगर 2014 के भाजपा के प्रदर्शन से इसकी तुलना करेंगे तो यही समझ में आएगा कि अगले चुनाव के लिए उसका मैदान साफ है। क्योंकि, तब उसे सिर्फ 17.02% वोट और दार्जीलिंग और आसनसोल की दो सीटें ही मिली थीं।
अगर हम 2021 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी की चुनौतियों को समझना चाह रहे हैं तो हमें यह ध्यान रखना होगा कि 2014 और 2019 दोनों लोकसभा चुनावों में भाजपा के चेहरा नरेंद्र मोदी थे, जो प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे। टीएमसी का दायरा बंगाल तक ही सीमित था, फिर भी यहां ममता बनर्जी का चेहरा ही बीजेपी पर भारी पड़ा। अब जरा बंगाल में हुए दो विधानसभा चुनावों में दोनों दलों का प्रदर्शन देख लेते हैं। 2011 में बीजेपी को वहां सिर्फ 4.06% वोट मिले थे और वह खाता नहीं खोल पाई थी। जबकि, 2016 में उसका प्रदर्शन काफी बेहतर हुआ और उसे 10.16% मिले और 3 सीटें जीत गई। यानि प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर पार्टी को दो साल पहले लोकसभा चुनावों में जो समर्थन मिला था, विधानसभा चुनावों में वह ग्राफ नीचे ही गिर गया। क्योंकि, विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी के कद के सामने उसका कोई स्थानीय प्रभावी चेहरा नहीं था।
इसके ठीक उलट 2009 के लोकसभा चुनाव से ममता के समर्थन का दायरा लगातार बढ़ता गया है। मसलन, 2009 के लोकसभा चुनाव में टीएमसी को 19 सीटें और 31.18% वोट मिले। 2014 में मोदी लहर के बावजूद दीदी वोटों के मामले में दबंग साबित हुईं और उनकी पार्टी को 34 सीटें और 39.79% मिले। यही नहीं 2011 और 2016 के विधानसभा चुनावों में तो उसे और ज्यादा कामयाबी हाथ लगी। 2011 में टीएमसी कांग्रेस और एसयूसीआई (सी) के साथ मिलकर चुनाव लड़ी और 294 में से 184 सीटें जीतें गई। लेकिन, 2016 में समीकरण बदला और वह अपने दम पर चुनाव लड़ी और फिर भी 44.91% वोट शेयर के साथ 211 सीटें जीत गई। 2019 में एक बार फिर जब भाजपा के पास प्रधानमंत्री मोदी का चेहरा था, तब भी 2016 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले टीएमसी का वोट शेयर सिर्फ 1.22% कम हुआ।
2021 के चुनाव में तृणमूल के पास नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी के विरोध जैसा मुद्दा है। करीब 27 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले राज्य में उसके पास ध्रुवीकरण के लिए यह सबसे बड़ा हथियार साबित हो सकता है। भाजपा इसी एजेंडे के खिलाफ तुष्टिकरण का आरोप लगाकर अपने लिए भगरीथ प्रयास में जुटी हुई है। उसकी पूरी कोशिश होगी कि अगर मुस्लिम वोटों को गोलबंद करने में ममता बनर्जी जुटी हैं तो पार्टी गैर-मुस्लिम वोट को अपने हक में गोलबंद करे। बंगाल की लड़ाई में कांग्रेस-लेफ्ट गठबंधन और ओवैसी भी बड़े फैक्टर बन सकते हैं। लेकिन, यह दोनों ही फैक्टर किसका खेल बिगाड़ेंगे और किसकी स्थिति मजबूत करेंगे यह बहस का विषय हो सकता है। लेकिन, वोटों और स्थानीय चेहरा के मामले में तृणमूल अभी तक बीजेपी पर भारी लग रही है।