पीएम मोदी के लिए इतना ख़ास क्यों है जर्मनी?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुक्रवार को बर्लिन में जर्मन चांसलर एंगेला मर्केल से मुलाक़ात की. पीएम मोदी स्वीडन और ब्रिटेन के दौरे के बाद जर्मनी पहुंचे थे.
पिछले महीने चौथी बार जर्मन चांसलर बनने के बाद मर्केल की मोदी से यह पहली मुलाक़ात थी. भारतीय विदेश मंत्रालय का कहना है कि मोदी का जर्मनी दौरा दोनों देशों के उच्चस्तरीय संबंधों को दर्शाता है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुक्रवार को बर्लिन में जर्मन चांसलर एंगेला मर्केल से मुलाक़ात की. पीएम मोदी स्वीडन और ब्रिटेन के दौरे के बाद जर्मनी पहुंचे थे.
पिछले महीने चौथी बार जर्मन चांसलर बनने के बाद मर्केल की मोदी से यह पहली मुलाक़ात थी. भारतीय विदेश मंत्रालय का कहना है कि मोदी का जर्मनी दौरा दोनों देशों के उच्चस्तरीय संबंधों को दर्शाता है. यूरोपीय यूनियन में जर्मनी भारत का सबसे बड़ा कारोबारी साझेदार है.
विशेषज्ञों का मानना है कि यूरोपीय यूनियन में जर्मनी और फ़्रांस भारत के लिए सबसे अहम देश हैं. भारत चाहता है कि जर्मनी उसके आधारभूत ढांचा के निर्माण में निवेश करे. जर्मनी केवल भारत के लिए ही अहम नहीं है बल्कि दुनिया भर में उसकी ख़ास पहचान है. जानिए दुनिया भर के लिए जर्मनी क्यों है अहम-
जर्मनी अपनी तकनीक के लिए दुनिया भर में जाना जाता है. उसकी सैन्य क्षमता भी काफ़ी आधुनिक है. मध्य-पूर्व और एशिया में रूस के बढ़ते प्रभाव के बीच मर्केल ने कहा था कि जर्मनी अपने रक्षा खर्चों को बढ़ाएगा.
जर्मनी का लोहा दुनिया मानती है. उसे यूरोप का इकॉनॉमिक पॉवरहाउस कहा जाता है. जर्मनी दुनिया की टॉप पांच अर्थव्यवस्थाओं में से एक है.
द्विपक्षीय व्यापार
भारत और जर्मनी के बीच आर्थिक सहयोग लगातार बढ़ रहा है. 2016-17 में दोनों देशों के बीच द्वीपक्षीय व्यापार 18.76 अरब डॉलर का था. इसमें भारत ने जर्मनी को 7.18 अरब डॉलर का सामान बेचा तो जर्मनी से भारत ने 11.58 अरब डॉलर का सामान ख़रीदा.
भारत की 80 कंपनियां जर्मनी में कारोबार कर रही हैं. 2010 के बाद से जर्मनी में भारत की कंपनियों ने 140 परियोजनाओं में निवेश किया है. दूसरी तरफ़ जर्मनी ने भी भारत के ट्रांसपोर्ट, इलेक्ट्रिकल उपकरण, सर्विस सेक्टर, केमिकल्स और ऑटोमोबील सोक्टर में निवेश किया है.
जर्मन ऑटो इंडस्ट्री की जानी-मानी कंपनियों की दस्तक भी भारतीय बाज़ार में हो गई है. वोक्सवैगन. बीएमडब्ल्यू और आउडी जैसी कार कंपनियों की साख भारत में शिखर पर हैं. इन कंपनियों ने दक्षिण एशिया के बड़े मैन्युफैक्चरिंग प्लांट भारत में ही लगाए हैं. जर्मनी ने गंगा की सफ़ाई में भी निवेश किया है.
माना जाता है कि जर्मनी के लोग बहुत अनुशासित और अपने काम में माहिर होते हैं. दुनिया ये मानती है कि जर्मनी के लोग वक़्त और नियमों के सख़्त पाबंद हैं.
उनकी क़ाबिलियत के आगे दुनिया सिर झुकाती है. जर्मनी के बारे में माना जाता है कि वहां के लोग ग़ज़ब के कार्यकुशल हैं.
जर्मनवासी पब्लिक ट्रांसपोर्ट की रफ़्तार को ज़हन में रखते हुए अपने प्लान बनाते हैं.
मान लीजिए अगर उन्हें ये पता है कि फलां जगह वे ट्रेन से दस मिनट में पहुंच जाएंगे, तो जर्मन लोग अपने घर से उसी मुताबिक़ निकलेंगे क्योंकि वे जानते हैं कि ट्रेन अपने समय के अनुसार ही चलेगी.
वो जिस काम के लिए जितना वक़्त मुक़र्रर करते हैं, उसे उसी समय सीमा में पूरा भी करते हैं. यही वजह है कि जर्मनी के लोग अपनी कार्यकुशलता के लिए दुनिया भर में जाने जाते हैं.
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फ़िर भी ये काम हैं अधूरे
लेकिन जर्मनी का एक सच और भी है. बहुत से प्रोजेक्ट ऐसे हैं जो आज तक पूरे नहीं हो पाए हैं. मिसाल के लिए हैम्बर्ग शहर का स्टेट ओपरा हाउस लंबे वक़्त से मरम्मत का इंतज़ार कर रहा है, लेकिन आज तक ये काम अधूरा है.
इसी तरह बर्लिन में पिछले कई सालों से ब्रांडेनबर्ग हवाई अड्डा बन रहा है, मगर काम है कि पूरा ही नहीं हो रहा. ये एयरपोर्ट पिछले छह सालों से तैयार होने का इंतज़ार कर रहा है.
इसके लिए एक मोटी रक़म ख़र्च भी की जा चुकी है. लेकिन हर साल एयरपोर्ट तैयार करने की एक नई तारीख़ बता दी जाती है. इन मिसालों को देखने के बाद ये भरम टूट जाता है कि जर्मनी के लोग अपने काम के पक्के और माहिर होते हैं.
फिर सवाल उठता है कि आखिर जर्मनी के बारे में ऐसी राय कैसे बनी कि वहां के लोग बेहद कार्यकुशल और दक्ष होते हैं? इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए हमें इतिहास के पन्नों से ख़ाक साफ़ करनी होगी.
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ऑटो वान बिस्मार्क
मौजूदा जर्मनी कभी ऐसा नहीं था जैसा आज नज़र आता है. जर्मन भाषा बोलने वाले लोग अलग-अलग राज्यों में बंटे हुए थे. जैसे प्रशिया, हेनोवर या बावरिया.
बाद में जर्मनी के लौह पुरुष कहे जाने वाले ऑटो वान बिस्मार्क ने जर्मन ज़बान बोलने वाले लोगों को आज के जर्मनी के तौर पर एकजुट किया. और मौजूदा जर्मनी की नींव रखी.
मध्य काल में जर्मन भाषी लोगों को आलसी और पिछड़ी हुई नस्ल माना जाता था. माना जाता था कि जर्मनी शराबी दार्शनिकों और घुमक्कड़ों का देश है.
जर्मनी की ये छवि 1870 में हुई एक जंग से बदली. उस जंग में प्रमुख जर्मन सूबे प्रशिया ने फ्रांस के राजा नेपोलियन-3 की सेना को करारी शिकस्त दी थी.
असल में जर्मनी की हमेशा से फ्रांस के साथ तनातनी रही थी. 1870-71 में फ़्रांस के नेपोलियन थर्ड ने जर्मनी पर हमला बोल दिया.
प्रशिया की सेनाओं ने नेपोलियन की सेना का डटकर मुक़ाबला किया और उसे शिकस्त दे दी.
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सामाजिक सुधार आंदोलन
इस युद्ध के साथ ही यूरोप में जर्मनी का सम्मान बढ़ गया. जर्मन लोगों के प्रति यूरोपीय देशों का नज़रिया बदल गया.
इस जीत के अलावा उन्नीसवीं सदी में जर्मन पादरी मार्टिन लूथर ने ईसाई धर्म में सुधार का आंदोलन छेड़ा था. उन्होंने ईसाइयत के प्रोटेस्टेंट फ़िरक़े की शुरुआत की थी.
इस सामाजिक सुधार आंदोलन ने भी यूरोप में काफ़ी हलचल मचाई थी. जर्मनी में बड़े पैमाने पर जनता ने पोप से बग़ावत कर के मार्टिन लूथर का साथ दिया था.
बाद में ब्रिटेन समेत कई और देशों में ईसाइयत का ये सुधार आंदोलन चला था.
फ्रांस पर प्रशिया की जीत और मार्टिन लूथर के धर्म सुधार आंदोलन, ये दो ऐसी घटनाएं थीं, जिसने जर्मन नस्ल को आलसी और पिछड़े हुए होने के आरोप से मुक्त कर दिया.
उनकी इमेज चमका दी. इसके बाद जर्मनी ने तेज़ी से तरक़्क़ी की.
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हिटलर का दौर
1918 में जर्मनी के लिए एक और इम्तिहान शुरू हआ. इस साल पहले विश्व युद्ध की शुरूआत हुई थी. जर्मनी को गुमान था कि वो एक मज़बूत फ़ौजी देश है.
लेकिन इस विश्व युद्ध में जर्मनी को मुंह की खानी पड़ी. यही नहीं इस युद्ध को जीतने वाले देशों ने जर्मनी पर भारी जुर्माना लगा दिया.
ये जुर्माना इतना ज़्यादा था कि इसे अदा करने में जर्मनी की पूरी अर्थव्यवस्था ही चरमरा गई. लेकिन एक कुशल राष्ट्र होने की जर्मनी की पहचान पर ख़ास असर नहीं पड़ा.
अगले बीस सालों में जर्मनी ने ये भारी जुर्माना भी काफ़ी हद तक चुकाया. साथ ही ख़ुद को पहले विश्व युद्ध की हार के बाद भी ताक़तवर बनाया.
बीस साल बाद ही जर्मनी ने हिटलर की अगुवाई में दूसरी आलमी जंग छेड़ दी थी.
जिन देशों ने पहले और दूसरे विश्व युद्ध में जर्मनी को हराया, वो भी ये मानते हैं कि जर्मनी के लोगों में कुछ तो बात है, जो उन्हें दूसरों से अलग करते है.
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जर्मन नस्ल
ब्रिटेन का जर्मनी से छत्तीस का आंकड़ा भी रहता है और ख़ास लगाव भी. अमरीका और ब्रिटेन पहले विश्व युद्ध में मित्र देश थे. उन्होंने ही जर्मनी पर भारी जुर्माना लगाया था.
लेकिन वो देश भी जर्मनी के इस जज्बे की क़द्र करते थे कि भारी जुर्माना चुकाने का बीस साल बाद ही जर्मनी फिर से एक मज़बूत राष्ट्र के तौर पर उभरा.
1950 और 60 के दशक में भी जब आर्थिक क्रांति आई तो लोगों ने जर्मन नस्ल के लोगों की मेहनत और क़ाबलियत की तारीफ़ की.
जबकि इसकी सबसे बड़ी वजह ये थी कि अमरीका और ब्रिटेन जैसे देश जर्मनी में मोटी रक़म लगा रहे थे, ताकि वो ये साबित कर सकें कि पश्चिमी जर्मनी, रूस के कब्ज़े वाले पूर्वी जर्मनी से बहुत आगे है.
साफ़ है कि जर्मन नस्ल की कार्यकुशलता सच्चाई कम और मिथक ज़्यादा है. इस बात को बाहर से आकर जर्मनी में बसे लोग ज़्यादा बेहतर ढंग से समझते हैं.
जब वो देखते हैं कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी में सख़्त नियमों और अफ़सरशाही का कितना ज़्यादा दख़ल है. यही वजह कि बर्लिन में एक एयरपोर्ट बरसों से अधूरा पड़ा है.
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अब इसे क़िस्मत का फेर ही कहेंगे कि जर्मनी घूमने जाने वाले लोग ऐतिहासिक ब्रांडेनबर्ग गेट, होलोकास्ट म्यूज़ियम, और विक्ट्री कॉलम के साथ इस अधूरे एयरपोर्ट को भी देखने जा सकते हैं. ये सारे ठिकाने जर्मनी के लिए एक दाग़ हैं.
जर्मन लेखक जोसेफ पियर्सन कहते हैं कि ये अधूरा एयरपोर्ट जर्मनी की बदनामी नहीं कराता.
बल्कि ये जर्मनी को लेकर सदियों पुराने मिथक को तोड़ता है. ये एक ऐतिहासिक ग़लती को दुरूस्त करता है.
ये साबित करता है कि जर्मन लोग भी इंसान ही हैं. उनसे भी गलतियां होती हैं. उनमें भी कमियां हैं.