राज्यसभा टिकटों पर केजरीवाल का फैसला क्यों चौंकाता है?
आम आदमी पार्टी के राज्यसभा के लिए दो अमीर उम्मीदवारों को चुनने का हो रहा है विरोध.
आम आदमी पार्टी अभी हंगामे की जद में है. राज्य सभा के लिये दिल्ली से उसके तीन उम्मीदवारों के अलावा ख़ुशी का ज़्यादा स्वर सुनाई नहीं दे रहा है. पार्टी के अन्दर से भी कुमार विश्वास को छोड़कर ज्यादा लोग दो गुप्ताओं समेत तीन उम्मीदवार चुनने के पक्ष में या ख़िलाफ़ बोलने को तैयार नहीं हैं.
नारायण दास गुप्त और सुशील गुप्त कौन हैं यह पार्टी के हलके में ही नहीं राजनैतिक हलके में भी कम ही लोग जानते हैं. इसलिए उनके चुनाव पर हैरानी, ख़ुद को उम्मीदवार मान रहे लोगों और उनके समर्थकों में नाराज़गी और आप से सहानुभूति रखने वालों को भी परेशानी तो हुई है.
जब रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन, देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर, यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी जैसे दर्जन भर भारी भरकम नाम हवा में तैरते रहे हों और पार्टी और अरविन्द केजरीवाल से यह उम्मीद की जा रही हो कि वे नरेन्द्र मोदी सरकार को घेरने वाली राजनीति करने लायक लोगों को राज्य सभा में ले आएंगे, तब दो पैसे वाले व्यवसायियों को लाना चौंकाता है.
तीसरे उम्मीदवार संजय सिंह पार्टी में रहे हैं पर पंजाब चुनाव के समय पैसे लेने से लेकर हर किस्म के आरोप उन पर लगे और पार्टी ने उन्हे बीच अभियान में इंचार्ज के पद से किनारे कर दिया था.
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तीनों नामों पर हैरानी
इसलिये तीनों ही नामों पर हैरानी है. और इस फैसले का बचाव करने में अगर पार्टी के लोग बच रहे हैं तो हमें आपको इस पर शक़ करने का हक़ है कि क्या ये फ़ैसले किसी और कारण से हुए हैं.
राज्य सभा चुनाव अन्य कारणों के लिए बदनाम रहे हैं. पर इससे ज़्यादा हैरानी कांग्रेस और भाजपा समेत काफ़ी सारे ऐसे राजनैतिक दलों की टिप्पणी पर होती है जो खुलेआम राज्य सभा की सीटें बेचते रहे हैं या ग़ैर राजनैतिक कारणों से ऐसे लोगों को उम्मीदवार बनाते रहे हैं जो पैसे वाले हों, पैसे छुपाने के खेल में एक्सपर्ट चार्टर्ड एकाउंटेंट हों, भ्रष्ट नेताओं की पैरवी करने वाले वकील हों या पार्टी के हारे हुए धनवान नेता हों.
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पुरानी मिसालें
अभी इस बार के चुनाव में भी ऐसे लोगों की सूची दिखाई जा सकती है. लेकिन बिड़ला, अंबानी, विजय माल्या, केडी ठाकुर, सुभाष गोयल, राम जेठमलानी, आरके आनंद से लेकर कपिल सिब्बल तक भारी भरकम नाम वाले लोग दिख जाएंगे. जब नीतीश कुमार की पार्टी बिहार जीती तो सबसे पहले कांग्रेसी धनवान किंग महेन्द्र ही राज्य सभा आए.
इतना ही नहीं छह साल बाद उन्हें रिपीट करने के क्रम में अली अनवर और अनिल साहनी जैसे सभी पुराने वापस आ गए. 'सामाजिक न्याय के मसीहा' लालू प्रसाद यादव ने सदा हरियाणा के व्यवसायी प्रेम गुप्त को राज्य सभा में और कैबिनेट में भी रखा और जब अपना सीधा वश न चला तो झारखंड से राज्य सभा भिजवा दिया जहां हर दूसरे साल विधायकों की घोड़ा मंडी लगती है और जहाँ से हर बार एक दो पैसे वाले ही जीतते रहे हैं.
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जिनकी वजह से कुमार विश्वास का पत्ता कटा
'चोर मचाए शोर'
इस मामले में छींटें उन ममता बनर्जी तक पर गए हैं जो कम पैसे वाली राजनीति के लिए जानी जाती हैं. और तो और वामपंथी भी कई बार पैसे वाले उम्मीदवार लाने या उनको समर्थन देने में लगे दिखते हैं.
हर राज्य में कुछ सीटें ऐसी निकलती हैं जिन पर बाहर के विधायकों के समर्थन की ज़रूरत होती है. ऐसा समर्थन अब अनिवार्यत: पैसे से ख़रीदा जाता है और ऐसी सीटें भाजपा और कांग्रेस जैसी पार्टियां ही नहीं अन्य दल भी पैसे वाले उम्मीदवारों को देती हैं.
हालत यह हो गई है कि राज्य सभा पैसे वालों, दलाल किस्म के नेताओं और चुनाव हारे कथित दिग्गजों का अखाड़ा बनकर रह गई है. ऐसे में भाजपा और कांग्रेस भी आप के फैसले पर शोर मचाएँ तो यह 'चोर मचाए शोर' ज़्यादा लगता है.
जाति का खेल
दिल्ली की राजनीति जानने वाले इस शोर के पीछे पैसे के खेल या पैसे वालों को लाकर मज़बूत होने के खेल के साथ दिल्ली की राजनीति के कुछ अन्य समीकरणों के बदलाव को भी मानते हैं. दिल्ली में भाजपा वैश्य और पंजाबी वोटों के आधार पर टिकी थी. कांग्रेस झुग्गी-झोपड़ी, पुनर्वास कालोनी और मुसलमानों के वोट से चलती थी. दिल्ली देहात का वोट पहले लोक दल वगैरह को जाता था.
अब सबसे बड़ा समूह पुरबिया वोटर बना है. आप को ये सब वोट मिलता है. पर वैश्य अरविंद केजरीवाल ने पिछली बार ही दिल्ली के बनिया समूह में दुविधा और दरार डाली थी. इस बार वैश्य उम्मीदवार राज्य सभा भेजकर उन्होंने यह खेल पूरा किया है. यह एक नया पक्ष है और इसलिये भी भाजपा हाय-हाय कर रही है.
'कुमार विश्वास जवानी में ही आप के आडवाणी बन गए'
शुभेच्छुओं की नाराज़गी एकदम जायज़
लेकिन इन सब वजहों से अरविंद केजरीवाल या आप ने जो किया है उसका बचाव नहीं किया जा सकता. और इस मायने में आप से निकले लगभग सभी लोगों की नाराज़गी और आप में नई उम्मीद देखने वाले शुभेच्छुओं की नाराज़गी एकदम जायज़ है.
आप न इस तरह की राजनीति के लिए बनी थी न लोगों ने उसे यही सब करने के लिये वोट दिया था. सबसे उल्लेखनीय टिप्पणी आप से निष्कासित योगेन्द्र यादव की है जो हर बार अरविंद केजरीवाल पर आरोप लगने पर यह कहते थे कि और कुछ भी हो जाए, अरविंद में लाख दूसरी ख़ामियां हों पर उन्हें कोई पैसों से नहीं ख़रीद सकता.
अब योगेंद्र का कहना है कि मैं किस मुंह से अपनी पुरानी बात को सही बता सकता हूँ. अरविन्द के पुराने साथी, हर अवसर पर उनके बचाव में रहने वाले और इस बार खुलकर राज्य सभा के लिये लॉबिंग करने वाले कुमार विश्वास तो ख़ुद को शहीद हुआ ही मान रहे हैं.