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बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को याद रखना क्यों ज़रूरी है?

चाहे गैर कांग्रेसी राजनीति की बात हो या फिर सामाजिक न्याय की कर्पूरी ठाकुर को याद करना ही होगा.

By BBC News हिन्दी
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बिहार में 24 जनवरी की अहमियत राजनीतिक रूप से पिछले कुछ सालों में तेजी से बढ़ी है. इस दिन पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर की जयंती के बहाने राज्य के मुख्य राजनीतिक दलों में उनकी विरासत पर दावा जताने की आपसी होड़ नज़र आती है.

जनता दल यूनाइटेड-बीजेपी गठबंधन इस मौके पर पटना के श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में आयोजन कर रही है, इसमें मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मौजूद होंगे. वहीं राष्ट्रीय जनता दल और राम विलास पासवान की लोकतांत्रिक जनता पार्टी अपने अपने मुख्यालय पर कर्पूरी ठाकुर का जन्मदिन मना रही है.

ऐसे में बड़ा सवाल ये उभरता है कि आखिर बिहार में जिस हज्जाम समाज की आबादी दो फ़ीसदी से कम है, उस समाज के सबसे बड़े नेता कर्पूरी ठाकुर की राजनीतिक विरासत के लिए इतनी हाय तौबा उनके निधन के 30 साल बाद क्यों मच रही है?

इसकी सबसे बड़ी वजह तो यही है कि कर्पूरी ठाकुर की पहचान अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) के बड़े नेता की है. ईबीसी छोटी छोटी आबादी वाली विभिन्न जातियों का समूह है, जिसमें 100 से ज़्यादा जातियां शामिल हैं. इसमें अकेले कोई जाति भले चुनावी गणित के लिहाज से महत्वपूर्ण नहीं हो लेकिन सामूहिक तौर पर ये 29 फ़ीसदी वोट बैंक बनाती हैं. 2005 में नीतीश कुमार को पहली बार मुख्यमंत्री बनाने में इस समूह का अहम योगदान रहा है.

कर्पूरी की विरासत पर दावा

अपने पिता के जन्मदिन का समारोह पैतृक गांव समस्तीपुर ज़िले के पितौंझिया (अब कर्पूरीग्राम) में मना रहे कर्पूरी ठाकुर के बेटे और जनता दल यूनाइटेड के राज्यसभा सांसद रामनाथ ठाकुर कहते हैं, "कर्पूरी जी बिहार में एक सामाजिक आंदोलन के प्रतीक रहे हैं, इसलिए हर तरह के लोग, विभिन्न राजनीतिक दल उनके जन्मदिन पर समाजिक न्याय के सपनों को पूरा करने का संकल्प लेते रहे हैं, हां अब दावे प्रतिदावे ज़रूर बढ़ गए हैं."

दरअसल, मंडल कमीशन लागू होने से पहले कर्पूरी ठाकुर बिहार की राजनीति में वहां तक पहुंचे जहां उनके जैसी पृष्ठभूमि से आने वाले व्यक्ति के लिए पहुँचना लगभग असंभव ही था. वे बिहार की राजनीति में ग़रीब गुरबों की सबसे बड़ी आवाज़ बने रहे.

24 जनवरी, 1924 को समस्तीपुर के पितौंझिया (अब कर्पूरीग्राम) में जन्में कर्पूरी ठाकुर बिहार में एक बार उपमुख्यमंत्री, दो बार मुख्यमंत्री और दशकों तक विधायक और विरोधी दल के नेता रहे. 1952 की पहली विधानसभा में चुनाव जीतने के बाद वे बिहार विधानसभा का चुनाव कभी नहीं हारे.

अपने दो कार्यकाल में कुल मिलाकर ढाई साल के मुख्यमंत्रीत्व काल में उन्होंने जिस तरह की छाप बिहार के समाज पर छोड़ी है, वैसा दूसरा उदाहरण नहीं दिखता. ख़ास बात ये भी है कि वे बिहार के पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे.

समाजिक बदलावों की शुरुआत

1967 में पहली बार उपमुख्यमंत्री बनने पर उन्होंने अंग्रेजी की अनिवार्यता को खत्म किया. इसके चलते उनकी आलोचना भी ख़ूब हुई लेकिन हक़ीक़त ये है कि उन्होंने शिक्षा को आम लोगों तक पहुंचाया. इस दौर में अंग्रेजी में फेल मैट्रिक पास लोगों का मज़ाक 'कर्पूरी डिविजन से पास हुए हैं' कह कर उड़ाया जाता रहा.

इसी दौरान उन्हें शिक्षा मंत्री का पद भी मिला हुआ था और उनकी कोशिशों के चलते ही मिशनरी स्कूलों ने हिंदी में पढ़ाना शुरू किया और आर्थिक तौर पर ग़रीब बच्चों की स्कूल फी को माफ़ करने का काम भी उन्होंने किया था. वो देश के पहले मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने अपने राज्य में मैट्रिक तक मुफ्त पढ़ाई की घोषणा की थी. उन्होंने राज्य में उर्दू को दूसरी राजकीय भाषा का दर्जा देने का काम किया.

1971 में मुख्यमंत्री बनने के बाद किसानों को बड़ी राहत देते हुए उन्होंने गैर लाभकारी जमीन पर मालगुजारी टैक्स को बंद कर दिया. बिहार के तब के मुख्यमंत्री सचिवालय की इमारत की लिफ्ट चतुर्थवर्गीय कर्मचारियों के लिए उपलब्ध नहीं थी, मुख्यमंत्री बनते ही उन्होंने चर्तुथवर्गीय कर्मचारी लिफ्ट का इस्तेमाल कर पाएं, ये सुनिश्चित किया.

आज की तारीख में भले ये मामूली क़दम दिखता हो लेकिन इसके संदेशात्मक राजनीतिक में इसके मायने बहुत ज़्यादा थे. बिहार के पूर्व एमएलसी प्रेम कुमार मणि कहते हैं, "उस दौर में समाज में उन्हें कहीं अंतरजातीय विवाह की ख़बर मिलती तो उसमें वो पहुंच जाते थे. वो समाज में एक तरह का बदलाव चाहते थे, बिहार में जो आज दबे पिछड़ों को सत्ता में हिस्सेदारी मिली हुई है, उसकी भूमिका कर्पूरी ठाकुर ने बनाई थी."

1977 में मुख्यमंत्री बनने के बाद मुंगेरीलाल कमीशन लागू करके राज्य की नौकरियों आरक्षण लागू करने के चलते वो हमेशा के लिए सर्वणों के दुश्मन बन गए, लेकिन कर्पूरी ठाकुर समाज के दबे पिछड़ों के हितों के लिए काम करते रहे.

मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने राज्य के सभी विभागों में हिंदी में काम करने को अनिवार्य बना दिया था. इतना ही नहीं उन्होंने राज्य सरकार के कर्मचारियों के समान वेतन आयोग को राज्य में भी लागू करने का काम सबसे पहले किया था.

युवाओं को रोजगार देने के प्रति उनकी प्रतिबद्धता इतनी थी कि एक कैंप आयोजित कर 9000 से ज़्यादा इंजीनियरों और डॉक्टरों को एक साथ नौकरी दे दी.

इतने बड़े पैमाने पर एक साथ राज्य में इसके बाद आज तक इंजीनियर और डॉक्टर बहाल नहीं हुए. दिन रात राजनीति में ग़रीब गुरबों की आवाज़ को बुलंद रखने की कोशिशों में जुटे कर्पूरी की साहित्य, कला एवं संस्कृति में काफी दिलचस्पी थी. प्रेम कुमार मणि याद करते हैं, "1980-81 की बात होगी, पटना में एक कांग्रेसी सांसद के पारिजात प्रकाशन की दुकान पर मैं उन्हें हिस्ट्री ऑफ़ धर्मशास्त्र ख़रीदते खुद देखा था. छह खंड वाली किताब उस वक्त तीन-साढ़े तीन हज़ार रुपये की थी. वे पढ़ने का समय निकाल ही लेते थे."

सादगी और ईमानदारी भरा जीवन

राजनीति में इतना लंबा सफ़र बिताने के बाद जब वो मरे तो अपने परिवार को विरासत में देने के लिए एक मकान तक उनके नाम नहीं था. ना तो पटना में, ना ही अपने पैतृक घर में वो एक इंच जमीन जोड़ पाए. जब करोड़ो रूपयों के घोटाले में आए दिन नेताओं के नाम उछल रहे हों, कर्पूरी जैसे नेता भी हुए, विश्वास ही नहीं होता. उनकी ईमानदारी के कई किस्से आज भी बिहार में आपको सुनने को मिलते हैं.

कर्पूरी ठाकुर
BBC
कर्पूरी ठाकुर

उनसे जुड़े कुछ लोग बताते हैं कि कर्पूरी ठाकुर जब राज्य के मुख्यमंत्री थे तो उनके रिश्ते में उनके बहनोई उनके पास नौकरी के लिए गए और कहीं सिफारिश से नौकरी लगवाने के लिए कहा. उनकी बात सुनकर कर्पूरी ठाकुर गंभीर हो गए. उसके बाद अपनी जेब से पचास रुपये निकालकर उन्हें दिए और कहा, "जाइए, उस्तरा आदि खरीद लीजिए और अपना पुश्तैनी धंधा आरंभ कीजिए."

एक किस्सा उसी दौर का है कि उनके मुख्यमंत्री रहते, उनके गांव के कुछ दबंग सामंतों ने उनके पिता को अपमानित करने का काम किया. ख़बर फैली तो जिलाधिकारी गांव में कार्रवाई करने पहुंच गए, लेकिन कर्पूरी ठाकुर ने जिलाधिकारी को कार्रवाई करने से रोक दिया. उनका कहना था कि दबे पिछड़ों को अपमान तो गांव गांव में हो रहा है.

एक और उदाहरण है, कर्पूरी ठाकुर जब पहली बार उपमुख्यमंत्री बने या फिर मुख्यमंत्री बने तो अपने बेटे रामनाथ को खत लिखना नहीं भूले. इस ख़त में क्या था, इसके बारे में रामनाथ कहते हैं, "पत्र में तीन ही बातें लिखी होती थीं- तुम इससे प्रभावित नहीं होना. कोई लोभ लालच देगा, तो उस लोभ में मत आना. मेरी बदनामी होगी."

रामनाथ ठाकुर इन दिनों भले राजनीति में हों और पिता के नाम का फ़ायदा भी उन्हें मिला हो, लेकिन कर्पूरी ठाकुर ने अपने जीवन में उन्हें राजनीतिक तौर पर आगे बढ़ाने का काम नहीं किया. प्रभात प्रकाशन ने कर्पूरी ठाकुर पर 'महान कर्मयोगी जननायक कर्पूरी ठाकुर' नाम से दो खंडों की पुस्तक प्रकाशित की है. इसमें कर्पूरी ठाकुर पर कई दिलचस्प संस्मरण शामिल हैं.

जब कर्पूरी को कोट मांगना पड़ा

उत्तर प्रदेश के कद्दावर नेता हेमवती नंदन बहुगुणा ने अपने संस्मरण में लिखा, "कर्पूरी ठाकुर की आर्थिक तंगी को देखते हुए देवीलाल ने पटना में अपने एक हरियाणवी मित्र से कहा था- कर्पूरीजी कभी आपसे पांच-दस हज़ार रुपये मांगें तो आप उन्हें दे देना, वह मेरे ऊपर आपका कर्ज रहेगा. बाद में देवीलाल ने अपने मित्र से कई बार पूछा- भई कर्पूरीजी ने कुछ मांगा. हर बार मित्र का जवाब होता- नहीं साहब, वे तो कुछ मांगते ही नहीं."

रामनाथ अपने पिता की सादगी का एक किस्सा बताते हैं, "जननायक 1952 में विधायक बन गए थे. एक प्रतिनिधिमंडल में जाने के लिए ऑस्ट्रिया जाना था. उनके पास कोट ही नहीं था. एक दोस्त से मांगना पड़ा. वहां से यूगोस्लाविया भी गए तो मार्शल टीटो ने देखा कि उनका कोट फटा हुआ है और उन्हें एक कोट भेंट किया."

प्रेम कुमार मणि कहते हैं कि कर्पूरी वास्तविकता में समाजवादी राजनीति के बड़े नेता रहे हैं, उनके नाम पर माल्यापर्ण करने वाले उनकी सादगी और ईमानदारी भरे रास्ते पर चलने का कोई साहस नहीं कर पाएगा. इसलिए कर्पूरी जैसे नेताओं को याद रखा जाना ज़रूरी है.

हालांकि बिहार की राजनीति में उनपर दल बदल करने और दबाव की राजनीति करने का आरोप भी ख़ूब लगाया जाता रहा है. उन पर ये आरोप भी लगता रहा कि वे राजनीतिक छल कपट में सिद्धहस्त हैं, जातिगत समीकरणों को देखते चुनावों में उम्मीदवार तय करने की उनकी भूमिका पर लोग सवाल उठाते रहे लेकिन कर्पूरी बिहार की परंपरागत व्यवस्था में करोड़ों वंचितों की आवाज़ बने रहे.

वे राजनीति में कांग्रेस पार्टी की राजनीतिक चालों को भी समझते थे और समाजवादी खेमे के नेताओं की महत्वाकांक्षाओं को भी. वे सरकार बनाने के लिए लचीला रूख अपना कर किसी भी दल से गठबंधन कर सरकार बना लेते थे, लेकिन अगर मन मुताबिक काम नहीं हुआ तो गठबंधन तोड़कर निकल भी जाते थे.

यही वजह है कि उनके दोस्त और दुश्मन दोनों को ही उनके राजनीतिक फ़ैसलों के बारे में अनिश्चितता बनी रहती थी. कर्पूरी ठाकुर का निधन 64 साल की उम्र में 17 फरवरी, 1988 को दिल का दौरा पड़ने से हुआ था.

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English summary
Why is it important to remember the former Bihar Chief Minister Karpuri Thakur
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