प्रवर्तन निदेशालय नया सीबीआई क्यों बन गया है?
प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) कथित भ्रष्टाचार के मामले में पूछताछ के लिए रॉबर्ट वाड्रा को गिरफ़्तार करना चाहता है. ईडी ने हाल ही में शरद पवार और उनके भतीजे अजीत पवार को महाराष्ट्र के एक कथित बैंक घोटाला मामले में नामजद किया है. ये दोनों ख़बरें इस हफ़्ते की सुर्ख़ियों में शामिल थीं. शायद ही कोई ऐसा हफ़्ता होता है जब हम विपक्षी नेताओं के संबंध में
प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) कथित भ्रष्टाचार के मामले में पूछताछ के लिए रॉबर्ट वाड्रा को गिरफ़्तार करना चाहता है. ईडी ने हाल ही में शरद पवार और उनके भतीजे अजीत पवार को महाराष्ट्र के एक कथित बैंक घोटाला मामले में नामजद किया है. ये दोनों ख़बरें इस हफ़्ते की सुर्ख़ियों में शामिल थीं.
शायद ही कोई ऐसा हफ़्ता होता है जब हम विपक्षी नेताओं के संबंध में प्रवर्तन निदेशालय का नाम नहीं सुनते हैं. यहां तक की, प्रवर्तन निदेशालय नया सीबीआई बन गया है, केंद्र सरकार के समर्थन में रहने वाली एक ऐसी एजेंसी जो विपक्षी नेताओं से जुड़े भ्रष्टाचार के मामलों में जांच करती है, ख़ासकर तब जब उस नेता के राज्य में चुनाव आने वाले हों.
साल 2005 में धन शोधन निरोधक अधिनियम (पीएमएलए), 2002 लागू होने से पहले तक प्रवर्तन निदेशालय एक छोटी और सुस्त एजेंसी हुआ करती थी.
तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने प्रवर्तन निदेशालय को एक शक्तिशाली एजेंसी बनाया. विडम्बना है कि अब वही प्रवर्तन निदेशालय अब चिदंबरम के ख़िलाफ़ ही जांच कर रहा है.
चिदंबरम फ़िलहाल सीबीआई की हिरासत में हैं. लेकिन जैसे ही वो रिहा किए जाएंगे प्रवर्तन निदेशालय उन्हें गिरफ़्तार कर सकता है. दोनों एजेंसियां एक ही केस की जांच कर रही हैं, कथित आईएनएक्स मीडिया घोटाले की.
एक राजनीतिक हथकंडे के तौर पर प्रवर्तन निदेशालय ने सीबीआई की जगह कैसे ले ली, इसकी वजह है पीएमएलए के कड़े प्रावधान.
सीबीआई किसी कथित अपराध की जांच तब शुरू करती है, जब किसी ने अपराध के आरोप लगाए हों, शिकायत दर्ज कराई हो या एफ़आईआर दर्ज कराई हो.
आयकर विभाग तब केस हाथ में लेता है जब बात कर चोरी की हो. वहीं प्रवर्तन निदेशालय का मुख्य काम है कि वो पैसे को ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि में इस्तेमाल होने से रोके. चाहे उस पैसे पर टैक्स दिया गया हो या ना दिया गया हो, ये मसला है ही नहीं.
प्रवर्तन निदेशालय देखता है कि कहीं आर्थिक अपराध तो नहीं हो रहा. और इस अपराध का पता लगाने के लिए वो शक्तिशाली पीएमएलए क़ानून के तहत किसी से भी वित्तीय लेन-देन के बारे में स्पष्टीकरण मांग सकता है.
एक-एक कॉन्ट्रैक्ट देखा जाएगा
मिसाल के तौर पर कर्नाटक के कांग्रेस नेता डीके शिवकुमार के मामले में प्रवर्तन निदेशालय ने कहा कि कर्नाटक सरकार में शहरी विकास और बिजली मंत्री रहते हुए उनका धन बढ़ा.
इसका नतीजा ये हुआ कि प्रवर्तन निदेशालय अब हर उस कॉन्ट्रैक्ट के बारे में जांच करना चहता है जो शिवकुमार के मंत्री रहते हुए इन मंत्रालयों ने दिया. वह तब तक जांच करता रहेगा जब तक उन्हें सबूत नहीं मिल जाते कि सरकार से कॉन्ट्रैक्ट हासिल करने के बाद एक कंपनी ने शिवकुमार के स्वामित्व वाली कंपनियों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निवेश किया.
ऐसे सबूत ढूंढना मुश्किल होता है और ये साबित करना भी मुश्किल होता है कि किसी चीज़ के बदले में कोई फ़ायदा पहुंचाया गया है, मतलब कॉन्ट्रैक्ट हासिल करने के लिए घूस के तौर पर नेता के बिज़नेस में निवेश किया गया है.
यहां पर पीएमएलए क़ानून मदद करता है. यह क़ानून अभियुक्त पर ये ज़िम्मेदारी डालता है कि वह ख़ुद को निर्दोष साबित करे. प्रवर्तन निदेशालय किसी को बिना वॉरेंट के गिरफ़्तार भी कर सकता है.
अगर उसे लगता है कि कोई संपत्ति 'बेनामी' है, तो वो उसे अटैच भी कर सकता है. किसी संपत्ति को अटैच करने का मतलब होता है कि उसे बेचा या स्थानांतरित किया जा सकता है.
प्रवर्तन निदेशालय ने अगर कह दिया कि यह संपत्ति आपकी है, तो मतलब आपकी है. फिर चाहे असलियत में वह किसी और की ही हो.
प्रवर्तन निदेशालय ने अब तक क़रीब 57,000 करोड़ रुपए की संपत्ति को अटैच किया है.
पीएमएलए की वजह से ज़मानत मिलना भी मुश्किल होता है. इस क़ानून के तहत ज़मानत मिलना इतना मुश्किल है कि कई बार लोगों को 2-3 साल जेल में काटने पड़ते हैं, भले ही वह बाद में निर्दोष साबित हो जाएं.
इन्हीं प्रावधानों के तहत पूर्व दूरसंचार मंत्री और 2जी घोटाले में अभियुक्त ए. राजा को 15 महीने जेल में बिताने पड़े थे. इस मामले में वह बाद में निर्दोष घोषित किए गए थे.
2017 में सुप्रीम कोर्ट ने ज़मानत के इन कड़े प्रावधानों में से कुछ में नरमी कर दी. लेकिन अभी भी बेल मिलने में कई हफ़्ते लग जाते हैं.
न्याय का सिद्धांत है, 'बेल नॉट जेल': ज़मानत उन मामलों में नहीं दी जाती जिनमें ख़तरा हो कि अभियुक्त भाग सकता है या गवाहों को प्रभावित कर सकता है. लेकिन पीएमएलए इन मामलों में ज़मानत को बहुत मुश्किल बना देता है.
और पीएमएलए मौजूदा समय में देश का एकलौता क़ानून है जिसमें जांच अधिकारी के सामने दिया गया बयान कोर्ट में सबूत के तौर पर पेश किया जा सकता है.
ऐेसे प्रावधान पोटा और टाडा जैसे आंतकवाद रोधी क़ानून में हुआ करते थे.
सज़ा की प्रक्रिया
पीएमएलए लागू होने के बाद प्रवर्तन निदेशालय, इन सभी सख़्त प्रावधानों के साथ सिर्फ़ आठ मामलों में दोष सिद्ध कर पाया है.
अक्सर प्रवर्तन निदेशालय पहले जांच शुरू करता है और गिरफ्तारियां करता है. इसके बाद सीबीआई और आयकर विभाग अपना काम शुरू करता है.
प्रवर्तन निदेशालय सबसे पहले मामले में कार्रवाई करता है. लेकिन ये तत्परता दोष सिद्ध करने में ज़्यादा मदद नहीं करती.
छापे और जांच सालों तक चलती हैं. मिसाल के लिए आईएनएक्स मीडिया मामले में कार्ति चिदंबरम पर सबसे पहले 2015 में छापा मारा गया.
उनके पिता भी इसी मामले में जेल में हैं. अभी तक चार्जशीट दाख़िल किए जाने के संकेत नहीं हैं.
इस देरी से ऐसा लगता है कि ये प्रक्रिया ही सज़ा है. 2जी मामले के तरह ज़्यादातर मामलों में आख़िर में अभियुक्त को बरी कर दिया जाता है.
लेकिन इस प्रक्रिया की वजह से विपक्षी नेताओं का उत्पीड़न होता है, चुनाव के वक़्त उनके पैसे फ्रीज़ कर लिए जाते हैं और चुनाव से पहले उनकी छवि पर भ्रष्टाचार का दाग़ लग जाता है.
आलोचकों के मुताबिक़, यही सबूत है कि प्रवर्तन निदेशालय के ज़रिए सिर्फ़ राजनीतिक बदला लिया जा रहा है. ये एजेंसी बीजेपी और एनडीए नेताओं के धन की जांच नहीं करती और ना ही वो बीजेपी मंत्रियों द्वारा दिए गए कॉन्ट्रेक्टों के मामले में रिश्वत लिए जाने का पता लगाने की कोशिश करती है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)