किसान आंदोलन की उर्वर भूमि रहे भारत में किसान किनारे क्यों
भारत में कई किसान आंदोलन हुए हैं और कई बार तो सरकारों को झुकना भी पड़ा है. लेकिन अब किसानों की मांगों पर उतना ध्यान क्यों नहीं दिया जाता.
कृषि से संबंधित विवादित विधेयक इन दिनों ख़ूब सुर्ख़ियाँ बटोर रहे हैं. कई राज्यों के किसान आंदोलन के मूड में हैं और पिछले कई दिनों से उनका विरोध प्रदर्शन जारी है.
सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के एक प्रमुख सहयोगी अकाली दल की एकमात्र मंत्री हरसिमरत कौर ने तो इसके विरोध में मंत्रिपद भी छोड़ दिया. लेकिन सरकार इससे टस से मस नहीं हुई और विधेयक दोनों सदनों में हंगामे के बीच पास हो गया.
विपक्षी पार्टियों और कई किसान संगठनों का आरोप है कि इससे न्यूनतम समर्थन मूल्य पर असर पड़ेगा, वहीं सरकार इन आरोपों को ख़ारिज करती है. सरकार का कहना है कि कृषि बिल में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और अनाज मंडियों की व्यवस्था को ख़त्म नहीं किया जा रहा है, बल्कि किसानों को सरकार विकल्प दे रही है.
भारत में किसान आंदोलनों का लंबा इतिहास रहा है. देश में सहजानंद सरस्वति जैसा किसान नेता हुए हैं, जिन्होंने ब्रिटिश राज में का गठन किया था. लेकिन राजनीतिक दलों पर ये भी आरोप लगते हैं कि समय समय पर सरकार उन्हें लुभाने की कोशिश तो करती है, लेकिन कभी उन्हें वोट बैंक नहीं मानती.
भारत में कृषि के इतिहासकारों का कहना है कि ब्रिटिश भारत के पंजाब प्रांत की विधानसभा ने 'सर' छोटू राम के राजस्व मंत्री रहते हुए वर्ष 1938 में जो पहला 'कृषि उत्पाद मंडी अधिनियम' पारित कर उसे लागू किया था, दरअसल उसकी परिकल्पना चौधरी चरण सिंह की ही थी.
वो कहते हैं कि चौधरी चरण सिंह जब पहली बार चुनाव जीतने के बाद उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पंत के संसदीय सचिव बने थे, तो वो कृषि उत्पाद मंडी बनाने के लिए एक बिल लेकर आना चाहते थे.
लेकिन पंत ने उन्हें मना कर दिया, जिसके बाद चौधरी चरण सिंह ने उत्तर प्रदेश की 'यूनाइटेड प्रोविंस लेजिस्लेटिव असेंबली' में एक 'प्राइवेट मेंबर बिल' पेश किया. लेकिन वो बिल पारित नहीं हो पाया.
कृषि इतिहास के जानकार अरविन्द कुमार सिंह कहते हैं कि ये बात वर्ष 1937 की है.
वो कहते हैं, "चौधरी चरण सिंह की ओर से लाया गया 'प्राइवेट मेंबर बिल' पास तो नहीं हो पाया. लेकिन इस बिल की जानकारी जब ब्रिटिश राज के पंजाब प्रांत के राजस्व मंत्री सर छोटू राम को मिली तो उन्होंने उस बिल को मंगवाया. फिर लाहौर स्थित ब्रिटिश भारत के पंजाब प्रांत की विधानसभा में कृषि उत्पाद मंडी अधिनियम -1938 पारित किया गया, जो 5 मई 1939 से लागू हो गया."
हालाँकि इसका श्रेय सर छोटू राम को ही जाता है, जिन्होंने किसानों के लिए और भी कई क्रांतिकारी क़दम उठाए थे. कृषि उत्पाद मंडी अधिनियम उनमें से एक था.
इस क़ानून के लागू होते ही अविभाजित पंजाब के निर्धारित किए गए इलाकों में मार्केट कमेटियों के गठन का सिलसिला शुरू हुआ. इस क़ानून के आने के बाद पहली बार पंजाब प्रांत के किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य तो मिलना शुरू हुआ ही, साथ ही बिचौलियों और आढ़तियों का शोषण झेल रहे किसानों को उनसे राहत भी मिलनी शुरू हो गई.
लेकिन भारत के दूसरे प्रांतों में किसान बिचौलियों, ज़मींदारों और साहूकारों से संघर्ष कर रहे थे. यूँ तो अलग-अलग स्थानों पर किसानों के विरोध के स्वर उठते रहते थे, लेकिन सबसे पहले सबसे बड़ा किसान आंदोलन कब हुआ? इसको लेकर इतिहासकारों के बीच राय बँटी हुई है.
1800 के दशक के बीच के सालों से लेकर इसके अंत तक किसानों के कई विद्रोह और संघर्ष हुए, जो इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं. इनमें ब्रितानी हुकूमत की ओर से किसानों पर लगाए गए लगान के विरुद्ध भी देश के अलग-अलग हिस्सों में प्रदर्शन हुए थे.
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1917 में हुआ सबसे पहला और बड़ा किसान आंदोलन
1900 की शुरुआत में ही भारत में किसान पहले से ज़्यादा संगठित होने लगे. वर्ष 1917 में अवध में किसान गोल बंद होने लगे.
वर्ष 1917 में ही अवध में सबसे पहला, सबसे बड़ा और प्रभावशाली किसानों का आंदोलन हुआ. वर्ष 1919 में इस संघर्ष ने ज़ोर पकड़ लिया और वर्ष 1920 के अक्तूबर महीने में प्रतापगढ़ में किसानों की एक विशाल रैली के दौरान 'अवध किसान सभा' का गठन हुआ.
किसानों के इस संघर्ष की ख़बर पूरे देश के किसानों के बीच फैल गई और महाराष्ट्र के किसान नेता बाबा राम चंदर कई किसानों के साथ इस आंदोलन में शामिल हो गए. बाबा राम चंदर को पूरी रामकथा कंठस्थ थी और वो गाँव-गाँव घूमकर उसे सुनाते और किसानों को गोलबंद करने का काम करते.
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी जीवनी में इस आंदोलन और बाबा राम चंदर का उल्लेख करते हुए कहा है कि उन्होंने अवध में हुए किसान आंदोलन से काफ़ी कुछ सीखा था. उत्तर भारत में अवध किसान सभा किसानों के सबसे मज़बूत संगठन के रूप में उभर कर आया.
उत्तर प्रदेश के किसान, ब्रिटिश हुकूमत की ओर से लगान में वृद्धि और उपज के रूप में लगान की वसूली के ख़िलाफ़ एकजुट होने लगे और उन्होंने 'एक आंदोलन' शुरू किया.
अवध के किसानों के आंदोलन से ठीक पहले यानी वर्ष 1915 में महात्मा गांधी दक्षिण अफ़्रीका से भारत लौटे, तो वो उत्तर भारत के किसानों की बुरी दशा और उनके शोषण से काफ़ी विचलित हुए. ब्रितानी हुकूमत के काश्तकारी क़ानून में किसानों के लिए नील की खेती को अनिवार्य कर दिया गया था. किसान इस क़ानून से छुटकारा पाना चाहते थे.
महात्मा गांधी अपने साथ वकीलों की एक टीम लेकर बिहार के चंपारण पहुँचे, जहाँ किसान ब्रितानी काश्तकारी क़ानून से सबसे ज़्यादा त्रस्त थे. वकीलों की इस टीम में उनके साथ राजेंद्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिन्हा, जेबी कृपलानी और मौलाना मजहरुल हक़ भी शामिल थे.
अरविंद सिंह कहते हैं कि महात्मा गांधी 10 अप्रैल को चंपारण पहुँचे और उन्होंने 15 अप्रैल से चंपारण में इस क़ानून के ख़िलाफ़ सत्याग्रह शुरू कर दिया था. बाद में नेहरू भी इसमें शामिल हुए थे.
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जब हुआ किसानों का सत्याग्रह आंदोलन
चंपारण सत्याग्रह की तरह ही उसी दौरान सरदार पटेल के नेतृत्व में गुजरात के खेड़ा और बरदोली में किसानों का भी सत्याग्रह आंदोलन हुआ. इसी आंदोलन के दौरान वल्लभ भाई पटेल को 'सरदार' की उपाधि दी गई. 1930 के दशक में ही महात्मा गांधी के आह्वान पर चौरी-चौरा का आंदोलन भी हुआ.
गांधी जी के मैदान में उतरने के बाद भारत भर में किसान एकजुट होने लगे और वर्ष 1936 में स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने अखिल भारतीय किसान सभा का गठन किया.
आज़ादी के बाद भी किसानों के आंदोलन चलते रहे. इसी बीच लाल बहादुर शास्त्री के प्रधानमंत्री रहते हुए वर्ष 1965 में हरित क्रांति आई, जिसने उत्तर भारत, ख़ास तौर पर उत्तर प्रदेश और पंजाब के किसानों को आत्मनिर्भर तो बनाया ही, साथ ही भारत के कृषि उत्पादन में भी काफ़ी बढ़ोतरी हुई.
शुरुआत में तो इसका लाभ पंजाब के किसानों को ज़्यादा मिला. बाद में हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों को भी फ़ायदा हुआ. लेकिन दूसरे राज्यों में किसानों के सामने कई समस्याएँ खड़ी होने लगीं.
फिर 80 के दशक में आया उदारीकरण का दौर
बात 1987 की है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर के कर्नूखेड़ी गाँव में बिजली घर जल गया. इलाक़े के किसान पहले से ही बिजली संकट का सामना कर रहे थे और इसको लेकर बड़े परेशान थे. किसानों के बीच से ही सामने आए एक किसान महेंद्र सिंह टिकैत ने सभी किसानों से बिजली घर के घेराव का आह्वान किया. ये दिन था 1 अप्रैल, 1987 का.
ख़ुद टिकैत को भी अंदाज़ा नहीं था कि बिजली घर के घेराव जैसे छोटे से मामले को लेकर लाखों किसान कर्नूखेड़ी में जमा हो जाएँगे. किसानों के प्रदर्शन को देखते हुए और उनकी संख्या देखते हुए सरकार भी घबराई और उसे किसानों के लिए बिजली की दर को कम करने पर मजबूर होना पड़ा.
अरविंद सिंह बताते हैं कि ये किसानों की बड़ी जीत थी और तब उन्हें लगा कि वो अपने मुद्दों को लेकर बड़ा आंदोलन भी कर सकते हैं और इसलिए उसी साल अक्तूबर महीने में सिसोली में किसान पंचायत बुलाई गई, जिसमें उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह भी शामिल हुए.
किसानों ने अपनी एकता को जान लिया और महेंद्र सिंह टिकैत के रूप में उन्हें एक किसान नेता भी मिल गया. फिर कुछ ही महीनों के बाद, यानी 1988 के जनवरी माह में किसानों ने अपने नए संगठन, भारतीय किसान यूनियन के झंडे तले मेरठ में 25 दिनों का धरना आयोजित किया, जिसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख़ूब सुर्खियाँ बटोरीं. इस धरने में पूरे भारत से किसान संगठन और नेता शामिल हुए.
राजनीतिक दलों से संघर्ष
किसानों की मांग थी कि सरकार उनकी उपज का दाम वर्ष 1967 से तय करे. इस आंदोलन के बाद महेंद्र सिंह टिकैत ने विदेश की यात्राएँ भी कीं. हालाँकि उन्होंने कोई अपना दल नहीं बनाया, लेकिन उन्होंने जनता दल के प्रत्याशी मुफ़्ती मुहम्मद सईद को मुज़फ्फरनगर की सीट पर समर्थन दिया, जिससे सईद लोकसभा में चुनकर गए.
इस दौरान उनका राजनीतिक दलों से संघर्ष भी हुआ और नौबत यहाँ तक पहुँची कि उनके ख़िलाफ़ मायावती ने अनुसूचित जाति उत्पीड़न क़ानून के तहत मामला दर्ज कराया, तो वर्ष 1990 में मुख्यमंत्री रहते मुलायम सिंह यादव ने उन्हें गिरफ़्तार करवाया. मुलायम सिंह को पता नहीं था कि टिकैत की गिरफ़्तारी के बाद सदन से 67 विधायक भी इस्तीफ़ा दे सकते हैं.
टिकैत से पहले उत्तर भारत में सर्वमान्य किसान नेता के रूप में चौधरी चरण सिंह का नाम आता है, जो छपरौली विधानसभा सीट से 40 साल तक लगातार विधायक के रूप में चुने जाते रहे. चौधरी देवी लाल भी किसान नेता तो थे, लेकिन वो राजनीतिक दल के ज़रिए आंदोलन करते थे, जो महेंद्र सिंह टिकैत ने कभी नहीं किया.
भारत में आज़ादी के बाद से लेकर आज तक हुए किसानों के आंदोलन या संघर्ष को देखा जाए तो ये स्पष्ट है कि किसान संघर्ष तो करते रहते हैं, लेकिन जब बात वोट की होती है, तो उनका विरोध और आंदोलन वोट के रूप में परिवर्तित नहीं होता है.
मिसाल के तौर पर मध्यप्रदेश के जिस मंदसौर में किसानों का आंदोलन हुआ और पुलिस की गोलीबारी में पाँच किसानों की मौत हुई, वहीं से सत्ता पक्ष के उम्मीदवार फिर से जीत कर आए जबकि किसानों ने उनपर अनदेखी के गंभीर आरोप लगाए थे.
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यही सवाल मैंने भारत के लगभग 250 किसान संगठनों की संस्था अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के राष्ट्रीय संयोजक सरदार वीएम सिंह से पूछा तो उनका कहना था कि जब 80 के दशक तक किसान आंदोलन हो रहे थे, तो किसान जाति और धर्म के नाम पर बँटा हुआ नहीं था.
वो कहते हैं, "किसानों के आंदोलनों के बाद राजनीतिक दलों को पता चल गया कि ये कितनी बड़ी ताक़त हैं. इस एकता को तोड़ने के लिए राजनीतिक दलों ने किसानों के बीच जाति और धर्म के नाम पर फूट डालनी शुरू की. किसान इस जाल में फँस गए. यही वजह है कि किसानों की आवाज़ संसद और विधानसभाओं में ठीक तरह से नहीं उठ पाती."
कुछ किसान नेताओं का कहना है कि पिछले साल ही किसानों का देशव्यापी ज़ोरदार आंदोलन हुआ था, लेकिन इसके बावजूद मामला वहीं का वहीं रह गया क्योंकि आंदोलन के बाद किसान जब वापस लौटे और चुनाव हुए, तो वो फिर जाति के आधार पर वोट डालने लगे.
अखिल भारतीय किसान सभा के विजू कृष्णन कहते हैं कि किसान जब तक एकजुट रहे, उन्होंने सरकारों को झुकने पर मजबूर किया. सरकारों ने उनके आंदोलन को गंभीरता से भी लिया क्योंकि देश में बड़ी आबादी किसानों की है. उनका कहना है कि किसानों की कमज़ोरी का फ़ायदा राजनीतिक दल और चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार उठाने की कोशिश करते रहे हैं.
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की ट्रेड यूनियन के उपाध्यक्ष ज्ञान शंकर मजूमदार कहते हैं, "हमने देखा है कि जब किसानों में एकजुटता रही तो मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री उनसे मिलने जाते थे. लेकिन राजनीतिक दलों ने किसानों को तोड़ने का काम किया जिससे उनकी ताक़त कम हुई और नौबत ऐसी है कि वो अब महीनों भी आंदोलन कर लें, उनसे मिलने या उनकी मांगों के बारे में बातचीत करने के लिए कोई अधिकारी या नेता नहीं जाता."