चीन को विदेश मंत्री जयशंकर ने क्यों दिलाई डॉ कोटणीस की याद
भारतीय डॉक्टर कोटणीस को चीन में आज भी याद किया जाता है. उनकी याद में चीन में एक संग्रहालय भी बनाया गया है.
भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने मंगलवार को रूस और चीन के विदेश मंत्रियों के साथ वर्चुअल बैठक की. समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक जयशंकर ने इस बैठक में कहा कि भारत हर संकट में चीन के साथ खड़ा रहा है और उसे भारत के हितों को मान्यता देनी चाहिए.
जयशंकर ने इस बैठक में चीन के विदेश मंत्री को डॉक्टर द्वारकानाथ कोटणीस की याद भी दिलाई और कहा कि सबको साथ लेकर चलने से ही एक सतत विश्व का निर्माण हो सकता है.
तो आख़िर कौन थे डॉक्टर कोटणीस जिनका हवाला विदेश मंत्री ने चीन को दिया. दरअसल, डॉक्टर कोटणीस को 1938 में चीन-जापान युद्ध के दौरान चीन भेजा गया था और वहाँ उन्होंने घायल चीनी सैनिकों का इलाज किया था.
उनकी सेवाओं से चीन में उनके कई प्रशंसक बने. संकट में चीन की मदद करने के लिए चीनी शासक मोओत्से तुंग ने डॉक्टर कोटणीस की प्रशंसा में एक पत्र भी लिखा था, जो दोनों देशों के संबंधों का एक ऐतिहासिक दस्तावेज है. माओ की चारकोल से लिखी गई इस चिट्ठी को बेहतरीन कैलीग्राफी का नमूना माना जाता है.
समय के साथ-साथ इसकी लिखावट धुंधली पड़ रही थी. लेकिन कुछ साल पहले चीन से आए कारीगरों ने इसे दोबारा पहले जैसा किया है. ये पत्र सोलापुर के संग्रहालय में रखा गया है और बड़ी संख्या में लोग इसे वहाँ देखने आते हैं.
बीबीसी हिंदी के सहयोगी पत्रकार संजय तिवारी ने फ़रवरी 2017 में कोटणीस के परिजनों और संग्रहालय में उस खत को देखने आए लोगों से बात की थी. पढ़िए उस बातचीत के मुख्य अंश-
चीनी शासक माओत्से तुंग द्वारा भारतीय डॉक्टर द्वारकानाथ कोटणीस की प्रशंसा में लिखा एक ख़त अब चीन और भारत के दोस्ताना संबंधों का ऐतिहासिक दस्तावेज़ बन चुका है.
महाराष्ट्र के सोलापुर के रहने वाले डॉ. कोटणीस 1938 में बम्बई के जेजे अस्पताल में काम करते थे. तब उन्हें एक मेडिकल मिशन के तहत चीन-जापान युद्ध के दौरान घायल चीनी सैनिकों के इलाज के लिए चीन भेजा गया था.
उनकी सेवाओं से वहाँ उनके प्रशसंक बनते गए. चार वर्षों तक डॉ. कोटणीस चीन में रहे. वहीं उन्होंने एक चीनी नर्स से शादी की और 32 वर्ष की आयु में उनकी मौत हो गई.
चीन के तत्कालीन राष्ट्र प्रमुख माओत्से तुंग द्वारा चारकोल से लिखी गई इस चिट्ठी को बेहतरीन कैलीग्राफी का नमूना माना जाता है. समय के साथ-साथ इसकी लिखावट धुंधली पड़ रही थी. लेकिन चीन से आए कारीगरों ने इसे दोबारा पहले जैसा किया है.
'माओ भारत को सबक़ सिखाना चाहते थे'
कोटणीस परिवार
मुम्बई के विले पार्ले की रहने वाली 63 साल की डॉ. सुमंगला बोरकर डॉ द्वारकानाथ कोटणीस के बड़े भाई की बेटी हैं.
कोटणीस परिवार के बारे में वो बताती हैं, ''डॉ. कोटनिस के दो भाई थे और पाँच बहनें थीं. उनमें से दो ने शादी नहीं की थी. अब उनमें से कोई भी जीवित नहीं हैं. मेरे पिता की मैं अकेली बेटी थी. डॉ. कोटणीस की चीनी पत्नी का निधन अभी कुछ वर्षों पहले हुआ है. वो भारत आई थीं, हम सबके साथ परिवार में रही भी थीं. तब मेरी दादी, यानी उनकी सास जीवित थीं. उनकी पत्नी को सिर्फ़ चीनी भाषा आती थी. बाद में उन्होंने थोड़ी अंग्रेज़ी भी सीख ली थी. उनकी कुछ बातें हम समझते, हमारी कही कुछ बातें ही वो समझ पाती थीं. उनका बेटा युवावस्था में एक इंफेक्शन के चलते चल बसा था.''
माओ की पुण्यतिथि मनाने की थोड़ी छूट
परिवार में उनकी यादों के बारे में पूछे जानेपर वो कहती हैं, "मेरी और डॉ. कोटणीस की मुलाक़ात नहीं हो पाई. 1942 में उनका देहांत हुआ और मेरा जन्म 1953 का है. लेकिन घर में उनकी यादें और उनसे जुड़ी काफ़ी चीज़ें हमेशा थीं."
सुमंगला बताती हैं, "मेरे पिताजी ने उनपर किताब भी लिखी थी, गाने भी लिखे थे. ये पूरा संग्रह और वो पत्र अब सोलापुर के संग्रहालय में है. 2012 में डॉ. कोटनिस के पुराने घर की मरम्मत कर उसे संग्रहालय बना दिया गया है. उनके इस्तेमाल की चीजें जैसे- फ़र्नीचर, टेबल जिसपर वो लिखते थे- तमाम चीज़ें हमारे पास थीं वो संग्रहालय को दे दी गई हैं."
माओ की सांस्कृतिक क्रांति के 50 साल
वो कहती हैं, "उस वक़्त डॉ. कोटणीस की छोटी बहन जीवित थीं और हमारे साथ रहती थीं. वो अविवाहित थीं और मेरे पास ही उनका देहांत हुआ. तब वहाँ वो लेटर लगाया नहीं गया था. अब लेटर पुनः नए की तरह कर दिया गया है और उसे वहाँ डिस्प्ले किया जाएगा. मूल पत्र को न सिर्फ़ रिस्टोर किया गया है बल्कि उसे पीछे एक और कार्डबोर्ड लगा कर और बड़ा किया गया है."
उन्होंने बताया, "मूल पत्र कुछ 3 फ़ीट लंबा और डेढ़ फ़ीट चौड़ा है. माओ खुद एक अच्छे कैलिग्राफ़िस्ट थे. चारकोल से उन्होंने वह पत्र लिखा था. मैं तब कुछ चार या पांच साल की थी. कोई बड़े चीनी नेता या अधिकारी एक दिन घर आकर वह पत्र दे गए थे. एक सुंदर-सा लंबा बॉक्स था जिसमें कैलेंडर की तरह गोल आकार में लपेट कर ये चिट्ठी रखी गई थी. बाद में 1977-78 के आस-पास उनका कोई डेलिगेशन आया था. उन्होंने देखा कि लेटर ख़राब हो रहा है तो वो उसे लेकर चीन गए. 1982 में जब मैं पहली बार चीन गई तो उन्होंने चिट्ठी को पहले जैसा करके मुझे लौटाया था. अबकी बार दूसरी बार उन्होंने उसे रिस्टोर किया है."
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चिट्ठी के क़द्रदान
क्या लोग चिट्ठी को देखने आते हैं. इस सवाल पर डॉ. सुमंगला कहती हैं, "केवल चीनी लोग ही आते हैं उस चिट्ठी को देखने. उनके कोई लीडर, कोई नए अधिकारी आते हैं तो उसे देखने आते हैं. सोलापुर संग्रहालय में जब यह दिया गया तो लोगों को इतना महत्वपूर्ण नहीं लगा था."
सोलापुर महानगर पालिका की मेयर पिछले दिनों मुम्बई जाकर इस पत्र ले कर आई थीं. सोलापुर में कोटनीस परिवार का पुश्तैनी मकान अब संग्रहालय बन चुका है जहाँ यह चिट्ठी प्रदर्शित की जाएगी.
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सब कुछ वैसा ही जैसा माओ छोड़ गए थे
सोलापुर की मेयर सुशीला अबूती बताती हैं, "उन्होंने इस पत्र को जैसा था वैसा बनाकर हमारे सोलापुर को दिया है. डॉ. कोटणीस का घर अब मेमोरियल बन गया है जहां इसे रखा जाएगा. सोलापुर के पुत्र के तौर पर हमें डॉ. कोटणीस पर अभिमान है."
सुशीला अबूती बताती हैं, "जब नए चीनी राजदूत या काउंसल जनरल आते हैं तो वो इसे देखने आते हैं. चीनी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री से हम मिलने जाते हैं. 2015 में जब चीनी नेता आए थे तो उन्होंने मंगवाकर चिट्ठी देखी थी. उन्होंने उसे रिस्टोर करने की बात की थी. 30 सालों में एक बार इस चिट्ठी को रिस्टोर करने की ज़रूरत पड़ती है."
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इस चिट्टी की अहमियत के बारे में डॉ. सुमंगला कहती हैं, "डॉ. कोटणीस की मौत के बाद इस चिट्ठी में माओत्से तुंग ने लिखा है कि उनकी सेना ने अपना एक हाथ और देश ने एक मित्र गँवा दिया है."
वो कहती हैं, "अब देखें लगता है कि चीन अब हमारा दोस्त नहीं रहा. अभी तो वो शत्रु ही है. फिर भी ये चिट्ठी एक संबंध की तरह है जिसके ज़रिए दोस्ती बनी हुई है. मुझे याद है जब पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल चीन गई थीं तो उन्होंने कहा था कि डॉ. कोटणीस के परिवार के कुछ लोग साथ आएंगे तो दोस्ती के लिहाज़ से अच्छा रहेगा. मेरी बुआजी तब जीवित थीं और वो चीन गई थीं ताकि दोस्ती बनी रहे. डॉ.कोटणीस का योगदान इतना है कि उनके परिवार का कोई भी सदस्य चीन जाता है तो उसे वहां अपनापन मिलता है."
वो कहती हैं, "हमें चीन के लोगों से सीखना चाहिए. अपने देश के लिए जान देनेवालों को हम भूल जाते हैं. वो लोग डॉ. कोटणीस को आज भी याद करते हैं. चीन में उनकी याद में संग्रहालय बनाया गया है. चीनी लोग हमसे उनकी चीज़ें माँगते हैं. कहते हैं कि कुछ है तो हमें लौटा दो."
(यह स्टोरी पहली बार दो फ़रवरी 2017 को प्रकाशित हुई थी.)