कश्मीरी पंडित क्यों नहीं डालना चाहते वोट?
शालीन काबरा ने बताया , "इस समय जहां भी कश्मीरी विस्थापित रह रहे हैं, वो वहां पर वोटर लिस्ट में अपना नाम देख कर पोस्टल बैलट हासिल करने के लिए अपनी अर्ज़ी दे सकते हैं, उनके क्षेत्र के चुनाव अधिकारी उन्हें पोस्टल बैलट जारी करेंगे और उनको काउंटिंग के समय गिनती में शामिल किया जायेगा."
वोटर लिस्ट से लोगों के नाम गायब किए गए हैं, इस आरोप के जवाब में शालीन काबरा ने कहा, "विस्थापित मतदाताओं के संदर्भ में ऐसा माना जाता है कि वो अपने अपने निर्वाचन क्षेत्र में रह रहे हैं
जम्मू कश्मीर के दो बड़े क्षेत्रीय दल नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के बाद अब राज्य में रह रहे विस्थापित कश्मीरी पंडितों ने भी अगले महीने होने वाले निकाय और पंचायती चुनावों के बहिष्कार का फ़ैसला किया है.
कश्मीर की सियासी पार्टियों ने अनुच्छेद 35-ए को लेकर पैदा हुए भ्रम को देखते हुए निकाय चुनावों के बहिष्कार का फ़ैसला लिया था. वहीं विस्थापित कश्मीरी पंडित समाज के लोग वोटर लिस्ट से अपने नाम गायब होने के चलते यह कदम उठाने पर मजबूर हुए हैं.
एक अनुमान के मुताबिक 28 साल से भी ज़्यादा लंबे समय से जम्मू में आकर बसे लगभग एक लाख कश्मीरी पंडित मतदाताओं के नाम 2018 में निकाय चुनावों के लिए प्रकाशित की गयी मतदाता सूची से गायब हो गए हैं.
इसके चलते अब विस्थापित कश्मीरी पंडितों को निकाय चुनावों में हिस्सा लेने के लिए कश्मीर घाटी का रुख करना पड़ेगा.
इससे नाराज़ कश्मीरी पंडित समाज के लोगों ने केंद्र और राज्य सरकार पर 'राजनीतिक लिंचिंग' का आरोप लगाते हुए यह मांग की है कि अगर चुनाव आयोग 2012 या 2016 में प्रकाशित मतदाता सूची के अनुसार मतदान कराने का फ़ैसला नहीं लेता तो उनके पास चुनावों का बहिष्कार करने के इलावा कोई दूसरा चारा नहीं बचेगा.
सरकार हमें कागज़ पर भी जिंदा नहीं देख सकती?
कश्मीर घाटी से विस्थापित होने के बाद कश्मीरी पंडित समाज के लोगों ने वर्ष 2005 में राज्य में पहली बार निकाय चुनावों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था.
जम्मू नगर निगम के अंतर्गत आने वाले वार्ड 64 से शीला हंदू ने पहली बार भाजपा की टिकट पर चुनाव लड़ा था जिसमें उन्होंने बहुमत हासिल किया था. लेकिन इस बार शीला हंदू यह फ़ैसला नहीं कर पा रहीं कि वो चुनाव कैसे लड़ेगीं. क्योंकि हजारों कश्मीरी पंडितों के साथ-साथ उनका नाम भी मतदाता सूची से गायब है.
बीबीसी हिंदी से बातचीत में उन्होंने बताया, "कश्मीर से विस्थापित होने के बाद उन्होंने तिनका-तिनका जोड़ कर एक बार फिर अपना घर बनाया था, साल 2005 के निकाय चुनावों में हिस्सा लिया और अपना सिक्का जमाया लेकिन सरकार के इस कदम से वो खुद सकते में हैं.
उन्होंने बताया कि निकाय चुनावों के लिए तैयार की गयी मतदाता सूची में उनके नाम कश्मीर के अलग अलग इलाकों की लिस्ट में जोड़े गए हैं जबकि वो पिछले 28 साल से जम्मू में ही रह रहे हैं और जम्मू नगर निगम को टैक्स भी दे रहे हैं.
सरकार से अपील करते हुए शीला हंदू ने कहा कि बिजली, सड़क, पानी, और साफ़ सफाई से जुड़े सभी मुद्दे इन चुनावों के माध्यम से हल होते हैं फिर क्या वजह है कि उन्हें जम्मू से 300 किलोमीटर दूर अपने वोट का इस्तेमाल करने को कहा जा रहा है.
विस्थापित समन्वय समिति के नेता रविंदर कुमार रैना ने बीबीसी से कहा, "हम चुनाव में भाग लेने से नहीं डरते लेकिन जब तक सरकार 2012 या 2016 की मतदाता सूची के मुताबिक चुनाव नहीं करवाती हम इस चुनाव में हिस्सा नहीं लेंगे.''
भारत सरकार को कटघरे में खड़ा करते हुए उन्होंने कहा कि एक ओर तो सरकार बन्दूक उठाने वालों को बातचीत का न्यौता देती है, नौकरियों में छूट देती है और दूसरी तरफ कश्मीरी विस्थापितों के नाम मतदाता सूची से गायब कर रही है और उन्हें अपने हक़ के लिए लड़ने पर मजबूर कर रही है.
'सरकार हमारे हक़ छीन रही'
स्थानीय निवासी ओमकार राजदान कहना है कि देश के संविधान ने उन्हें जो हक़ दिए हैं यह सरकार वो भी उनसे छीन रही है.
उन्होंने सीधे-सीधे केंद्र और राज्य की सरकार को जिम्मेदार ठहराते हुए आरोप लगाया कि विस्थापित कश्मीरी पंडितों के ख़िलाफ़ यह साज़िश 2016 में रची गयी और 2018 में इसको अमली जामा पहनाया गया.
राजदान ने भाजपा के कश्मीरी नेताओं को आड़े हाथों लेते हुए कहा, ''वो आज तक हमारे साथ कभी खड़े नहीं हुए, कभी हमारा हाल नहीं जाना और न ही हमारी इस लड़ाई में हमारे साथ शामिल हैं. हमारे लिए इसका सीधा सीधा यही मतलब है को जो हो रहा उनकी रजामंदी के साथ हो रहा शायद इसलिए वो इसके ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ भी नहीं उठा रहे.''
इन इल्ज़ामों को दरकिनार करते हुए भजपा के प्रदेश अध्यक्ष रविंदर रैना ने कहा, "विस्थापित कश्मीरी पंडितों का एक दल उनसे मिला था और बाद में उन्होंने यह मामला भूतपूर्व राज्यपाल एन एन वोहरा के समक्ष भी रखा था.''
रैना के मुताबिक सरकार ने उस वक़्त यह फ़ैसला विस्थापित कश्मीरी पंडितों की घरवापसी को लेकर तैयार की जा रही पॉलिसी के तहत लिया था. रैना ने कहा कि उन्होंने इस मामले की विस्तृत जानकारी नए राजपाल सत्यपाल मलिक को भी दी है और फिलहाल वो इस मामले को देख रहे हैं.
ऑल स्टेट कश्मीरी पंडित कांफ्रेंस (एएसकेपीसी) नामक संगठन ने इस पूरे मामले के लिए राज्य प्रशासन और केंद्र सरकार को ज़िम्मेदार ठहराया है.
एएसकेपीसी ने कहा कि वर्ष 2005 में जब कांग्रेस-पीडीपी की सरकार थी, तब उन्हें जम्मू में निकाय चुनावों में मतदान का पूरा अधिकार था, लेकिन भाजपा-पीडीपी सरकार के दौरान उनसे यह अधिकार छीन लिया गया.
संगठन के प्रधान टीके भट्ट ने कहा कि वर्ष 2005 में चुनाव के दौरान कश्मीरी विस्थापित महिला को कॉर्पोरेटर चुना भी गया था. उन्होंने आरोप लगाया कि इस साल अक्टूबर में नागरिक चुनाव में जम्मू में मतदान करने के लिए चुनाव आयोग ने जानबूझकर यह नीति बनाई है.
पोस्टल बैलट की विशेष व्यवस्था
वहीं मुख्य निर्वाचन अधिकारी शालीन काबरा ने बीबीसी को बताया, "निकाय चुनावों में कश्मीरी विस्थापितों की सहभागिता सुनिश्चित करने के लिए निर्वाचन आयोग ने उनके लिए पोस्टल बैलट की विशेष व्यस्वस्था की है" !
उन्होंने कहा कि 2005 के चुनाव में इसका प्रावधान नहीं था लेकिन इस चुनाव में पोस्टल बैलट की व्यवस्था की गई है.
शालीन काबरा ने बताया , "इस समय जहां भी कश्मीरी विस्थापित रह रहे हैं, वो वहां पर वोटर लिस्ट में अपना नाम देख कर पोस्टल बैलट हासिल करने के लिए अपनी अर्ज़ी दे सकते हैं, उनके क्षेत्र के चुनाव अधिकारी उन्हें पोस्टल बैलट जारी करेंगे और उनको काउंटिंग के समय गिनती में शामिल किया जायेगा."
वोटर लिस्ट से लोगों के नाम गायब किए गए हैं, इस आरोप के जवाब में शालीन काबरा ने कहा, "विस्थापित मतदाताओं के संदर्भ में ऐसा माना जाता है कि वो अपने अपने निर्वाचन क्षेत्र में रह रहे हैं और विधानसभा चुनावों के समय की मतदाता सूची के अनुसार ही उनके नाम निकाय चुनावों के लिए तैयार की गई मतदाता सूची में शामिल किए गए हैं."
''किसी भी सूरत में एक वोटर का नाम दो जगह मतदाता सूची में दर्ज़ नहीं किया जा सकता और यही वजह है जिनका नाम कश्मीर की विधानसभा क्षेत्रों में दर्ज़ हैं उनके नाम जम्मू में किसी भी कीमत में दर्ज़ नहीं किए जा सकते.''
चुनाव तारीखों का ऐलान
शनिवार को जम्मू कश्मीर के चुनाव आयोग ने शहरी निकाय चुनाव की तारीखों का ऐलान किया इसके साथ ही पूरे राज्य में आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू हो गई.
शहरी निकाय के चुनाव चार चरणों में 8, 10, 13 व 16 अक्टूबर को होंगे. सूबे में 79 नगर निकायों में कुल 1145 वार्ड हैं. इनमें महिलाओं के लिए (ओपेन कैटेगरी) 322 वार्ड, अनुसूचित जाति के लिए 90 (31 महिला) और अनुसूचित जनजाति के लिए 38 (13 महिला) वार्ड आरक्षित किए गए हैं.
लगभग 17 लाख मतदाता इन चुनावों में अपने मत का इस्तेमाल करेंगे. मतदान सुबह सात से दोपहर दो बजे तक होगा और मतों की गिनती 20 अक्तूबर को होगी.
मुख्य निर्वाचन अधिकारी शालीन काबरा ने बीबीसी को बताया कि राज्य में यह पहला मौक़ा होगा जब निकाय चुनावों में ईवीएम का इस्तेमाल किया जाएगा. उन्होंने बताया सरकार ने चुनावों को शातिपूर्ण ढंग से करवाने के लिए सुरक्षा व्यवस्था के पक्के इंतजाम किये हैं.
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