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ख़ून के रिश्तों से ज़्यादा 'गुरु' को क्यों मानते हैं किन्नर?

बहुत पहले की बात है. जब वो रिज़वान नाम का एक लड़का हुआ करती थीं. उस दिन को याद करते हुए वो बताती हैं कि उन की सेक्सुआलिटी यानी लैंगिक पहचान तय करने के लिए गाँव में एक पंचायत बुलाई गई थी. वो उत्तर प्रदेश के बिजनौर शहर के पास के एक गाँव की रहने वाली हैं. गाँव के पंचों का कहना था कि गाँव के लड़के उस की नक़ल करेंगे. 

By चिंकी सिन्हा
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बहुत पहले की बात है. जब वो रिज़वान नाम का एक लड़का हुआ करती थीं. उस दिन को याद करते हुए वो बताती हैं कि उन की सेक्सुआलिटी यानी लैंगिक पहचान तय करने के लिए गाँव में एक पंचायत बुलाई गई थी.

वो उत्तर प्रदेश के बिजनौर शहर के पास के एक गाँव की रहने वाली हैं. गाँव के पंचों का कहना था कि गाँव के लड़के उस की नक़ल करेंगे. और इस से गाँव की इज़्ज़त मिट्टी में मिल जाएगी. इस से पहले रिज़वान का दाख़िला एक मदरसे में करा दिया गया था. वहाँ पर रिज़वान के दादा मौलवी थे.

लेकिन, पंचायत ने तय किया कि रिज़वान को दूसरे गाँव भेजा जाएगा. जहाँ वो अपनी बहन के साथ रहेगा. उसे स्कूल की पढ़ाई छोड़नी पड़ेगी और घर के काम में मदद करनी होगी.

तब रिज़वान ने ख़ुद को बहुत अकेला महसूस किया था. उसे लगा कि सब ने उसे अकेला छोड़ दिया. ख़ुद के ज़हन में भी सवाल थे कि आख़िर वो है क्या? रिज़वान को अपनी पहचान की अभिव्यक्ति करने की सज़ा दी गई थी.

गाँव की पंचायत के उस फ़ैसले को आज कई बरस बीत गए हैं. रिज़वान अब रामकली बन चुकी हैं. और अब वो बसेरा सामाजिक संस्थान नाम की स्वयंसेवी संस्था के संयोजक की ज़िम्मेदारी निभा रही हैं. ये संस्था ट्रांसजेंडर के अधिकारों के लिए काम करती है.

जाड़ों की एक सर्द रात में रामकली नोएडा की एक इमारत की सीढ़ियां चढ़ कर एक छोटे से अंधेरे कमरे का दरवाज़ा खोलती हैं. जिस इमारत में वो रहती हैं, उस की दूसरी और तीसरी मंज़िल पर उन का पूरा समूह रहता है.

रामकली ने जिस कमरे का दरवाज़ा खोला, वहाँ उस के साथी हिजड़ों ने अपने सामान और बर्तन रखे हैं. एक और हिजड़ा आईना सामने ले कर खड़ा होता है और रामकली अपना रूप बदलने लगती हैं. पहले वो अपने चेहरे पर पाउडर और लाली लगाती हैं. फिर वो अपनी आंखों पर काजल लगाती हैं. सीढ़ियों से नीचे उतरते ही रामकली का चेला मन्नत चाय बना रहा है.

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'चेलों को बच्चे कहा जाता है'

ये सभी एक परिवार की तरह ही साथ रहते हैं. रामकली हिजड़ा गुरू हैं. रामकली की निगहबानी में, उन के साथ हिजड़ों का एक समूह रहता है. अपने एनजीओ के साथ ही रामकली एक पार्लर भी चलाती हैं.

इस में वो अपने हिजड़ा समुदाय के लोगों को रोज़ी-रोटी कमाने की ट्रेनिंग देती हैं. ताकि वो वेश्यावृत्ति या भीख माँगने से इतर कुछ और कर के अपना ख़र्च चला सकें.

पहले रामकली के साथी हिजड़ों के पास कमाई के केवल यही ज़रिए हुआ करते थे. क्योंकि उन के परिवारों ने उन्हें अकेला छोड़ दिया था. इस की वजह थी उन की ख़ास यौन पहचान. उन की सेक्सुआलिटी. जिस की वजह से समाज हिजड़ों को अपनाने से इनकार कर देता है.

2014 में हुई गिनती के मुताबिक़, भारत में क़रीब पांच लाख लोग ऐसे हैं, जो ख़ुद को ट्रांसजेंडर या हिजड़ा कहते हैं. इन में ऐसे लोग भी शामिल हैं, जो मध्यलिंगी हैं.

हिजड़ा समुदाय के बीच गुरु और चेलों के संबंध बेहद महत्वपूर्ण होते हैं. उन के सामाजिक संगठन का ये बुनियादी सिद्धांत है. कई मायनों में हिजड़ों की ये गुरू-चेला परंपरा, संयुक्त हिंदू परिवारों की परंपरा से ही मेल खाती है.

हिजड़ों की ये गुरू-चेला व्यवस्था उस सामाजिक चलन से अलग है, जहाँ चेलों और बेटियों को अपने बच्चे कहा जाता है.

रामकली कहती हैं कि 'हिजड़ा समुदाय के बीच, गुरू वो है जो सब को स्वीकार करे. उन्हें अपनी रोज़ी-रोटी कमाने का ज़रिया बताए और उन्हें रहने के लिए छत मुहैया कराए.' वो अपने चेलों की ज़िम्मेदारियां भी बताती हैं.

अगर किसी को हिजड़ा समुदाय का सदस्य बनना है, तो उसे गुरू को दक्षिणा देनी होगी. फिर वो अपने चेले का नया नाम रखते हैं. और अपने समुदाय में उस नए सदस्य को शामिल करते हैं. सब से परिचय कराते हैं.

रामकली कहती हैं कि 'हमारी माओं ने तो बस हमें जनम दे कर छोड़ दिया. असल में तो गुरू ने ही हमें पनाह दी. ऐसा समझ लो कि बिना गुरू के रहना ठीक वैसा है, जैसे आप बिना छत के मकान में रहते हों.'

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'हिजड़ा होने का एहसास पहले से था'

रामकली जब छोटी सी थीं और रिज़वान के नाम से जानी जाती थीं, तब वो अक्सर अपनी बहन का दुपट्टा ओढ़ कर नाचती थीं. उस वक़्त रिज़वान की उम्र केवल नौ बरस थी. वो लड़कियों के साथ ही खेला करता था और उन्हीं की नक़ल किया करता था. उसे आज भी याद है कि जब उस को लेकर गाँव की पंचायत बैठी, तो उन लोगों ने उसे किन्नर कह कर बुलाया था.

रामकली उस दिन को याद कर के कहती हैं, 'मुझे लगता है उन्हें मेरे हिजड़ा होने का एहसास मुझ से पहले से था.'

रिज़वान को उस की बहन के साथ रहने के लिए, दस किलोमीटर दूर स्थित दूसरे गाँव भेज दिया गया. वहाँ भी मुसीबतों ने उस का साथ नहीं छोड़ा. जब रिज़वान की बहन के एक के बाद एक दो बेटियां पैदा हुईं, तो बहन के परिवार ने उसे ही इस के लिए ज़िम्मेदार ठहराया.

रामकली उन दिनों को याद करते हुए बताती हैं, 'मैं बहुत अकेलापन महसूस करती थी. ऐसा लगता था कि सब ने मुझे छोड़ दिया है. मुझे लगता था कि दुनिया में मैं अपनी तरह की अकेली इंसान हूं, जिसे ऐसा महसूस होता है. मेरे ज़हन में हमेशा ये सवाल उठता रहता था कि मैं ऐसी क्यूं हूं.'

लेकिन, जब रिज़वान के अब्बा चल बसे, तो उन के भाइयों ने रोज़गार के लिए दिल्ली में रहने का फ़ैसला किया. उस दौरान रिज़वान की माँ ने उन से संपर्क किया और कहा कि वो उसे अपनाने को तैयार हैं. सत्रह बरस की उम्र में रिज़वान, दिल्ली के एक मुहल्ले में आ कर रहने लगा. तभी उस की मुलाक़ात एक हिजड़े से हुई. इस मुलाक़ात के बाद रिज़वान को एहसास हुआ कि वो जिस दुविधा में है, वो उस की अकेली चुनौती नहीं.

जब रिज़वान बेहद कम उम्र का था, तो उसे मर्द होने का एहसास नहीं होता था. उसे ये भी पता नहीं था कि ट्रांसजेंडर क्या बला है और हिजड़े का क्या मतलब होता है.

हालांकि रिज़वान के दिल में हमेशा ये सवाल उठता था कि आख़िर वो अपनी बहनों जैसा क्यों नहीं है? वो लड़कियों के साथ खेलना चाहता था. वो अपने मिज़ाज को लेकर हमेशा परेशान रहता. उस के दिल में सवालों के बवंडर उठते रहते थे. और उसे अपनी पैदाइश के बाद से ही ऐसा महसूस होने लगा था.

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हिजड़ा समुदाय के नियम

अपने इस नए दोस्त की मदद से रिज़वान ने अपने आप को उसी अंदाज़ में, यानी एक औरत की तरह रखना शुरू किया, जो उस की हमेशा से ख़्वाहिश भी रही थी. वो दोनों अक्सर साथ ही बाहर जाते थे. महिलाओं के कपड़े पहनते थे. फिर मेकअप कर के वेश्यावृत्ति के लिए जाते थे. उन्हें बस यही एक काम मालूम था. क्योंकि जब भी उन दोनों ने किसी नौकरी के लिए अर्ज़ी दी, तो वो ख़ारिज हो गई. फिर चाहे वो क्लर्क की नौकरी के लिए हो या फिर चपरासी की. उन्हें इसलिए नौकरी नहीं मिलती थी, क्योंकि वो अलग थे. रामकली और उन की दोस्त को बताया गया कि उन की मौजूदगी से दूसरे लोग असहज हो जाते थे.

जब रामकली 19 बरस की थीं, तो वो अपनी दोस्त के साथ भाग कर कानपुर चली गई. वहाँ उन्हें एक गुरु मिले, जिन्होंने उन दोनों को अपनी साये तले ले लिया. गुरू ने ही उन का नया नाम रखा-रामकली.

रामकली पांच बरस तक कानपुर में रहीं. जब वो कानपुर से दिल्ली लौटीं, तो माँ को बताया कि वो अपना सेक्स बदलने के लिए सर्जरी कराने की सोच रही है. लेकिन, रामकली की माँ ने उन से गुज़ारिश की कि वो हिजड़ों के साथ न जाएं. क्योंकि वो नहीं चाहती थीं कि उन का बेटा सड़कों पर भीख माँगता फिरे.

रामकली अभी अपनी माँ के साथ रहती हैं. फिर भी वो हिजड़ा संस्कृति का हिस्सा बन चुकी हैं. उसी की परंपरा के मुताबिक़ वो गुरू-चेले के रिवाज को सर्वोपरि मानती हैं. रामकली के मुताबिक़, नियमों का पालन हर हाल में होना चाहिए. वो कहती हैं कि, 'अगर हम हिजड़ा समुदाय का हिस्सा हैं, तो हम न तो शादी कर सकते हैं. और ना ही हमारे ब्वॉयफ्रैंड हो सकते हैं. हिजड़ा समुदाय के यही नियम हैं. अगर आप अपना परिवार बसाना चाहते हैं, तो ऐसा कर सकते हैं. लेकिन, आख़िर में तो आप को ऐसे लोगों के बीच ही रहना होता है, जो आप के जैसे हों. अपनी ख़ास पहचान के साथ इस भरी दुनिया में अकेला और अलग-थलग रहना बेहद मुश्किल होता है. जब सब लोग हमें छोड़ देते हैं, तो गुरू ही होते हैं, जो हमारा हाथ पकड़ कर हमारी मदद करते हैं.'

हिजड़ों के बीच ये गुरू-चेले की परंपरा एक तरह से उन की हिफ़ाज़त का सामाजिक सुरक्षा घेरा है.

'ख़ून के रिश्तों से कहीं ज़्यादा'

रामकली कहती हैं कि सरकार को भी हिजड़ों की इस परंपरा को मान लेना चाहिए क्योंकि इसी की मदद से रामकली को अपनी ख़ास पहचान के साथ जीने की ताक़त मिली. ट्रांसजेंडर्स को लेकर जो विधेयक पिछले साल लोकसभा में पास हुआ था, वो हिजड़ा समुदाय की इस पारंपरिक बनावट को पहचान पाने में पूरी तरह से नाकाम रहा था.

इस के बजाय इस विधेयक में ऐसे लोगों के लिए पुनर्वास केंद्र बनाने का प्रस्ताव था, जिन्हें हिजड़ा होने की वजह से उन के परिवारों ने अकेला छोड़ दिया.

रामकली कहती हैं कि, 'हमारा परिवार ख़ून के रिश्तों से कहीं ज़्यादा बड़ी चीज़ है.'

लेकिन, ट्रांसजेंडर बिल के मुताबिक़, जिन लोगों के बीच ख़ून के रिश्ते नहीं हैं, ऐसे साथ रहने वाले लोगों को क़ानून मान्यता नहीं देता.

अप्रैल 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने हिजड़ा समुदाय को तीसरे लिंग के तौर पर क़ानूनी मान्यता दी थी.

अपने फ़ैसले के ज़रिए एक तरह से सुप्रीम कोर्ट ने हिजड़ा तहज़ीब को मान्यता दी थी. जो समाज के निचले तबक़े से ताल्लुक़ रखते हैं. और उन की पहचान स्त्री और पुरुष की सेक्सुआलिटी से अलग हट कर है. और ये हिजड़ा समुदाय आपस में ऐसे मिल कर रहते हैं. ख़ुदमुख़्तार हैं और एक-दूसरे की मदद से इस समुदाय को चलाते हैं.

ये परंपरा एक अनुसाशित व्यवस्था के तहत चलती है, जहाँ हिजड़ा घराने होते हैं. उन का रहन-सहन एक संस्थागत तरीक़े से होता है. जहाँ नए सदस्य की आमद के बाद उसे इस समुदाय में रहने की ट्रेनिंग दी जाती है.

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ट्रांसजेंडर बिल का विरोध

भारत के सुप्रीम कोर्ट ने अपने उस फ़ैसले में कहा था कि हर इंसान को ये अधिकार है कि वो अपनी पसंद के मुताबिक़ अपनी यौन पहचान को चुन सके. ऐसे किसी भी समूह की मान्यता कोई सामाजिक या मेडिकल मसला नहीं. बल्कि ये मानवाधिकार का मुद्दा है. सर्वोच्च अदालत ने सरकार को निर्देश दिया था कि वो इस थर्ड जेंडर के समुदाय के लिए भी पढ़ाई और नौकरी के अवसर मुहैया कराए.

हिजड़ा समुदाय का ये गुरू-चेले वाला रिवाज उन लोगों को पनाह देता है, जिन्हें समाज अच्छी नज़र से नहीं देखता. जो औरत और मर्द के दो हिस्सों में बंटे सामाजिक खांचे में फ़िट नहीं बैठते.

इसीलिए हिजड़ा समुदाय ट्रांसजेंडर बिल का विरोध कर रहा है. उन की तमाम माँगों में से एक ये भी है कि वो इस बिल में हिजड़ा संस्कृति के बारे में विस्तार से बताया जाए.

रामकली कहती हैं कि हिजड़ों की आमदनी की पारंपरिक व्यवस्था यानी 'बस्ती बधाई' को भी क़ानूनी संरक्षण मिलना चाहिए.

हालांकि, नए विधेयक से भीख माँगने का ज़िक्र हटा दिया गया है. (2016 के विधेयक में भीख माँगने को अपराध क़रार दिया गया था. जब कि पूरे दक्षिणी एशिया में हिजड़ों के बीच भीख माँग कर गुज़र-बसर करने की ऐतिहासिक परंपरा रही है. बहुतों के लिए यही रोज़ी कमाने का एकमात्र ज़रिया है) हिजड़ा समुदाय का मानना था कि भीख माँगने को अपराध बताने से, ये विधेयक हिजड़ों की ख़ास सांस्कृतिक पहचान को निशाना बना रहा था.

इस विधेयक के रिहाइश के अधिकार वाले हिस्से में ज़िक्र है कि 'हर ट्रांसजेंडर व्यक्ति को अपने घर में रहने और ख़ुद को परिवार का हिस्सा मानने का दावा करने का हक़ होगा.

अगर किसी हिजड़े का परिवार उस की देख-रेख कर पाने में असमर्थ है, तो उस व्यक्ति को पुनर्वास केंद्र में रखा जा सकता है. ऐसा किसी सक्षम अदालत के आदेश पर किया जा सकता है.'

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हिजड़ा संस्कृति में काफ़ी बदलाव

रामकली और उस के जैसे अन्य लोगों के लिए हिजड़ा संस्कृति बेहद महत्वपूर्ण है. वो उन्हें ख़ुद ऐतमादी का एहसास कराती है. अपनी तरह से जीने का हौसला देती है. ये किसी भी इंसान की जज़्बाती और ज़हनी सेहत के लिए बेहद ज़रूरी है.

हालांकि रामकली ये मानती हैं कि हिजड़ा परिवारों की संरचना में भी कमियां हैं. उन के अपने समुदाय में भी हिजड़ों का शोषण होने की मिसालें मिलती हैं.

लेकिन, अपना परिवार न होने की सूरत में हिजड़ों को अपने समुदाय के रूप में रहने और जीवन गुज़ारने का एक ठिकाना तो मिलता है.

पिछले कुछ वर्षों में जागरूकता बढ़ने और नीतियों में बदलाव की वजह से हिजड़ा संस्कृति में भी काफ़ी बदलाव देखने को मिले हैं.

आज हिजड़ों के पारंपरिक परिवारों और गुरू-चेला व्यवस्था के बीच फ़ासले मिट रहे हैं. रामकली या मन्नत की ही मिसाल लीजिए. दोनों अपनी सगी माँ के साथ रहते हैं. फिर भी वो अपने गुरुओं को अगर सगी माँ से ज़्यादा नहीं, तो उन की बराबरी का दर्जा देते हैं. लेकिन, आम तौर पर किसी ट्रांसजेंडर को उन के परिवार आज भी नहीं अपनाते.

मसलन, मुंबई के कमाठीपुरा इलाक़े में हिजड़ों के एक वेश्यालय में रहने वाली एक बुज़ुर्ग हिजड़ा कहती हैं कि यहाँ रहने वालों के परिवारों ने उन से सभी ताल्लुक़ ख़त्म कर लिए.

आज भी हिजड़ों के परिवारों के अपनी ट्रांसजेंडर संतानों को खुल कर स्वीकार करने की इक्का-दुक्का मिसालें ही मिलती हैं.

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हैदराबाद से ताल्लुक़ रखने वाली एक हिजड़ा, नेहा (बदला हुआ नाम) कहती हैं कि, 'मैं ने पिछले कई बरस से अपने परिवार के किसी भी सदस्य से नहीं मिली हूं. मेरी ज़िंदगी दोज़ख की तरह थी. फिर मेरी मुलाक़ात मेरे गुरू से हुई. और उन की मदद की बदौलत ही मैं आज ज़िंदा हूं.'

हिजड़ों की तहज़ीब में चेले का ये फ़र्ज होता है कि वो अपने गुरू का ध्यान रखे. ट्रांसजेंडर्स का सामाजिक सुरक्षा का पेचीदा और कई परतों वाला ताना-बाना इसी तरह काम करता है. तभी वो ख़ून के रिश्तों और सगे लोगों की पारिवारिक व्यवस्था की जगह ले पाता है.

हिजड़े अपने परिवार के साए से दूर होने के लिए मजबूर किए जाते हैं. इस की वजह या तो उन के साथ होने वाली हिंसा होती है. या फिर वो अपने असल व्यक्तित्व की तलाश में घर छोड़ कर निकल पड़ते हैं.

हिजड़ों के बीच गुरू-चेले के इस रिश्ते की वजह से तमाम बनावटी संबंध निभाने के अवसर भी मिलते हैं. जैसे कि गुरू की बहनें, मौसी हो जाती हैं. या फिर गुरू की गुरू दादी बन जाती हैं. गुरू और चेला एक ही 'घराने' से ताल्लुक़ रखते हैं. जो किसी क़बीलाई व्यवस्था सरीखी होती है.

ट्रांसजेंडर विधेयक के बारे में रामकली कहती हैं कि, 'ये बिल मुझे खाना-दाना और रहने का ठिकाना नहीं देगा. इस की वजह से समाज तो मुझे नहीं अपनाने जा रहा. लेकिन, मेरी गुरू ज़रूर अपना लेंगी. सरकार क्या कहती है. क्या करती है. इस से हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. हमारे परिवार महफ़ूज़ हैं. और ये रिश्ता ऐसा ही मज़बूत बना रहेगा.'

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'बनावटी पहचान मेरे ऊपर बोझ'

एक और दिन की बात है. रामकली हरी साड़ी, चूड़ियां और बालियां पहन कर अपने समुदाय के अन्य सदस्यों के पास जाती हैं. बसेरा एक महफ़ूज़ जगह है. जहाँ पर ये हिजड़े अपने मन-मुताबिक़ लिबास पहनते हैं. नाचते-गाते हैं और अपनी असल पहचान का जश्न मनाते हैं.

उन के साथ 22 बरस का एक नौजवान भी रहता है, जो फ़ैशन डिज़ाइनर बनने की ट्रेनिंग ले रहा है.

वो रोज़ाना इस समुदाय के केंद्र यानी बसेरा में आता है, ताकि इन लोगों के साथ रह सके. इन की मदद कर सके.

वो नौजवान कहता है कि वो अभी तक इस समुदाय का हिस्सा नहीं बन सका है, तो इस की वजह उस का परिवार है, जो बहुत रूढ़िवादी है. उन्हें पता है कि उस के अंदर औरतों वाले गुण भी हैं. वो स्त्रैण है. लेकिन, परिवार के लोगों ने उस नौजवान की लड़कियों जैसे दिखने और कपड़े पहनने की ख़्वाहिश को उस की सनक कह कर ख़ारिज कर दिया है. एक-आध साल में वो इस नौजवान की शादी उस की रिश्ते की एक बहन से कर देंगे. इस नौजवान का कहना है कि पहले वो एक युवक के साथ इश्क़ में मुब्तिला था. लेकिन, अब दोनों अलग हो चुके हैं.

वो कहता है कि, 'हो सकता है कि शादी करने से पहले मैं उस लड़की को अपने बारे में बता दूं. ये ज़िंदगी और ये बनावटी पहचान मेरे ऊपर बोझ है. मैं जैसा हूं, वैसा रहने के लिए आज़ाद नहीं हूँ.'

जब रामकली अपनी आंखों पर मस्कारा लगाती हैं, तो वो नौजवान मुस्कुराता है और रामकली को आँख मारकर इशारे करता है.

वो यहाँ इन हिजड़ों के बीच रह कर बेहद ख़ुश है. क्योंकि ये समझते हैं कि आख़िर वो है क्या. ये लोग उस नौजवान का दूसरा परिवार हैं. जब वो यहाँ से निकल कर उस बेरहम दुनिया में दाखिल होता है, तो उसे एक मर्द का बनावटी भेष धर कर जीना पड़ता है.

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English summary
Why do Kinnars consider 'Guru' more than blood relationships
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