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मोदी की केमिस्ट्री की मिस्ट्री क्यों नहीं समझ पाए गणितज्ञ लिबरल बुद्धिजीवी?

मोदी और उनके साथी जिसे 'खान मार्केट गैंग' या 'लुटिएंस इंटेलेक्चुअल्स' कहते हैं, वह तबका ज़रूर सोच रहा होगा कि उसमें 'रॉ विज़्डम' की कितनी कमी है. जीते हुए मोदी ने दोबारा प्रधानमंत्री बनने से पहले, काशी विश्वनाथ मंदिर में पूजा-अर्चना करने के बाद इस राज़ से पर्दा उठाया है कि लिबरल राजनीतिक विश्लेषक क्यों नाकाम हुए. विजेता मोदी ने कहा, "चुनाव परिणाम गणित होता है.

By राजेश प्रियदर्शी
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नरेंद्र मोदी
Getty Images
नरेंद्र मोदी

ख़ुद को तार्किक, पढ़ा-लिखा और समझदार मानने वाले पत्रकारों-विश्लेषकों-बुद्धिजीवियों को नरेंद्र मोदी की जीत ने सकते में डाल दिया है. मोदी को मिली इस दूसरी जीत को वे चुनाव नतीजों के आने से पहले बिल्कुल नहीं भांप पाए.

राजनीति अनिश्चित को निश्चित बनाने का खेल है, मोदी-शाह की जोड़ी ने यह कारनामा कर दिखाया है. लिबरल, मध्यमार्गी, वामपंथी या सेक्युलर धारा के पत्रकार सही भविष्यवाणी करने में अपनी नाकामी को लेकर सदमे में हैं मानो ऐसा पहली बार हुआ हो. लेकिन यह सच नहीं है, 2004 के 'इंडिया शाइनिंग' वाले चुनाव में भी उन्हें नतीजे की भनक नहीं लगी थी, और भी कई मिसालें हैं.

मोदी और उनके साथी जिसे 'खान मार्केट गैंग' या 'लुटिएंस इंटेलेक्चुअल्स' कहते हैं, वह तबका ज़रूर सोच रहा होगा कि उसमें 'रॉ विज़्डम' की कितनी कमी है. जीते हुए मोदी ने दोबारा प्रधानमंत्री बनने से पहले, काशी विश्वनाथ मंदिर में पूजा-अर्चना करने के बाद इस राज़ से पर्दा उठाया है कि लिबरल राजनीतिक विश्लेषक क्यों नाकाम हुए.

विजेता मोदी ने कहा, "चुनाव परिणाम गणित होता है. पिछले चुनाव अंकगणित के दायरे में चले होंगे लेकिन 2014 का चुनाव हो, 2017 (यूपी विधानसभा) का, या फिर 2019 का. इस देश के राजनीतिक विश्लेषकों को मानना होगा कि अंकगणित के ऊपर केमिस्ट्री होती है. समाज शक्ति की केमिस्ट्री, संकल्प शक्ति की केमिस्ट्री कई बार अंकगणित को परास्त कर देती है."

हार्वर्ड बनाम हार्डवर्क वाली अपनी सोच को आगे बढ़ाते हुए नरेंद्र मोदी ने हार्वर्ड वालों के जले पर नमक छिड़का, "तीन-तीन चुनावों के बाद पॉलिटिकल पंडित नहीं समझे, तो इसका यही मतलब है कि उनकी सोच बीसवीं सदी वाली है जो अब किसी काम की नहीं है. जिन लोगों की सीवी 50 पेज की होगी, इतना पढ़े-लिखे हैं, इतनी डिग्रियां हैं, इतने पेपर लिखे हैं, उनसे ज़्यादा समझदार तो ज़मीन से जुड़ा हुआ गरीब आदमी है."

जो जीता वही सिकंदर, मारे सो मीर, विजेता ही इतिहास लिखता है... ऐसे मुहावरे हम सब जानते हैं, मोदी एक अजेय नेता की तरह बात कर रहे हैं, तार्किक विश्लेषण करने की कोशिश करने वालों को वे भावनाओं की राजनीति से फ़िलहाल पीट चुके हैं.

ये अलग बात है कि उन्होंने अपनी थ्योरी को सही साबित करने के लिए यूपी विधानसभा चुनाव का ज़िक्र तो किया लेकिन दिल्ली और बिहार की हार को सफ़ाई से गोल कर गए.

मोदी लहर
Getty Images
मोदी लहर

केमिस्ट्री बनाम गणित के पेंच

पिछले चुनावों के आंकड़े, राज्यवार विश्लेषण, नए बने गठबंधन और कृषि संकट जैसे ठोस मुद्दों का असर, इन सबका तार्किक और वैज्ञानिक विश्लेषण गणित था. यहां तक कि बीजेपी के समर्थक समझे जाने वाले पत्रकार भी तार्किक विश्लेषण के बाद यही कह रहे थे कि सीटें कुछ घटेंगी, बढ़ेंगी नहीं. यह बात ग़लत साबित हुई, गणित पिट गया.

अब बात केमिस्ट्री की, जिसे मापा नहीं जा सकता, जिसे तर्क से नहीं समझा जा सकता, जिसका वैज्ञानिक विश्लेषण कठिन है, ये चीज़ें हैं देशभक्ति की भावना, भगवत भक्ति का पुण्य प्रताप, घर में घुसकर मारा जैसे मुहावरों का असर, बदला लेने और दुश्मन को डरा देने के बाद ताल ठोकने का सुख, इनके असर को कोई विश्लेषक कैसे मापेगा?

भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता और सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी ने पुलवामा और बालाकोट की घटना से काफ़ी पहले साफ़ शब्दों में कहा था, "चुनाव काम से नहीं, भावनात्मक मुद्दों से जीते जाते हैं."

विकास नरेंद्र मोदी और अमित शाह के चुनावी भाषणों में फुटनोट की ही तरह रहा, ऐसा नहीं है कि उनके पास गिनाने के लिए उज्ज्वला, प्रधानमंत्री आवास योजना, जन-धन योजना, किसान सम्मान निधि जैसी चीज़ें नहीं थीं, लेकिन उनका ज़्यादा ज़ोर पाकिस्तान/मुसलमान, देश की सुरक्षा, राष्ट्र का गौरव, भारत माता की जय और कांग्रेस की ख़ानदानी राजनीति से हुए नुक़सान पर केंद्रित रहा.

नरेंद्र मोदी
EPA
नरेंद्र मोदी

वोट तो मोदी जी को ही दूंगा... वाली भावना

जनभावना को समझने और उसका राजनीतिक दोहन करने के मामले में नरेंद्र इतने योग्य निकले कि बुद्धिवादी, तर्कवादी और वैज्ञानिक सोच रखने का दम भरने वाले लकीर पीटते रह गए, फ़ैक्ट चेक करने वाले पत्रकारों की ट्रेनिंग 'इमोशन चेक' करने की नहीं रही है. जनता के मूड को भांपने का हुनर शायद उन्हें नए सिरे से सीखना होगा.

लोग खुलेआम कह रहे थे कि रोज़गार नहीं है लेकिन वोट तो मोदी जी को दूंगा, आवारा गाय-बैल खेत चर रहे हैं लेकिन वोट मोदी जी को दूंगा, नोटबंदी से बहुत नुकसान हुआ लेकिन वोट मोदी जी को दूंगा... इन आवाज़ों को ज़्यादातर पत्रकारों ने सुना लेकिन वे इससे यह मतलब नहीं निकाल पाए कि बीजेपी को 300 से ज़्यादा सीटें मिलेंगी.

वे क्यों नहीं समझ पाए? इसलिए कि ज़्यादातर पत्रकार ऐसे लोगों को परंपरागत 'मोदी भक्त' मानते रहे जो उनकी नज़र में पहले से कमिटेड वोटर थे, इन्हें नया वोटर मानने से लिबरल मीडिया ने इनकार कर दिया, एंटी इनकंबेसी का तर्क दिया गया, महागठबंधन को दलित+पिछड़े+मुसलमान= निश्चित जीत मानने की गलती गणित पर डटे सभी पत्रकारों से हुई. कहा गया कि मोदी यूपी के नुकसान की भरपाई बंगाल और ओडिशा से नहीं कर पाएंगे.

इसी तरह छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, हरियाणा, झारखंड जैसे सभी राज्यों में बीजेपी की सीटों में कमी आने को एक ठोस तर्क माना गया, खास तौर पर उन राज्यों में जहां कुछ ही महीने पहले बीजेपी विधानसभा चुनाव हारी थी, लेकिन इन सभी राज्यों में मोदी के नाम पर लड़ रहे उम्मीदवारों ने 2014 से ज़्यादा सीटें बटोर लीं.

मोदी लहर
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मोदी लहर

लिबरल पत्रकार और विश्लेषक सरकारी योजनाओं का फ़ैक्ट चेक कर रहे थे, बता रहे थे कि गैस का सिलिंडर तो मिला है लेकिन अगले सिलिंडर के लिए पैसे नहीं हैं, इसी तरह शौचालय तो बने हैं लेकिन उनमें पानी नहीं है या फिर जन-धन खाते खुले तो हैं लेकिन उनमें पैसा नहीं है, मुद्रा लोन इतना कम है कि उससे कोई क्या कारोबार शुरू करेगा... वगैरह वगैरह.

ये सब बातें तार्किक हैं और वास्तविक हैं लेकिन झोंपड़ी में रखे खाली ही सही, लाल सिलिंडर को देखकर ग़रीब को हर बार मोदी याद आता है, यह देखने में राजनीतिक पंडित चूक गए.

इसके अलावा जिन लोगों को फ़ायदा मिला या नहीं मिला, उन लोगों में अगली बार मोदी सरकार के आने पर कुछ और फ़ायदे मिलने की जो उम्मीद जगी उसे मापने का कोई तरीका पत्रकारों के पास शायद नहीं था. सरकार, मंत्रियों और सांसदों के ख़िलाफ़ गुस्सा है लेकिन इसके बावजूद 'मोदी तुझसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं' जैसे नारों का मर्म ज़्यादातर विश्लेषक पूरी तरह समझ नहीं पाए.

विपक्षी दलों और बीजेपी के 'परिश्रम' की तुलना नहीं की जा सकती, टीवी पर रात दिन दिखने, तरह-तरह के इंटरव्यू से लेकर नमो चैनल तक, प्रचार बंद हो जाने के बाद गुफा में ध्यान लगाने के दृश्यों, मीडिया और सोशल मीडिया पर मोदी के छाये रहने के असर को तथाकथित तार्किक आकलन में फ़ैक्टर नहीं माना गया. यही कहा गया कि लोग समझदार हैं टीवी देखकर वोट नहीं देते.

सीबीआई, सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग जैसे संस्थानों की बुरी हालत और रफ़ाल जैसे मुद्दों को समझने-समझाने का दावा करने वाले पत्रकार मानने लगे कि जनता भी उनकी ही तरह सब कुछ समझ-बूझ रही है जिसका नुकसान मोदी को उठाना पड़ेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

ऐसा नहीं है कि हर बार केमेस्ट्री यानी भावनात्मक मुद्दों की ही जीत होगी और ठोस तार्किक बातों की अहमियत ख़त्म हो गई है, लेकिन इतना ज़रूर है कि भावनाओं की राजनीति के असर को परखने के लिए हर बार तर्क का चश्मा काम नहीं आएगा.

BBC Hindi
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English summary
Why did liberal intellectuals like mathematician not understand the mystery of Modi's chemistry?
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