शादी के लिए लड़का और लड़की की उम्र अलग-अलग क्यों: नज़रिया
लड़का और लड़की के लिए शादी की उम्र अलग-अलग क्यों है? लड़की की कम और लड़के की ज़्यादा... भारत ही नहीं दुनिया के कई देशों में लड़के और लड़की की शादी की क़ानूनी उम्र में फ़र्क है.
लड़की की उम्र कहीं भी लड़के से ज़्यादा नहीं रखी गयी है. दिलचस्प है कि हमारे देश में तो बालिग होने की कानूनी उम्र दोनों के लिए एक है मगर शादी के लिए न्यूनतम क़ानूनी उम्र अलग-अलग.
लड़का और लड़की के लिए शादी की उम्र अलग-अलग क्यों है? लड़की की कम और लड़के की ज़्यादा... भारत ही नहीं दुनिया के कई देशों में लड़के और लड़की की शादी की क़ानूनी उम्र में फ़र्क है.
लड़की की उम्र कहीं भी लड़के से ज़्यादा नहीं रखी गयी है. दिलचस्प है कि हमारे देश में तो बालिग होने की कानूनी उम्र दोनों के लिए एक है मगर शादी के लिए न्यूनतम क़ानूनी उम्र अलग-अलग.
उम्र के अंतर को चुनौती
पिछले दिनों दिल्ली हाईकोर्ट में वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय ने एक याचिका दायर की. याचिका में मांग की गयी कि लड़की और लड़कों के लिए शादी की उम्र का क़ानूनी अंतर खत्म किया जाए.
याचिका कहती है कि उम्र के इस अंतर का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है. यह पितृसत्तात्मक विचारों की देन है. इस याचिका ने एक बार फिर भारतीय समाज के सामाने शादी की उम्र का मुद्दा सामने खड़ा कर दिया है. जी, यह कोई पहला मौका नहीं है.
लड़कियों की ज़िंदगी और शादी की क़ानूनी उम्र
भारत में शादी की उम्र काफ़ी अरसे से चर्चा में रही है. इसके पीछे सदियों से चली आ रही बाल विवाह की प्रथा को रोकने का ख्याल रहा है. ध्यान देने वाली बात है, इसके केन्द्र में हमेशा लड़की की ज़िंदगी ही रही है. उसी की ज़िंदगी बेहतर बनाने के लिहाज़ से ही उम्र का मसला सवा सौ साल से बार-बार उठता रहा है.
साल 1884 में औपनिवेशिक भारत में डॉक्टर रुख्माबाई के केस और 1889 में फुलमोनी दासी की मौत के बाद यह मामला पहली बार ज़ोरदार तरीके से बहस के केन्द्र में आया. रुख्माबाई ने बचपन की शादी को मानने से इनकार कर दिया था जबकि 11 साल की फुलमोनी की मौत 35 साल के पति के जबरिया यौन सम्बंध बनाने यानी बलात्कार की वजह से हो गयी थी.
फुलमोनी के पति को हत्या की सजा तो मिली लेकिन वह बलात्कार के आरोप से मुक्त हो गया. तब बाल विवाह की समस्या से निपटने के लिए ब्रितानी सरकार ने 1891 में सहमति की उम्र का क़ानून बनाया. इसके मुताबिक यौन सम्बंध के लिए सहमति की उम्र 12 साल तय की गयी. इसके लिए बेहरामजी मालाबारी जैसे कई समाज सुधारकों ने अभियान चलाया.
द नेशनल कमिशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ चाइल्ड राइट्स (एनसीपीसीआर) की रिपोर्ट चाइल्ड मैरेज इन इंडिया के मुताबिक, इसी तरह मैसूर राज्य ने 1894 में एक कानून बनाया. इसके बाद आठ साल से कम उम्र की लड़की की शादी पर रोक लगी.
इंदौर रियासत ने 1918 में लड़कों के लिए शादी की न्यूनतम उम्र 14 और लड़कियों के लिए 12 साल तय की. मगर एक पुख्ता क़ानून की मुहिम चलती रही. 1927 में राय साहेब हरबिलास सारदा ने बाल विवाह रोकने का विधेयक पेश किया और इसमें लड़कों के लिए न्यूनतम उम्र 18 और लड़कियों के लिए 14 साल करने का प्रस्ताव था. 1929 में यह क़ानून बना. इसे ही सारदा एक्ट के नाम से भी जाना जाता है.
इस कानून में 1978 में संशोधन हुआ. इसके बाद लड़कों के लिए शादी की न्यूनतम क़ानूनी उम्र 21 साल और लड़कियों के लिए 18 साल हो गयी. मगर कम उम्र की शादियां रुकी नहीं. तब साल 2006 में इसकी जगह बाल विवाह रोकने का नया क़ानून आया. इस कानून ने बाल विवाह को संज्ञेय जुर्म बनाया.
- यह भी पढ़ें | शादी की उम्र तय करना 'ईशनिंदा के बराबर'
तो क्या आज भी बाल विवाह हो रहे हैं
1978 का संशोधन इसीलिए हुआ था कि बाल विवाह रुक नहीं रहे हैं. खासतौर पर 18 साल से कम उम्र की लड़कियों की शादी नहीं रुक रही है. मुमकिन है, आंकड़ों के बारे में कुछ मतभेद हो लेकिन क़ानूनी उम्र से कम में शादियां हो रही हैं.
संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ़) के मुताबिक, भारत में बाल विवाह के बंधन में बंधी दुनिया भर की एक तिहाई लड़कियां रहती हैं. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 के आंकड़े बताते हैं कि पूरे देश में 20-24 साल की लगभग 26.8 फ़ीसदी लड़कियों की शादी 18 साल से पहले हो चुकी थी.
इसके बरअक्स 25-29 साल के लगभग 20.4 फ़ीसदी लड़कों की शादी 21 साल से पहले हुई थी. इस रिपोर्ट के मुताबिक पश्चिम बंगाल में 40.7 फ़ीसदी, बिहार में 39.1 फ़ीसदी, झारखंड में 38 फ़ीसदी राजस्थान में 35.4 फ़ीसदी, मध्यप्रदेश में 30 फ़ीसदी, महाराष्ट्र में 25.1 फ़ीसदी लड़कियों की शादी 18 साल से कम उम्र में हो गई थी.
संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफ़पीए) बाल विवाह को मानवाधिकार का उल्लंघन कहता है. सभी धर्मों ने लड़कियों की शादी के लिए सही समय उसके शरीर में होने वाले जैविक बदलाव को माना है. यानी माहवारी से ठीक पहले या माहवारी के तुरंत बाद या माहवारी आते ही... लड़कियों की शादी कर देनी चाहिए, ऐसा धार्मिक ख्याल रहा है.
इसीलिए चाहे आज़ादी के पहले के क़ानून हों या बाद के, जब भी लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ाने का मुद्दा समाज के सामने आया, बड़े पैमाने पर इसे विरोध का भी सामना करना पड़ा है.
आज भी कम उम्र की शादी के पीछे यह बड़ी वजह है. साथ ही, लड़कियों को 'बोझ' मानने, लड़कियों की सुरक्षा, लड़कियों के 'बिगड़ जाने' की आशंका, दहेज, ग़रीबी, लड़कियों की कम पढ़ाई- अनेक ऐसी बातें हैं जो कम उम्र की शादी की वजह बनती हैं.
- यह भी पढ़ें | बांग्लादेश- शादी की उम्र घटाने की तैयारी
मगर उम्र में अंतर की वजह क्या है...
इसीलिए बहुत जद्दोजेहद के बाद जो भी क़ानून बने उनमें विवाह के लिए लड़के और लड़की के उम्र में अंतर रखा गया. लड़की की उम्र लड़के से कम रखी गयी. चाहे बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम हो या विशेष विवाह अधिनियम, हिन्दू विवाह क़ानून हो या पारसी विवाह और तलाक अधिनियम या भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम - सबमें यही माना गया है कि शादी के लिए लड़के को 21 साल और लड़की को 18 साल से कम नहीं होना चाहिए.
बिहार के एक गांव में जब उम्र के इस अंतर पर बात की गयी तो लोगों का कहना है कि लड़की अगर लड़के से उम्र में बड़ी हुई तो वह नियंत्रण में नहीं रहेगी. अगर लड़के से 'मजबूत' हुई तो उसके पास नहीं रहेगी. किसी और से दिल लगाएगी. तो इसीलिए लड़की की कम उम्र में शादी के पीछे भी धार्मिक तर्क के अलावा भी तर्क हैं.
अगर 'बड़ी' होने तक लड़की की शादी नहीं की गयी तो लड़की के भागने और बिगड़ने का डर रहता है. गांव घर में मां-बाप को ताना दिया जाता है कि "अब तक शादी क्यों नहीं की". "इतना दिन कैसे रखे हुए है या अब तक गाछ यानी पेड़ क्यों पाले हुए है". "यह फल क्यों जोगा कर रखा है". "क्या इस फल से लाभ ले रहा है". "पैसा ख़र्च नहीं करना चाहते हैं"....
यानी हमारा बड़ा समाज लड़कियों को उसके शरीर से नापता-जोखता है. उसके लिए उम्र के साल बेमानी हैं. बदन से ही वह उसे शादी और मां बनने लायक तय कर देता है.
सिर्फ़ बराबर की उम्र से काम कैसे चलेगा
बराबर की उम्र, हर चीज में बराबरी की मांग करेगी. मर्दाना सोच वाला हमारा समाज बराबरी की बड़ी बड़ी बातें भले ही खूब जोरशोर से करता हो, स्त्रियों को बराबरी देने में यक़ीन नहीं करता.
इसीलिए वह मर्दों से कम उम्र की पत्नियां पसंद करता है. ताकि वह कच्चे और कमजोर को अपनी रुचि और मन के मुताबिक ढाल सके. दब्बू, डरी हुई, भयभीत, दबी हुई शख़्सियत बना कर लड़की को आसानी से अपने काबू में रख सके. जब चाहे जैसे चाहे उसके साथ वैसा सुलूक कर सके. वह इच्छा जताने वाली नहीं, इच्छा पूरा करने वाली और इच्छाएं दबा कर रखने वाली इंसान बन सके.
सरकार चुनने की उम्र एक तो पार्टनर चुनने की अलग-अलग क्यों
विधि आयोग ने समान नागरिक संहिता पर अपनी रिपोर्ट में शादी की उम्र पर विचार करते हुए कहा था, अगर बालिग़ होने की सभी यानी लड़का-लड़की के लिए एक ही उम्र मानी गयी है और वही उम्र नागरिकों को अपनी सरकारें चुनने का हक़ देती है तो निश्चित तौर पर उन्हें अपने जोड़ीदार/पति या पत्नी चुनने के लायक़ भी माना जाना चाहिए.
अगर हम सच्चे मायनो में बराबरी चाहते हैं तो आपसी रज़ामंदी से शादी के लिए बालिगों के अलग-अलग उम्र की मान्यता ख़त्म कर देनी चाहिए. इंडियन मैजोरिटी एक्ट, 1875 ने बालिग होने की उम्र 18 साल मानी है.
बालिग़ होने की इस उम्र को ही मर्दों और स्त्रियों के लिए एक समान तरीके से शादी की क़ानूनी उम्र मान लेनी चाहिए. पति और पत्नी की उम्र के बीच अंतर का क़ानूनी तौर पर कोई आधार नहीं है. शादी में शामिल दम्पति हर मामले में बराबर हैं और उनकी साझेदारी भी बराबर लोगों के बीच होनी चाहिए.
उम्र का अंतर गैरबराबरी है. इस गैरबराबरी को कम से कम क़ानूनी तौर पर ख़त्म होना ही चाहिए. लड़कियों को क़ाबू में रखने/ करने के लिए यह छलावा अब बंद होना चाहिए कि लड़कियां बहुत जल्दी परिपक्व हो जाती हैं, इसलिए उनके लिए शादी की उम्र कम रखी गयी है.
अगर वाक़ई में हमारा समाज उन्हें परिपक्व मानता है तो वह सम्मान और समानता में दिखनी चाहिए. यह उम्र के बराबरी से ज़्यादा नज़रिए का मसला है. नज़रिया नहीं बदलेगा तो उम्र बराबर होकर भी बराबरी स्त्री की ज़िंदगी की हक़ीक़त से कोसों दूर होगी.
उम्मीद है, शादी की उम्र के बारे में फ़ैसला लेते वक़्त अदालत विधि आयोग की इस बात पर गौर करेगा. शादी की उम्र के मामले में लड़का-लड़की के बीच दोहरा मापदंड बराबरी के सभी उसूलों के ख़िलाफ़ है. चाहे यह उसूल संविधान के तहत तय किये गए हों या फिर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लागू संधियों/ समझौतों के तहत माने गए हों.
वैसे 18 साल की शादी जल्दी की शादी है. जल्दी मां बनने की मांग पैदा करती है. जल्दी मां बनने का मतलब, लड़की के लिए अचानक ढेरों ज़िम्मेदारियां. बेहतर है, इससे आगे की सोची जाए.