बिहार चुनाव 2020: आखिर क्यों मुस्लिम मतदाताओं ने नहीं किया ओवैसी पर भरोसा ?
नई दिल्ली। बिहार विधानसभा चुनाव में बड़ी उम्मीद लेकर उतरे आल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi) को एक बार फिर निराशा हाथ लगने वाली है। 2019 के लोकसभा चुनाव और बाद में किशनगंज में उपचुनाव में जीत के बाद ओवैसी को बिहार विधानसभा के चुनाव से काफी उम्मीदें थीं। लेकिन तीन चरण में हुए चुनावों के बाद जारी हुए एग्जिट पोल के नतीजों में ओवैसी के लिए कोई खास उम्मीद नहीं दिख रही है। तमाम एग्जिट पोल में ओवैसी की पार्टी वाले गठबंधन को 3-5 सीट ही मिलती नजर आ रही हैं।
2019 में पार्टी प्रदर्शन ने खींचा था ध्यान
ओवैसी की पार्टी AIMIM ने 2015 का चुनाव भी लड़ा था लेकिन पार्टी अपना कोई असर नहीं छोड़ पाई थी। पार्टी ने 2015 में सीमांचल के मुस्लिम बहुल इलाके में 6 सीटों पर चुनाव लड़ा था लेकिन पार्टी को एक पर भी जीत नहीं मिली। 5 सीटों पर तो पार्टी के उम्मीदवार अपनी जमानत भी नहीं बचा सके। हालांकि पार्टी कोचीधामन सीट पर 26.14% वोट पाकर दूसरे नंबर पर रही थी।
पार्टी ने पहली बार 2019 के लोकसभा के चुनाव में प्रदर्शन से ये जरूर साबित किया कि अब वह बिहार में कुछ असर रखने लगी है। AIMIM ने लोकसभा चुनाव में केवल किशनगंज सीट से प्रत्याशी उतारा था। हालांकि पार्टी चुनाव तो नहीं जीत सकी लेकिन उसने यहां मुकाबले को त्रिकोणीय जरूर बना दिया। किशनगंज सीट पर कांग्रेस के प्रत्याशी ने 33.32% वोट पाकर जीत दर्ज की थी। दूसरे नंबर पर रही जेडीयू को 30.19% वोट मिले थे जबकि AIMIM तीसरे नंबर पर रही थी। AIMIM को 26.78 % वोट हासिल किए थे। पार्टी बहादुरगंज और कोचाधामन क्षेत्र से आगे रही थी।
पार्टी को सबसे बड़ी सफलता 2019 में ही मिली जब इसने किशनगंज विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में जीत दर्ज की। पार्टी के प्रत्याशी कमरूल होदा ने बीजेपी की स्वीटी सिंह को हराकर राजनीतिक पंडितों को चौंका दिया था।
मुस्लिम वोटों का नहीं मिला साथ
लेकिन 2020 में लग रहा है पार्टी अपना प्रदर्शन जारी नहीं रख पाएगी। CAA-NRC की पिच पर इस बार का चुनाव लड़ने वाले ओवैसी की पार्टी एक बार फिर 2015 के जैसे हालात में पहुंच सकती है। ऐसा तब होता नजर आ रहा है जब पार्टी ने रालोसपा और बसपा जैसी पार्टियों के साथ गठबंधन कर इस बार 20 सीटों पर चुनाव लड़ रही है।
अगर AIMIM इस बार विधानसभा के चुनाव में असफल होती है तो इसकी साफ वजह होगी कि ओवैसी को मुस्लिम वोटों का साथ नहीं मिल सका। मुस्लिम वोटर जो ओवैसी की सबसे बड़ी उम्मीद थे उन्होंने NDA को हराने के लिए AIMIM की जगह महागठबंधन के प्रत्याशियों को चुना। AIMIM भले ही 2019 के लोकसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया था लेकिन एक बात समझने वाली है कि वह चुनाव बिहार की सरकार बनाने का चुनाव नहीं था। किशनगंज की विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में भी यही बात लागू होती है। पार्टी ने यहां जीत तो हासिल की लेकिन बीजेपी दूसरे नंबर पर रही थी। जीत का अंतर भी 10 हजार ही था। यही वजह है कि इस बार मुसलमानों ने वोटों का बिखराव रोकने के लिए एक बार फिर से महागठबंधन पर अपना भरोसा जताया।
AIMIM के बढ़ने से महागठबंधन को होता नुकसान
वहीं अगर 2019 के लोकसभा चुनाव के आंकड़ों को देखें तो साफ समझ आ जाता है कि किस तरह ओवैसी के चुनाव लड़ने ने किस तरह एनडीए को फायदा पहुंचता है। किशनगंज लोकसभा के अंतर्गत आने वाली 6 विधानसभा सीटों पर AIMIM पहले नंबर पर रही थी वहीं एक सीट पर दूसरे नंबर पर और तीन सीट पर तीसरे नंबर पर रही थी। वहीं एनडीए प्रत्याशी एक विधानसभा सीट पर पहले नंबर पर जबकि चार लोकसभा सीट पर दूसरे नंबर पर रहा था जबकि एक सीट पर एनडीए प्रत्याशी तीसरे स्थान पर रहा। अगर AIMIM चुनाव न लड़ती तो ये वोट महागठबंधन के खाते में जाते और शायद तब कांग्रेस प्रत्याशी की जीत का अंतर तो अलग होता ही विधानसभा वार भी पार्टी का प्रदर्शन हट के होता। शायद यही वजह है कि इस बार मुस्लिम मतदाताओं ने वोटों के बिखराव को रोकने के लिए ओवैसी की जगह महागठबंधन के साथ जाने का फैसला कर लिया।